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CONTENTS
परिचय | भक्ति का तात्पर्यभक्ति का आधार | भक्ति की विशेषताएँ| भक्ति के प्रकार| भक्ति एवं प्रपत्ति | भगवान का स्वरूप| भगवद्गीता में भक्ति की अवधारणा|

योग के प्रकार - 7

भक्तियोग

अन्य लिंक : पतंजलि योग | हठयोग | मन्त्र योग | लय योग |कर्म योग|ज्ञान योग|| भक्तियोग | ध्यानयोग |

भक्तियोग

परिचय - भक्तियोग क्या है ?

 भक्तियोग से तात्पर्य भक्ति के माध्यम से ईश्वरानुभूति या परमतत्त्व के साथ योग है। भक्तियोग भक्तिमार्ग का साधन है। विवेकानन्द के अनुसार भक्ति योग ईश्वर प्राप्ति का सबसे सरल सहज मार्ग है।

 भक्ति का तात्पर्य

 भक्ति भावनाओं को संघीभूत (Condense) करने का मार्ग है। भक्ति शब्द की उत्पत्ति भज् धातु से है, जिसका अर्थ होता है, भजना एवं भाव है सतत् रूप से उसी विचार या भाव पर आना। भक्ति के अन्य सम्बन्धित शब्द उपासना, पूजा, तपस्या, आराधना, जप, होम आदि है।

भक्ति का आधार

 भक्ति का आधार भावना है। मानव में प्रतिक्षण कोई न कोई भावना उत्पन्न होती रहती है। जब ये भावना अपने उद्देश्य में शुद्ध तथा उच्चतर आदर्श से प्रेरित होती हैं तो ये अच्छे एवं शुभ परिणाम, अनुभूति को लाती हैं। इसके विपरीत अशुद्ध एवं दूषित भावनाएँ अशुभ एवं विपरीतकारी परिणाम को उद्भावित करती हैं। किन्तु जब इन्हीं भावनाओं को सघन बना कर, उच्च आदर्श (ईश्वर) के प्रति लगाते हैं तब यह अपने आदर्श में अवशोषित होती हुई भक्ति का रूप ले लेती है।

 वास्तव में भक्ति के आधार भावना एवं इसकी परिणति के रूप में निम्न हो सकते हैं

*                  श्रद्धा

*                  आस्था

*                  विश्वास

*                  ईश्वर-प्रकाशना

 

भक्ति की विशेषताएँ (Characteristics of Bhakti)

*                  भक्ति अन्य मार्गों की अपेक्षा सरल मार्ग है।

*                  यह सभी के लिये समान रूप से खुला है, जाति, धर्म, लिंग आधारित नहीं है।

*                  विशेष अर्हता, विशेष ज्ञान, सक्षमता की कमी  इसमें बाधक नहीं हैं।

*                  भक्त का सरल, सहज एवं निर्मल होना ही भक्ति में आधारभूत है।

*                  भक्ति, भक्त एवं भगवान के द्वैत (दो तत्त्व) पर आधारित है।

*                  इस प्रकार इसमें तीन प्रमुख तत्त्व हैं

Ø      भक्त, - साधक, उपासक, भजने वाला, व्रती इत्यादि

Ø      भक्ति उपासना, साधना, भजन, कीर्तन आदि,

Ø      भगवान भक्ति का आदर्श, ईश्वर, परमतत्त्व

*                  भक्ति भावना प्रधान एवं द्विरेखीय है, अर्थात् जैसी निष्ठा एवं समर्पण भक्त का भगवान के प्रति होता है, वैसा ही उसे अपने आदर्श (भगवान) का स्वरूप दिखायी देता है।

भक्ति के प्रकार

भक्ति दो प्रकार की हो सकती है :

1.      सोपाधिक भक्ति

2.      निरूपाधिक भक्ति

सोपाधिक भक्ति से तात्पर्य है उपाधि या शर्त (Condition) के साथ। उदारहणार्थ यदि किसी विशेष इच्छा पूर्ति हेतु भक्ति आरम्भ होती है, एवं उसके मिलने से समाप्त होती है तो ऐसी भक्ति सोपाधिक है।

निरूपाधिक भक्ति से तात्पर्य है बिना शर्त, प्रयोजन रहित (समर्पण)। जब भक्ति केवल ईश्वरोपासाना के लिये ईश्वरोपासना करता है तब निरूपाधिक भक्ति होती है। निरूपाधिक भक्ति भक्ति की उच्चतर अवस्था है। जब साधक या भक्त या अनुभूत करता है कि सभी कुछ यहाँ तक की उसकी देह मन बुद्धि सभी भगवान मय है, तथा भगवान से पृथक या अलग कुछ भी नहीं तब उसे अपने लिये कुछ प्राप्त करना शेष नहीं रहता, तब भक्ति निरुपाधिक हो जाती है।

भक्ति एवं प्रपत्ति नवधाभक्ति (नवप्रकार की भक्ति) एवं षट्-शरणागति

अर्थ :            नवधाभक्ति   - नौ प्रकार की भक्ति

प्रपत्ति       - पत् अर्थात् गिरना प्रपत् अर्थात् सतत् चित्त का  

               भगवान की ओर गिरना, लगना होना।

नवधा भक्ति के प्रकार हैं -

 

श्रवणं कीर्तनं विष्णो स्मरणं पादसेवनम्।

अर्चनं वन्दनं दास्यं सख्यं आत्मनिवेदनम्।

 

भक्ति वास्तव में आदर्श या ईश्वर के गुणों से अभिभूतता की स्थिति है। जब उपासक या भक्ति में भक्त अपने इष्ट के प्रति सम्पूर्ण समर्पण भाव से जुड़ता है, एवं उसकी श्रद्धा अविचल एवं अविराम, सतत एवं स्थिर होती है । यह स्थिति शरणागति की होती है। शरणागति की स्थिति में भक्ति लगातार भगवान की शरण में होता है उसकी भावना एवं श्रद्धा भगवान या भक्ति के केन्द्र की ओर प्रति होने से इसे प्रपत्ति कहा गया है। षड् प्रपत्तियाँ निम्न लिखित हैं

 

अनुकूलस्य सङ्कल्पं प्रतिकूलस्य वर्जनम्।

रक्षस्यतीति विश्वासो गोप्तृत्वे वरणे तथा।

आत्मनिक्षेपकार्पण्यो षडविधा शरणागति।।

भगवान का स्वरूप

भगवद्गीता में समस्त कर्मों के फलप्रदाता के रूप में भगवान का स्वरूप वर्णित है। इसके अन्तर्गत गीता के विभूतियोग नामक अध्याय में समस्त उत्कृष्टताओं की सृष्टि एवं उनमें भगवान का स्वरूप ही विवेचित किया गया है। समस्त भाव यथा अहिंसा, समता, तुष्टि, तप, दान, यश, अयश इत्यादि भगवान से ही उत्पन्न कहे गए हैं

अहिंसा समता तुष्टिस्तपो दानं यशोSयशः।

भवन्ति भावा भूतानां मत्त एवं पृथग्विधाः।।

- श्रीमद्भगवद्गीता, X/5

अहं सर्वस्य प्रभवो मत्तः सर्वं प्रवर्तते। (भ.गी. X/8)

अर्थात् मैं (भगवान श्रीकृष्ण) सभी में समावेशित हैं तथा उन्हीं से सभी कुछ प्रवर्तित होता है चलता है।

भगवान षडैश्वर्यों (श्री, वाक्, स्मृति, मेधा, क्षमा, वीर्य) के धाम तथा गुणाष्टकों से युक्त तथा सोलह कलाओं से विभूषित हैं।

भगवद्गीता में भक्ति की अवधारणा-

भगवद्गीता के 7वें से 12वें अध्याय पर्यन्त भक्ति योग स्पष्ट रूप से व्यक्ति हुया है। भगवद्गीता के बारहवें अध्याय का नाम ही भक्तियोग है। यहाँ पर वर्णित निम्न बिन्दु प्रमुखता से वर्णित हुए हैं

1.      भक्ति की विशिष्टता / श्रेष्ठता

गीता में अर्जुन यह प्रश्न करते हैं कि अव्यक्त एवं अक्षर ब्रह्म की उपासना करने वाले एवं भगवान (श्री कृष्ण) को उपासना करने वाले दोनों में कौन श्रेष्ठ हैं ?’ (XII/1) इसके उत्तर में कहा गया है -

मय्यावेश्य मनो ये मां नित्ययुक्ता उपासते।

श्रद्धया परयोपेतास्ते मे युक्ततमा मताः।।

- भगवद्गीता, XII/

कि नित्य उपासना से युक्त भगवान के प्रति समर्पित परा श्रद्धा से युक्त भक्त श्रेष्ठ है, अर्थात् यहाँ पर निर्गुण उपासना से सगुण उपासना श्रेष्ठ बतलायी गयी है।

2.      भक्त का स्वरूप  एवं गुण :

भक्त के गुण इस प्रकार बतलाए गये हैं वह अद्वेष कारी, मैत्री भाव युक्त, करूणा युक्त, अहंकार रहित, सुख-दुःख सहने में सक्षम भक्ति योग्य हो। वास्तव में भक्ति निर्मलता युक्त भावों का समुच्चय है।

भगवद्गीता में भक्ति की स्थिति एवं भक्ति की परिणति के विषय में भगवान कृष्ण अर्जुन से स्पष्ट कहते हैं कि मुझमें मन, बुद्धि लगाने पर मुझे ही प्राप्त करोगे, इसमें संशय नहीं है।

3.      भगवान को प्रिय - श्रद्धा एवं भक्ति सहित निश्छल भक्त  

भगवान को प्रिय भक्त की विशेषताएँ के सन्दर्भ में कहा गया है कि उसे संतुष्ट, सतत् योगी, दृढ़ निश्चयी होना चाहिये, साथ ही जिससे अन्य व्यक्ति उद्वेग को प्राप्त नहीं करते, और जो दूसरों को कष्ट नहीं देता एवं हर्ष, भय, उद्वेग आदि से विमुक्त होने आदि होने पर प्रिय कहा गया है। स्पष्ट है कि इन्हीं से युक्त होने पर भक्ति सफल होती है

संतुष्टः सततं योगी यतात्मा दृढनिश्चयः।

मय्यर्पितमनोबुद्धिर्यो मद्भक्तः स मे प्रियः।।

- भगवद्गीता, XII/14

4.      भक्ति योग में क्या करना है ?

समस्त कर्मों का भगवान में अर्पण। गीता में कहा गया है कि -

यत्करोषि यद्श्नाषि यज्जुहोषि ददासि यत्।

यत्तपसि कौन्तेय तत्कुरुष्व मदर्पणम्।। (भ.गी. IX/27)

अर्थात् जो कुछ भी कर्म करते हो, भोजन करते हो, यज्ञ करते हो, देते हो, तप करते हो वह समस्त मेरे अर्पण करो। इसके परिणाम को व्यक्त करते हुये पुनः आगे कहा गया है।

5.      भक्तियोग की परिणति

भक्ति योग वास्तव में सरल एवं निश्चित फल प्रदायक मार्ग है। भगवान स्पष्ट तौर पर स्वयं कहते हैं कि

मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मा नमस्कुरु।

मामेवैष्यसि युक्त्वैवमात्मनं मत्परायणः।।  (भ.गी. IX/34)

अर्थात् मेरे मन युक्त हो, मुझे नमस्कार करो, इस प्रकार आत्म भाव से युक्त होकर मुझे ही प्राप्त करोगे इसमें संशय नहीं है।

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भक्तियोग

*                        अवधारणात्मक बिन्दुवार समझ हेतु

*      परिचय

*      भक्ति का तात्पर्य

*      भक्ति का आधार

*      भक्ति के प्रकार

§         सोपाधिक भक्ति

§         निरूपाधिक भक्ति

*      भक्ति एवं प्रपत्ति

§         नवधाभक्ति

§         प्रपत्ति

*      भगवद्गीता में भगवान का स्वरूप

*      भगवद्गीता में भक्ति की अवधारणा-

§         भक्ति की विशिष्टता / श्रेष्ठता

§         भक्त का स्वरूप  एवं गुण

§         भक्ति एवं श्रद्धा

§         भक्तियोग की परिणति

§         भक्ति योग में क्या करना है ?

सन्दर्भ-ग्रन्थ

  1. श्रीमद्भगवद्गीता, गीताप्रेस गोरखपुर
  2. गीतरहस्य या कर्मयोगशास्त्र, लोकमान्य बालगंगाधर तिलक,
  3. Shrimadbhagavadgita, S. Radhakrishanan

प्रगत् अध्ययन एवं चर्चा के लिये 

  1. भक्ति एवं योगसमन्वय
  2. भक्ति उपासना का सबसे प्रचलित, एवं व्यापक माध्यम है। संसार के सभी धर्मों में भक्ति माध्यम भक्ति ही है।
  3. अन्धविश्वास एवं भक्ति

     
 
 

Authored & Developed By       ::        Dr. Sushim Dubey

&दार्शनिक-साहित्यिक अनुसंधान                      ?  डॉ.सुशिम दुबे,                             G    Yoga

Dr. Sushim Dubey

® This study material is based on the courses  taught by Dr. Sushim Dubey to the Students of M.A. (Yoga) Rani Durgavati University, Jabalpur  and the Students of Diploma in Yoga Studies/Therapy of  Morarji Desai National Institute of Yoga, New Delhi, during 2005-2008 © All rights reserved.