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श्लोक - वर्णानामर्थसंघानां रसानां छन्दसामपि।

मङ्गलानां च कर्तारौ वन्दे वाणीविनायकौ।।1।।

भवानीशङ्करौ वन्दे श्रद्धाविश्वासरूपिणौ।

याभ्यां बिना न पश्यन्ति सिद्धाः स्वान्तःस्थमीश्वरम्।।2।।

वन्दे बोधमयं नित्यं गुरुं शङ्कररूपिणम्।

यमाश्रितो हि वक्रोऽपि चन्द्रः सर्वत्र वन्द्यते।।3।।

सीतारामगुणग्रामपुण्यारण्यविहारिणौ।

वन्दे विशुद्धविज्ञानौ कबीश्वरकपीश्वरौ।।4।।

उद्भवस्थितिसंहारकारिणीं क्लेशहारिणीम्।

सर्वश्रेयस्करीं सीतां नतोऽहं रामवल्लभाम्।।5।।

यन्मायावशवर्ति विश्वमखिलं ब्रह्मादिदेवासुरा

यत्सत्त्वादमृषैव भाति सकलं रज्जौ यथाहेर्भ्रमः।

यत्पादप्लवमेकमेव हि भवाम्भोधेस्तितीर्षावतां

वन्देऽहं तमशेषकारणपरं रामाख्यमीशं हरिम्।।6।।

नानापुराणनिगमागममसम्मतं यद्रामायणे निगदितं क्वचिदन्यतोऽपि।

स्वान्तःसुखाय तुलसी रघुनाथगाथाभाषानिबन्धमतिमञ्जुलमातनोति।।7।।

सोरठा-जो सुमिरत सिधि होइ गन नायक करिबर बदन।

करउ अनुग्रह सोइ बुद्धि रासि  सुभ गुन सदन।।1।।

मूक होइ बाचाल पंगु चढ़इ गिरिबर गहन।

जासु कृपाँ सो दयाल द्रवउ सकल कलि मल दहन।।2।।

नील सरोरुह स्याम तरुन अरुन बारिज नयन।

करउ सो मम उर धाम सदा छीरसागर सयन।

कुंद इंदु सम देह उमा रमन करुना अयन।

जाहि दीन पर नेह करउ कृपा मर्दन मयन।।4।।

बंदउँ गुरु पद कंज कृपा सिंधु नररूप हरि।

                          

महामोह तम पुंज जासु बचन रबि कर निकर।।5।।

बंदउँ गुरु पद पदुम परागा। सुरुचि सुबस सरस अनुरागा।।

अमिअ मूरिमय चूरन चारू। समन सकल भव रूज परिवारू।।

सुकृति संभु तन बिमल बिभूती। मंजुल मंगल मोद प्रसूती।।

जन मन मंजु मुकुर मल हरनी। किएँ तिलक गुन गन बस करनी।।

श्रीगुर पद नख मनि गन जोती। सुमिरत दिब्य दृष्टि हियँ होती।।

दलन मोह तम सो सप्रकासू। बड़े भाग उर आवइ जासू।।

उघरहिं बिमल बिलोचन ही के। मिटहिं दोष दुख भव रजनीके।।

सूझहिं राम चरित मनि मानिक। गुपुत प्रगट जहँ जो जेहि खानिक।।

दोहा-जथा सुअंजन अंजि दृग साधक सिद्ध सुजान।

कौतुक देखत सैल बन भूतल भूरि निधान।।1।।

गुरु पद रज मृदु मंजुल अंजन। नयन अमिअ दृग दोष बिभंजन।।

तेहिं करि बिमल बिबेक बिलोचन। बरनउँ राम चरित भव मोचन।।

बंदउँ प्रथम महीसुर चरना। मोह जनित संसय सब हरना।।

सुजन समाज सकल गुन खानी। करउँ प्रनाम सप्रेम सुबानी।।

साधु चरित सुभ चरित कपासू। निरस बिसद गुनमय फल जासू।।

                          

जो सहि दुख परछिद्र दुरावा। बंदनीय जेहिं जग जस पावा।।

मुद मंगलमय संत समाजू। जो जग जंगम तीरथराजू।।

राम भक्ति जहँ सुरसरि धारा। सरसइ ब्रह्म बिचार प्रचारा।।

बिधि निषेधमय कलि मल हरनी। करम कथा रबिनंदनि बरनी।।

हिर हर कथा बिराजति बेनी। सुनत सकल मुद मंगल देनी।।

बटु बिस्वास अचल निज धरमा। तीरथ राज समाज सुकरमा।।

सबहि सुलभ सब दिन सब देसा। सेवत सादर समन कलेसा।।

अकथ अलौकिक तीरथराऊ। देइ सद्य फल प्रगट प्रभाऊ।।

दोहा-सुनि समुझहिं जन मुतित मन मज्जहिं अति अनुराग।

लहहिं चारि फल अछत तनु साधु समाज प्रयाग।।2।।

मज्जन फल पेखिअ ततकाला। काक होहिं पिक बकउ मराला।।

सुनि आचरज करै जनि कोई। सतसंगति महिमा नहिं गोई।।

बालमीक नारद घटजोनी। निज निज मुखनि कही निज होनी।।

जलजर थलचर नभचर नाना। जे जड़ चेतन जीव जहाना।।

मति कीरति गति भूति भलाई। जब जेहिं जतन जहाँ जेहिं पाई।।

सो जानब सतसंग प्रभाऊ। लोकहुँ बेद न आन उपाऊ।।

                          

बिनु सतसंग बिबेक न होई। राम कृपा बिनु सुलभ न सोई।।

सतसंगत मुद मंगल मूला। सोइ फल सिधि सब साधन फूला।।

सठ सुधरहिं सतसंगति पाई। पारस परस कुधात सुहाई।।

बिधि बस सुजन कुसंगत परहीं। फनि मनि सम निज गुन अनुसरहीं।।

बिधि हरि हर कबि कोबिद बानी। कहत साधु महिमा सकुचानी।।

सो मो सन कहि जात न कैसें। साक बनिक मनि गुन गन जैसें।।

दोहा-बंदउँ संत समान चित हित अनहित नहिं कोइ।

अंजलि गत सुभ सुमन जिमि सम सुगंध कर दोइ।।3क।।

संत सरल चित जगत हित जानि सुभाउ सनेहु।

बालबिनय सुनि करि कृपा रामचरन रति देहु।।3ख।।

बहुरि बंदि खल गन सतिभाएँ। जे बिनु काज दाहिनेहु बाएँ।।

पर हित हानि लाभ जिन्ह केरें। उजरें हरष बिषाद बसेरें।।

हिर हर जस राकेस राहु से। पर अकाज भट सहसबाहु से।।

जे पर दोष लखहिं सहसाखी। पर हित घृत जिन्ह के मन माखी।।

तेज कृसानु रोष महिषेसा। अघ अवगुन धन धनी धनेसा।।

उदय केत सम हित सबही के। कुंभकरन सम सोवत नीके।।

                          

पर अकाजु लगि तनु परिहरहीं। जिमि हिम उपल कृषी दलि गरहीं।।

बंदउँ खल जस सेष सरोषा। सहस बदन बरनइ पर दोषा।।

पुनि प्रनबउँ पृथुराज समाना। पर अघ सुनइ सहस दस काना।।

बहुरि सक्र सम बिनवउँ तेहि। संतत सुरानीक हित जेही।।

बचन बज्र जेहि सदा पिआरा। सहस नयन पर दोष निहारा।।

दोहा-उदासीन अरि मीत हित सुनत जरहिं खल रीति।

जानि पानि जुग जोरि जन बिनती करइ सप्रीति।।4।।
मैं अपनी दिसि कीन्ह निहोरा। तिन्ह निज ओर न लाउब भोरा।।

बायस पलिअहिं अति अनुरागा। होहिं निरामिष कबहुँ कि कागा।।

बंदउँ संत असज्जन चरना। दुखप्रद उभय बीच कछु बरना।।

बिछुरत एक प्रान हरि लेहीं। मिलत एक दुख दारुन देहीं।।

उपजहिं एक संग जग माहीं। जलज जोंक जिमि गुन बिलगाहीं।।

सुधा सुरा सम साधु असाधू। जनक एक जग जलधि अगाधू।।

भल अनभल निज निज करतूती। लहत सुजस अपलोक बिभूती।।

सुधा सुधाकर सुरसरि साधू। गरल अनल कलिमल सरि ब्याधू।।

गुन अवगुन जानत सब कोई। जो जेहि भाव नीक तेहि सोई।।

                          

दोहा-भलो भलाइहि पै लहइ निजाइहि नीचु।

सुधा सराहिअ अमरताँ गरल सराहिअ मीचु।।5।।

खल अघ अगुन साधु गुन गाहा। उभय अपार उदधि अवगाहा।।

तेहि तें कछु गुन दोष बखाने। संग्रह त्याग न बिनु पहिचाने।।

भलेउ पोच सब बिधि उपजाए। गनि गुन दोष बेद बिलगाए।।

कहहिं बेद इतिहास पुराना। बिधि प्रपंचु गुन अवगुन साना।।

दुख सुख पाप पुन्य दिन राती। साधु असाधु सुजाति कुजाती।।

दानव देव ऊँच अरु नीचू। अमिअ सुजीवनु माहुरु मीचू।।

माया ब्रह्म जीव जगदीसा। लच्छि अलच्छि रंक अवनीसा।।

कासी मग सुरसरि क्रमनासा। मरु मारव महिदेव गवासा।।

सरग नरक अनुराग बिरागा। निगमागम गुन दोष बिभागा।।

दोहा-जड़ चेतन गुन दोषमय बिस्व कीन्ह करतार।

संत हंस गुन गहहिं पय परिहरि बारि बिकार।।6।।

अस बिवेक जब देइ बिधाता। तब तजि दोष गुनहिं मनु राता।।

काल सुभाउ करम बरिआईं। भलेउ प्रकृति बस चुकइ भलाईं।।

सो सुधारि हरिजन जिमि लेहीं। दलि दुख दोष बिमल जसु देहीं।।

                          

खलउ करहिं भल पाइ सुसंगू। मिटइ न मलिन सुभाउ अभंगू।।

लखि सुबेष जग बंचक जेऊ। बेष प्रताप बूजिअहिं तेऊ।।

उघरहिं अंत न होइ निबाहू। कालनेमि जिमि रावन राहू।।

किएहउँ कुबेषु साधू सनमानू। जिमि जग जामवंत हनुमानू।।

हानि कुसंग सुसंगति लाहू। लोकहुँ बेद बिदित सब काहू।।

गगन चढ़इ रज पवन प्रसंगा। कीचहिं मिलइ नीच जल संगा।।

साधु असाधु सदन सुक सारीं। सुमिरहिं राम देहिं गनि गारीं।।

धूम कुसंगति कारिख होई। लिखिअ पुरान मंजु मसि सोई।।

सोइ जल अनल अनिल संघाता। होइ जलद जग जीवन दाता।।

दोहा-ग्रह भंषज जल पवन पट पाइ कुजोग सुजोग।

                          

होहिं कुबस्तु सुबस्तु जग लखहिं सुलच्छन लोग।।7क।।

सम प्रकास तम पाख दुहुँ नाम भेद बिधि कीन्ह।

ससि सोषक पोषक समुझि जग जस अपजस दीन्ह।।7ख।।

जड़ चेतन जग जीव जत सकल राममय जानि।

बंदउँ सब के पद कमल सदा जोरि जुग पानि।।7ग।।

देव दनुज नर नाग खग प्रेत पितर गंधर्ब।

बंदउँ किंनर रजनिचर कृपा करहु अब सर्ब।।7घ।।

आकर चारि लाख चौरासी। जाति जीव जल थल नभ बासी।।

सीय राममय सब जग जानी। करउँ प्रनाम जोरि जुग पानी।।

जानि कृपाकर किंकर मोहू। सब मिलि करहु छाड़ि छल छोहू।।

निज बुधि बल भरोस मोहि नाही। तातें बिनय करउँ सब पाहीं।।

करन चहउँ रघुपति गुन गाहा। लघु मित मोरि चरित अवगाहा।।

सूझ न एकउ अंग उपाऊ। मन मति रंक मनोरथ राऊ।।

मति अति नीच ऊँचि रुचि आछी। चहिअ अमिअ जग जुरइ न छाछी।।

छमिहहिं सज्ज्न मोरि ढिठाई। सुनिहहिं बालपबचन मन लाई।।

जों बालक कह तोतरि बाता। सुनहिं मुदित मन पितु अरु माता।।

                          

हँसिहहिं कूर कुटिल कुबिचारी। जे पर दूषन भूषनधारी।।

निज कबित्त केहि लाग न नीका। सरस होउ अथवा अति फीका।।

जे पर भनिति सुनत हरषाहीं। ते बर पुरुष बहुत जग नाहीं।।

जग बहु नर सर सरि सम भाई। जे निज बाढ़ि बढ़हिं जल पाई।।

सज्जन सकृत सिंधु सम कोई। देखि पूर बिधु बाढ़इ जोई।।

दोहा-भाग छोट अभिलाषु बड़ करउँ एक बिस्वास।

पैहहिं सुख सुनि सुजन सब खल करिहहिं उपहास।।8।।

खल परिहास होइ हित मोरा। काक कहहिं कलकंठ कठोरा।।

हंसहि बक दादुर चातकही। हँसहिं मलिन खल बिमल बतकही।।

कबित रसिक न राम पद नेहू। तिन्ह कहँ सुखद हासरस एहू।।

भाषा भनिति भोरि मति मोरी। हँसिबे जोग हँसें नहिं खोरी।।

प्रभु पद प्रीति न सामुझि नीकी। तिन्हहि कथा सुनि लागहि फीकी।।

हरि हर पद रति मति न कुतरकी। तिन्ह कहुँ मधुर कथा रघुबर की।।

राम भगति भूषित जियँ जानी। सुनिहहिं सुजन सराहि सुबानी।।

कबि न होउँ नहिं बचन प्रबीनू। सकल कला सब बिद्या हीनू।।

आखर अरथ अलंकृति नाना। छंद प्रबंध अनेक बिधाना।।

                          

बाव भेद रस भेद अपारा। कबित दोष गुन बिबिध प्रकारा।।

कबित बिबेक एक नहिं मोरें। सत्य कहउँ लिखि कागद कोरें।।

दोहा-भनिति मोरि सब गुन रहित बिस्व बिदित गुन एक।

सो बिचारि सुनिहहिं सुमति जिन्ह कें बिमल बिबेक।।9।।

एहि महँ रघुपति नाम उदारा। अति पावन पुरान श्रुति सारा।।

मंगल भवन अमंगल हारी। उमा सहित जेहि जपत पुरारी।।

भनिति बिचित्र सुकबि कृत जोऊ। राम नाम बिनु सोह न सोऊ।।

बिधुबदनी सब भाँति सँवारी। सोह न बसन बिना बर नारी।।

सब गुन रहित कुकबि कृत बानी। राम नाम जस अंकित जानी।।

सादर कहहिं सुनहिं बुध ताही। मधुकर सरिस संत गुनग्राही।।

जदपि कबित रस एकउ नाहीं। राम प्रताप प्रगट एहि माहीं।।

सोइ भरोस मोरें मन आवा। केहिं न सुसंग बड़प्पनु पावा।।

धूमउ तजइ सहज करुआई। अगरु प्रसंग सुगंध बसाई।।

भनिति भदेस बस्तु भलि बरनी। राम कथा जग मंगल करनी।।

छन्द-मंगल करनि कलि मल हरनि तुलसी कथा रघुनाथ की।

गति कूर कबिता सरित की ज्यों सरित पावन पाथ की।।

                          

प्रभु सुजस संगति भनिति भलि होइहि सुजन मन भावनी।

भव अंग भूति मसान की सुमिरत सुहावनि पावनी।।

दोहा-प्रिय लागिहि अति सबहि मम भनिति राम जस संग।

दारु बिचारु कि करइ कोउ बंदिअ मलय प्रसंग।।10क।।

स्याम सुरभि पय बिसद अति गुनद करहिं सब पान।

गिरा ग्राम्य सिय राम जस गावहिं सुनहिं सुजान।।10ख।।

मनि मानिक मुकुता छबि जैसी। अहि गिरि गज सिर सोह न तैसी।।

नृप किरीट तरुनी तनु पाई। लहहिं सकल सोभा अधिकाई।।

तैसेहिं सुकबि कबित बुध कहहीं। उपजहिं अनत अनत छबि लहहीं।।

भगति हेतु बिधि भवन बिहाई। सुमिरत सारद आवति धाई।।

राम चरित सर बिनु अन्हवाएँ। सो श्रम जाइ न कोटि उपाएँ।।

कबि कोबिद अस हृदयँ बिचारी। गावहिं हरि जस कलि मल हारी।।

कीन्हें प्राकृत जन गुन गाना। सिर धुनि गिरा लगत पछिताना।।

हृदय सिंधु मति सीप समाना। स्वाति सारदा कहहिं सुजाना।।

जौं बरसइ बर बारि बिचारू। होहिं कबित मुकुतामनि चारू।।

दोहा-जुगुति बेधि पुनि बोहिअहिं रामचरित बर ताग।

                          

पहिरहिं सज्जन बिमल उर सोभा अति अनुराग।।11।।

जे जनमे कलिकाल कराला। करतब बायस बेष मराला।।

चलत कुपंथ बेद मग छाँड़े। कपट कलेवर कलि मल भाँड़े।।

बंचक भगत कहाइ राम के। किंकर कंचन कोह काम के।।

तिन्ह महँ प्रथम रेख जग मोरी। धींग धरमध्वज धंधक धोरी।।

जौं अपने अवगुन सब कहऊँ। बाढ़इ कथा पार नहिं लहऊँ।।

ताते मैं अति अलप बखाने। थोरि महुँ जानिहहिं सयाने।।

समुझि बिभिधि बिधि बिनती मोरी। कोउ न कथा सुनि देइहि खोरी।।

एतेहु पर करिहहिं जे असंका। मोहि ते अधिक ते जड़ मति रंका।।

कबि न होउँ नहिं चतुर कहावउँ। मति अनुरूप राम गुन गावउँ।।

कहँ रघुपति के चरित अपारा। कहँ मति मोरि निरत संसारा।।

जेहिं मारुत गिरि मेरु उड़ाहीं। कहहु तूल केहि लेखे माहीं।।

समुझत अमित राम प्रभुताई। करत कथा मन अति कदराई।।

दोहा- सारद सेस महेस बिधि आगम निगम पुरान।

नेति नेति कहि जासु गुन करहिं निरंतर गान।।12।।

सब जानत प्रभु प्रभुता सोई। तदपि कहें बिनु रहा न कोई।।

                          

तहाँ बेद अस कारन राखा। भजन प्रभाउ भाँति बहु भाषा।।

एक अनीह अरूप अनामा। अज सच्चिदानंद पर धामा।।

ब्यापक बिस्वरूप भगवाना। तेहिं धरि देह चरित कृत नाना।।

सो केवल बगतन हित लागी। परम कृपाल प्रनत अनुरागी।।

जेहि जन परममता अति छोहू। जेहिं करुना करि कीन्ह न कोहू।।

गई बहोर गरीब नेवाजू। सरल सबल साहिब रघूराजू।।

बुध बनरहिं हरि जस अस जानी। करहिं पुनीत सुफल निज बानी।।

तेहिं बल मैं रघुपति गुन गाथा। कहिहउँ नाइ राम पद माथा।।

मुनिन्ह प्रथम हरि कीरति गाई। तेहिं मग चलत सुगम मोहि भाई।।

दोहा-अथि अपार जे सरित बर जौं नृप सेतु कराहिं।

चढ़ि पिपीलिकउ परम लघु बिनु श्रम पारहि जाहिं।।13।।

एहि प्रकार बल मनहि देखाई। करिहउँ रघुपति कथा सुहाई।।

ब्यास आदि कबि पुंगव नाना। जिन्ह सादर हरि सुजस बखाना।।

चरन कमल बंदउँ तिन्ह केरे। पुरवहुँ सकल मनोरथ मेरे।।

कलि के कबिन्ह करउँ परनामा।। जिन्ह बरने रघुपति गुन ग्रामा।।

जे प्राकृत कबि परम सयाने। भाषाँ जिन्ह हरि चरित बखाने।।

                          

भए जे अहहिं जे होइहहिं आगें। प्रनवउँ सबहि कपट सब त्यागें।।

होहु प्रसन्न देहु बरदानू। साधु समाज भनिति सनमानू।।

जो प्रबंध बुध नहिं आदरहीं। सो श्रम बादि बाल कबि करहीं।।

कीरति भनित भूति भलि सोई। सुरसरि सम सब कहँ हित होई।।

राम सुकीरति भनिति भदेसा। असमंजस अस मोहि अँदेसा।।

तुम्हरी कृपाँ सुलभ सोउ मोरे। सिअनि सुहावनि टाट पटोरे।।

दोहा-सरल कबित कीरति बिमल सोइ आदरहिं सुजान।

सहज बयर बिसरइ रिपु जो सुनि करहिं बखान।।14क।।

सो न होइ बिनु बिमल मति मोहि मति बल अति थोर।

करहु कृपा हरि जस कहउँ पुनि पुनि करउँ निहोर।।14ख।।

कबि कोबिद रघुबर चरित मानस मंजु मराल।

बाल बिनय सुनि सुरुचि लखि मोपर होहु कृपाल।।14ग।।

सोरठा-बंदउँ मुनि पद कंजु रामायन जेहिं निरमयउ।

सखर सुकोमल मंजु दोष रहित दूषन सहित।।14घ।।

बंदउँ चारिउ बेद भव बारिधि बोहित सरिस।

जिन्हहि न सपनेहुँ खेद बरनत रघुबर बिसद जसु।।14ङ।।

                          

बंदउँ बिधि पद रेनु भव सागर जेहिं कीनेह जहँ।

संत सुधा ससि धेनु प्रगटे खल बिष बारूनी।।14च।।

दोहा-बिबुध बिप्र बुध ग्रह चरन बंदि कहउँ कर जोरि।

होइ प्रसन्न पुरवहु सकल मंजु मनोरथ मोरि।।14छ।।

पुनि बंदउँ सारद सुरसरिता। जुगल पुनीत मनोहर चरिता।।

मज्जन पान पाप हर एका। कहत सुनत एक हर अबिबेका।।

गुर पितु मातु महेस भवानी। प्रनवउँ दीनबंधु दिन दानी।।

सेवक स्वामि सखा सिय पी के। हित निरुपधि सब बिधि तुलसी के।।

कलि बिलोकि जग हित हर गिरिजा। साबर मंत्र जाल जिन्ह सिरिजा।।

अनमिल आकर अरथ न जापू। प्रगट प्रभाउ महेस प्रतापू।।

सो उमेस मोहि पर अनुकूला। करिहिं कथा मुद मंगल मूला।।

सुमिरि सिवा सिव पाइ पसाऊ। बरनउँ रामचरित चित चाऊ।।

भनिति मोरि सिव कृपाँ बिभाती। ससि समाज मिलि मनहुँ सुराती।।

जे एहि कथहि सनेह समेता। कहिहहिं सुनिहहिं समुझि सचेता।।

होइहहिं राम चरन अनुरागी। कलि मल रहित सुमंगल भागी।।

दोहा-सपनेहुँ साचेहुँ मोहि पर जौं हर गौरि पसाउ।

                          

तौ फुर होउ जो कहेउँ सब भाषा भनिति प्रभाउ।।15।।

बंदउँ अवध पुरी अति पावनि। सरजू सरि कलि कलुष नसावनि।।

प्रनवउँ पुर नर नारि बहोरी। ममता जिन्ह पर प्रभुहि न थोरि।।

सिय निंदक अघ ओघ नसाए। लोक बिसोक बनाइ बसाए।।

बंदउँ कौसल्या दिसि प्राची। कीरति जासु सकल जग माची।।

प्रगटेउ जहँ रघुपति ससि चारू। बिस्व सुखद खल कमल तुसारू।।

दसरथ राउ सहित सब रानी। सुकृत सुमंगल मूरति मानी।।

करउँ प्रनाम करम मन बानी। करहु कृपा सुत सेवक जानी।।

जिन्हहि बिरचि बड़ भयउ बिधाता। महिमा अवधि राम पितु माता।।

सोरठा-बंदउँ अवध भुआल सत्य प्रेम जेहि राम पद।

बिछुरत दीनदयाल प्रिय तनु तृन इव परिहरेउ।।16।।

प्रनवउँ परिजन सहित बिदेहू। जाहि राम पद गूढ़ सनेहू।।

जोग भोग महँ राखेउ गोई। राम बिलोकत प्रगटेउ सोई।।

प्रनवउँ प्रथम भरत के चरना। जासु नेम ब्रत जाइ न बरना।।

राम चरन पंकज मन जासू। लुबुध मधुप इव तजइ न पासू।।

बंदउँ लछिमन पद जलजाता। सीतल सुभग भगत सुख दाता।।

                          

रघुपति कीरति बिमल पताका। दंड समान भयउ जस जाका।।

सेष सहस्रसीस जग कारन। जो अवतरेउ भूमि भय टारन।।

सदा सो सानुकूल रह मो पर। कृपासिंधु सौमित्रि गुनाकर।।

रिपुसूदन पद कमल नमामी। सुर सुसील भरत अनुगामी।।

महाबीर बिनवउँ हनुमाना। राम जासु जस आप बखाना।।

सोरठा-प्रनवउँ पवनकुमार खल बन पावक ग्यानघन।

जासु हृदय आगार बसहिं राम सर चाप धर।।17।।

कपिपति रीछ निसाचर राजा। अंगदादि जे कीस समाजा।।

बंदउँ सब के चरन सुहाए। अधम सरीर राम जिन्ह पाए।।

रघुपति चरन उपासक जेते। खग मृग सुर नर असुर समेते।।

बंदउँ पद सरोज सब केरे। जे बिनु काम राम के चेरे।।

सुक सनकादि भगत मुनि नारद। जे मुनिबर बिग्यान बिसारद।।

प्रनवउँ सबहि धरनि धरि सीसा। करहु कृपा जन जानि मुनीसा।।

जनकसुता जग जननि जानकी अतिसय प्रिय करुना निधान की।।

ताके जुग पद कमल मनावउँ। जासु कृपाँ निरमल मति पावउँ।।

पुनि मन बचन कर्म रघुनायक। चरन कमल बंदउँ सब लायक।।

                          

राजिवनयन धरें धनु सायक। भगत बिपति भंजन सुख दायक।।

दोहा-गिरा अरथ जल बीचि सम कहिअत भिन्न न भिन्न।

बंदउँ सीता राम पद जिन्हहि परम प्रिय खिन्न।।18।।

बंदउँ नाम राम रघुबर को। हेतु कृसानु भानु हिमकर को।।

बिधि हरि हरमय बेद प्रान सो। अगुन अनुपम गुन निधान सो।।

महामंत्र जोइ जपत महेसू। कासीं मुकुति हेतु उपदेसू।।

महिमा जासु जान गनराऊ। प्रथम पूजिअत नाम प्रभाऊ।।

जान आदिकबि नाम प्रतापू। भयउ सुद्ध करि उलटा जापू।।

सहस नाम सम सुनि सिव बानी। जपि जेईं पिय सग भवानी।।

हरषे हेतु हेरि हर ही को। किय भूषन तिय भूषन ती को।।

नाम प्रभाउ जान सिव नीको। कालकूट फलु दीन्ह अमी को।।

दोहा-बरषा रितु रघुपति भगति तुलसी सालि सुदास।

राम नाम बर बरन जुग सावन भादव मास।।19।।

आखर मधुर मनोहर दोऊ। बरन बिलोचन जन जिय जोऊ।।

सुमिरत सुलभ सुखद सब काहू। लोक लाहु परलोक निबाहू।।

कहत सुनत सुमिरत सुठि नीके। राम लखन सम प्रिय तुलसी के।।

                          

बरनत बरन प्रीति बिलगाती। ब्रह्म जीव सम सहज सँघाती।।

नर नारायन सरिस सुभ्राता। जग पालक बिसेषी जन त्राता।।

भगति सुतिय कल करन बिभूषन। जग हित हेतु बिमल बिधु पूषन।।

स्वाद तोष सम सुगति सुधा के। कमठ सेष सम धर बसुधा के।।

जन मन मंजु कंज मधुकर से। जीह जसोमति हरि हलधर से।।

दोहा-एकु छत्रु एकु मुकुटमनि सब बरननि पर जोउ।

तुलसी रघुबर नाम के बरन बिराजत दोउ।।20।।

समुझत सरिस नाम अरु नामी। प्रीति परसपर प्रभु अनुगामी।।

नाम रूप दुइ ईस उपाधी। अकथ अनादि सुसामुझि साधी।।

को बड़ छोट कहत अपराधू। सुनि गुन भेदु समुझिहहिं साधू।।

देखिअहिं रूप नाम आधीना। रूप ग्यान नहिं नाम बिहीना।।

रूप बिसेष नाम बिनु जानें। करतल गत न परहिं पहिचाने।।

सुमिरिअ नाम रूप बिनु देखें। आवत हृदयँ सनेह बिसेषें।।

नाम रूप गति अखथ कहानी। समुझत सुखद न परति बखानी।।

अघुन सगुन बिच नाम सुसाखी। उभय प्रबोधक चतुर दुभाषी।।

दोहा-राम नाम मनिदीप धरु जीह देहरीं द्वार।

                          

तुलसी भीतर बाहेरेहुँ जौं चाहसि उजिआर।।21।।

नाम जीहँ जपि जागहिं जोगी। बिरति बिरंचि प्रपंच बियोगी।।

ब्रह्मसुखहि अनुभवहिं अनूपा। अकथ अनामय नाम न रूपा।।

जाना चहहिं गूढ़ गति जेऊ। नाम जीहँ जपि जानहिं तेऊ।।

साधक नाम जपहिं लय लाएँ। होहिं सिद्ध अनिमादिक पाए।।

जपहिं नामु जन आरत भारी। मिटहिं कुसंकट होहिं सुखारी।।

राम भगत जग चारि प्रकारा। सुकृती चारिउ अनघ उदारा।।

चहू चतुर कहुँ नाम अधारा। ग्यानी प्रभुहि बिसेषि पिआरा।।

जहुँ जुग चहुँ श्रुति नाम प्रभाऊ। कलि बिसेषि नहिं आन उपाऊ।।

दोहा-सकल कामना हीन जे राम भगति रस लीन।

नाम सुप्रेम पियूष ह्रद तिन्हहुँ किए मन मीन।।22।।

अगुन सगुन दुइ ब्रह्म सरूपा। अकथ अगाध अनादि अनूपा।।

मोरें मत बड़ नामु दुहू तें। किए जेहिं जुग निज बस निज बूतें।।

प्रौढ़ि सुजन जनि जानहिं जन की। कहउँ प्रतीति प्रीति रूचि मन की।।

एकु दारुगत देखिअ एकू। पावक सम जुग ब्रह्म बिबेकू।।

उभय अगम जुगसुगम नाम तें। कहेउँ नामु बड़ ब्रह्म राम तें।।

ब्यापकु एकु ब्रह्म अबिनासी। सत चेतन घन आनँद रासी।

                          

अस प्रभु हृदयँ अछत अबिकारी। सकल जीव जग दीन दुखारी।।

नाम निरूपन नाम जतन तें। सोउ प्रगटत जिमि मोल रतन तें।।

दोहा-निरगुन तें एहि भाँति बड़ नाम प्रभाउ अपार।

कहउँ नामु बड़ राम तें निज बिचार अनुसार।।23।।

राम भगत हित नर तनु धारी। सहि संकट किए साधु सुखारी।।

नामु सप्रेम जपत अनयासा। भगत होहिं मुद मंगल बासा।।

राम एक तापस तिय तारी। नाम कोटि खल कुमति सुधारी।।

रिषि हित राम सुकेतुसुता की। सहित सेन सुत कीन्हि बिबाकी।।

सहित दोष दुख दास दुरासा। दलइ नामु जिमि रबि निसि नासा।।

भंजेउ राम आपु भव चापू। भव भय भंजन नाम प्रतापू।।

दंडक बनु प्रभु कीन्ह सुहावन। जन मन अमित नाम किए पावन।।

निसिचर निकर दले रघुनंदन। नामु सकल कलि कलुष निकंदन।।

दोहा-सबरी गीध सुसेवकनि सुगति दीन्ह रघुनाथ।

नाम उधारे अमित खल बेद बिदित गुन गाथ।।24।।

राम सुकंठ बिभीषन दोऊ। राखे सरन जान सबु कोऊ।।

नाम गरीब अनेक नेवाजे। लोक बेद बर बिरिद बिराजे।।

                          

राम भालु कपि कटकु बटोरा। सेतु हेतु श्रमु कीन्ह न थोरा।।

नामु लेत भवसिंधु सुखाहीं। करहु बिचारु सुजन मन माहीं।।

राम सकुल रन रावनु मारा। सीय सहित निज पुर पगु धारा।।

राजा रामु अवध राजधानी। गावत गुन सुर मुनि बर बानी।।

सेवक सुमिरत नामु सप्रीती। बिनु श्रम प्रबल मोह दलु जीती।।

फिरत सनेहँ मगन सुख अपनें। नाम प्रसाद सोच नहिं सपनें।।

दोहा-ब्रह्म राम तें नामु बड़ बर दायक बर दानि।

रामचरित सत कोटि महँ लिय महेस जियँ जानि।।25।।

नाम प्रसाद संभु अबिनासी। साजु अमंगल मंगल रासी।।

सुक सनकादि सिद्ध मुनि जोगी। नाम प्रसाद ब्रह्मसुख भोगी।।

नारद जानेउ नाम प्रतापू। जग प्रिय हरि हरि हर प्रिय आपू।।

नामु जपत प्रभु कीन्ह प्रसादू। भगत सिरोमनि भे प्रहलादू।।

ध्रुवँ सगलानि जपेउ हर नाऊँ। पायउ अचल अनूपम ठाऊँ।।

सुमिरि पवनसुत पावन नामू। अपने बस करि राखे रामू।।

अपतु अजामिलु गजु गनिकाऊ। भए मुकुत हरि नाम प्रभाऊ।।

कहौं कहाँ लगि नाम बड़ाई। रामु न सकहिं नाम गुन गाई।।

                          

दोहा-नामु राम को कलपतरु कलि कल्यान निवासु।

जो सुमिरत भयो भाँग तें तुलसी तुलसीदासु।।26।।

चहुँ जुग तीनि काल तिहुँ लोका। भए नाम जपि जीव बिसोका।।

बेद पुरान संत मत एहू। सकल सुकृत फल राम सनेहू।।

ध्यानु प्रथम जुग मखबिधि दूजें। द्वापर परितोषत प्रभु पूजें।।

कलि केवल मल मूल मलीना। पाप पयोनिधि जन मन मीना।।

नाम कामतरू काल कराला। सुमिरत समन सकल जग जाला।।

राम नाम कलि अभिमत दाता। हित परलोक लोक पितु माता।

नहिं कलि करम न भगति बिबेकू। राम नाम अवलंबन एकू।।

कालनेमि कलि कपट निधानू। नाम सुमति समरथ हनुमानू।।

दोहा-राम नाम नरकेसरी कनककसिपु कलिकाल।

जापक जन प्रहलाद जिमि पालिहि दलि सुरसाल।।27।।

भायँ कुभायँ अनख आलसहूँ। नाम जपत मंगल दिसि दसहूँ।।

सुमिरि सो नाम राम गुन गाथा। करउँ नाइ रघुनाथहि माथा।।

मोरि सुधारिहि सो सब भाँती। जासु कृपा नहिं कृपाँ अघाती।।

राम सुस्वामि कुसेवकु मोसो। निज दिसि देखि दयानिधि पोसो।।

                          

लोकहुँ बेद सुसाहिब रीती। बिनय सुनत पहिचानत प्रीती।।

गनी गरीब ग्रामनर नागर। पंडित मूढ़ मलीन उजागर।।

सुकबि कुकबि निज मति अनुहारी। नृपहि सराहत सब नर नारी।।

साधु सुजान सुसील नृपाला। ईस अंस भव परम कृपाला।।

सुनि सनमानहिं सबहि सुबानी। भनिति भगति नति गति पहिचानी।।

यह प्राकृत महिपाल सुभाऊ। जान सिरोमनि कोसलराऊ।।

रीझत राम सनेह निसोतें। को जग मंद मलिनमति मोतें।।

दोहा-सठ सेवक की प्रीति रुचि रखिहहिं राम कृपालु।

उपल किए जलजान जेहिं सचिव सुमति कपि भालु।।28क।।

हौंहु कहावत सबु कहत राम सहत उपहास।

साहिब सीतानाथ सो सेवक तुलसीदास।।28ख।।

अति बड़ि मोरि ढिठाई खोरी। सुनि अघ नरकहुँ नाक सकोरी।।

समुझि सहम मोहि अपडर अपनें। सो सुधि राम कीन्हि नहिं सपनें।।

सुनि अवलोकि सुचितचख चाही। भगति मोरि मति स्वामि सराही।।

कहत नसाइ होइ हियँ नीकी। रीझत राम जानि जन जी की।।

रहति न प्रभु चित चूक किए की। करत सुरति सय बार हिए की।।

                          

जेहिं अघ बधेउ ब्याध जिमि बाली। फिरि सुकंठ सोइ कीन्हि कुचाली।।

सोइ करतूति बिभीषन केरी। सपनेहुँ सो न राम हियँ हेरी।।

ते भरतहि भेंटत सनमाने। राजसभाँ रघुबीर बखाने।।

दोहा- प्रभु तरु तर कपि डार पर ते किए आपु समान।

तुलसी कहूँ न राम से साहिब सीलनिधान।।29क।।

राम निकाईं रावरी है सबही को नीक।

जौं यह साँची है सदा तौ नीको तुलसीक।।29ख।।

एहि बिधि निज गुन दोष कहि सबहि बहुरि सिरु नाइ।

बरनउँ रघुबर बिसद जसु सुनि कलि कलुष नसाइ।।29ग।।

जागबलिक जो कथा सुहाई। भरद्वाज मुनिबरहि सुनाई।

कहिहउँ सोइ संबाद बखानी। सुनहुँ सकल सज्जन सुखु मानी।।

संभु कीन्ह यह चरित सुहावा। बहुरि कृपा करि उमहि सुनावा।।

सोइ सिव कागभुसुंडिहि दीन्हा। राम भगत अधिकारी चीन्हा।।

तेहि सन जागबलिक पुनि पावा। तिन्ह पुनि भरद्वाज प्रति गावा।।

ते श्रोता बकता समसीला। सवँदरसी जानहिं हरिलीला।।

जानहिं तीनि काल निज ग्याना। करतल गत आमलक समाना।।

                          

औरउ जे हरिभगत सुजाना। कहहिं सुनहिं समुझहिं बिधि नाना।।

दोहा-मैं पुनि निज गुर सन सुनी कथा सो सूकरखेत।

समुझी नहिं तसि बालपन तब अति रहेउँ अचेत।।30क।।

श्रोता बकता ग्याननिधि कथा राम कै गूढ़।

किमि समुझौं मैं जीव जड़ कलि मल ग्रसित बिमूढ़।।30ख।।

तदपि कही गुर बारहिं बारा। समुझि परी कछु मति अनुसारा।।

भाषाबद्ध करबि मैं सोई। मोरें मन प्रबोध जेहिं होई।।

जस कछु बुधि बिबेक बल मेरें। तस कहिहउँ हियँ हरि के प्रेरें।।

निज संदेह मोह भ्रम हरनी। करउँ कथा भव सरिता तरनी।।

बुध बिश्राम सकल जन रंजनि। रामकथा कलि कलुष बिभंजनि।।

रामकथा कलि पंनग भरनी। पुनि बिबेक पावक कहुँ अरनी।।

रामकथा कलि कामद गाई। सुजन सजीवनि मूरि सुहाई।।

सोइ बसुधातल सुधा तरंगिनि। भय भंजनि भ्रम भेक भुअंगिनि।।

असुर सेन सम नरक निकंदिनि। साधु बिबुध कुल हित गिरिनंदिनि।।

संत समाज पयोधि रमा सी। बिस्व भार भर अचल छमा सी।।

जम गन मुँह मसि जग जमुना सी। जीवन मुकुति हेतु जनु कासी।।

                          

रामहि प्रिय पावनि तुलसी सी। तुलसिदास हित हियँ हुलसी सी।।

सिवप्रिय मेकल सैल सुता सी। सकल सिद्धि सुख संपत्ति रासी।।

सद्गुन सुरगन अंब अदिति सी। रघुबर भगति प्रेम परमिति सी।।

दोहा-रामकथा मंदाकिनी चित्रकूट चित चारु।

तुलसी सुभग सनेह बन सिय रघुबीर बिहारु।।31।।

रामचरित चिंतामनि चारू। संत सुमति तिय सुभग सिंगारू।।

जग मंगल गुनग्राम राम के। दानि मुकुति धन धर्म धाम के।।

सदगुर ग्यान बिराग जोग के। बिबुध बैद भव भीम रोग के।।

जननि जनक सिय राम प्रेम के। बीज सकल ब्रत धरम नेम के।।

समन पाप संताप सोक के। प्रिय पालक परलोक लोक के।।

सचिव सुभट भूपति बिचार के। कुंभज लोभ उदधि अपार के।।

काम कोह कलिमल करिगन के। केहरि सावक जन मन बन के।।

अतिथि पूज्य प्रियतम पुरारि के। कामद घन दारिद दवारि के।।

मंत्र महामनि बिषय ब्याल के। मेटत कठिन कुअंक भाल के।।

हरन मोह दम दिनकर कर से। सेवक सालि पाल जलधर से।।

अभिमत दानि देवतरु बर से। सेवत सुलभ सुखद हरि हर से।।

सुकबि सरद नभ मन उडगन से। रामभगत जन जीवन धन से।।

                          

सकल सुकृत फल भूरि भोग से। जग हित निरुपधि साधु लोग से।।

सेवक मन मानस मराल से। पावन गंग तरंग माल से।।

दोहा-कुपथ कुतरक कुचालि कलि कपट दंभ पाषंड।

दहन राम गुन ग्राम जिमि इंधन अनल प्रचंड।।32क।।

रामचरित राकेस कर सरिस सुखदसब काहु।

सज्जन कुमुद चकोर चित हित बिसेषि बड़ लाहु।।32ख।।

कीन्हि प्रस्न जेहि भाँति भवानी। जिह बिधि संकर कहा बखानी।।

सो बस हेतु कहब मैं गाई। कथाप्रबंध बिचित्र बनाई।।

जहिं यह कथा सुनी नहिं होई। जनि आचरजु करै सिनि होई।।

कथा अलौकिक सुनहिं जे ग्यानी। नहिं आचरजु करहिं अस जानी।।

रामकथा कै मिति जग नाहीं। असि प्रतीति तिन्ह के मन माहीं।।

नाना भाँति राम अवतारा। रामायन सत कोटि अपारा।।

कलपभेद हरिचरित सुहाए। भाँति अनेक मुनीसन्ह गाए।।

करिअ न संसय अस उर आसनी। सुनिअ कथा सादर रति मानी।।

दोहा-राम अनंत अनंत गुन अमित कथा बिस्तार।

सुनि आचरजु न मानिहहिं जिन्ह कें बिमल बिचार।।33।।

                          

एहि बिधि सब संसय करि दूरी। सिर धरि गुर पद पंकज धूरी।।

पुनि सबही बिनवउँ कर जोरी। करत कथा जेहिं लाग न खोरी।।

सादर सिवहि नाइ अब माथा। बरनउँ बिसद राम गुन गाथा।।

संबत सोरह सै एकतीसा। करउँ कथा हरि पद धरि सीसा।।

नौमी भौम बार मधु मासा। अवधपुरीं यह चरित प्रकासा।।

जोहि दिन राम जनम श्रुति गावहिं। तीरथ सकल तहाँ चलि आवहिं।।

असुर नाग खग नर मुनि देवा। आइ करहिं रघुनायक सेवा।।

जन्म महोत्सव रचहिं सुजाना। करहिं राम कल कीरति गाना।।

दोहा- मज्जहिं सज्जन बृंद बहु पावन सरजू नीर।

जपहिं राम धरि ध्यान उर सुंदर स्याम सरीर।।34।।

दरस परस मज्जन अरु पाना। हरइ पाप कह बेद पुराना।।

नदी पुनीत अमित महिमा अति। कहि न सकइ सारदा बिमलमति।।

राम धामदा पुरी सुहावनि। लोक समस्त बिदित अति पावनि।।

चारि खानि जग जीव अपारा। अवध तजें तनु नहिं संसारा।।

सब बिधि पुरी मनोहर जानी। सकल सिद्धिप्रद मंगल खानी।।

बिमल कथा कर कीन्ह अरंभा। सुनत नसाहिं काम मद दंभा।।

                          

रामचरितमानस एहि नामा। सुनत श्रवन पाइअ बिश्रामा।।

मन करि बिषय अनल बन जरई। होइ सुखी जौं एहिं सर परई।।

रामचरितमानस मुनि बावन। बिरचेउ संभु सुहावन पावन।।

त्रिबिध दोष दुख दारिद दावन। कलि कुचालि कुलि कलुष नसावन।।

रचि महेस निज मानस राखा। पाइ सुसमउ सिवा सन भाषा।।

तातें रामचरितमानस बर। धरेउ नाम हियँ हेरि हरषि हर।।

कहउँ कथा सोइ सुखद सुहाई। सादर सुनहु सुजन मन लाई।

दोहा-जस मानस जेहि बिधि भयउ जग प्रचार जेहि हेतु।

अब सोइ कहउँ प्रसंग सब सुमिरि उमा बृषकेतु।।35।।

संभु प्रसाद सुमति हियँ हुलसी। रामचरितमानस कबि तुलसी।।

करइ मनोहर मति अनुहारी। सुजन सुचित सुनि लेहु सुधारी।।

सुमति भूमि थल हृदय अगाधू। बेद पुरान उदधि घन साधू।।

बरषहिं राम सुजस बर बारी। मधुर मनोहर मंगलकारी।।

लीला सगुन जो कहहिं बखानी। सोइ स्वच्छता करइ मल हानी।।

प्रेम भगति जो बरनि न जाई। सोइ मधुरता सुसीतलताई।।

सो जल सुकृत सालि हित होई। राम भगत जन जीवन सोई।।

                          

मेधा महि गत सो जल पावन। सकिलि श्रवन मग चलेउ सुहावन।।

भरेउ सुमानस सुथल थिराना। सुखद सीत रुचि चारु चिराना।।

दोहा-सुठि सुंदर संबाद बर बिरचे बुद्धि बिचारि।

तेइ एहि पावन सुभग सर घाट मनोहर चारि।।36।।

सप्त प्रबंध सुभग सोपाना। ग्यान नयन निरखत मन माना।।

रघुपति महिमा अगुन अबाधा। बरनब सोइ बर बारि अगाधा।।

राम सीय जस सलिल सुधासम। उपमा बीचि बिलास मनोरम।।

पुरइनि सघन चारु चौपाई। जुगुति मंजु मनि सीप सुहाई।।

छंद सोरठा सुंदर दोहा। सोइ बहुरंग कमल कुल सोहा।।

अरथ अनूप सुबाव सुभासा। सोइ पराग मकरंद सुबासा।।

सुकृत पुंज मंजुल अलि माला। ग्यान बिराग बिचार मराला।।

धुनि अवरेब कबित गुन जाती। मीन मनोहर ते बहुभाती।।

अरथ धरम कामादिक चारी। कहब ग्यान बिग्यान बिचारी।।

नव रस जप तप जोग बिरागा। ते सब जलचर चारु तड़ागा।।

सुकृती साधु नाम गुन गाना। ते बिचित्र जल बिहग समाना।।

संतसभा चहुँ दिसि अवँराई। श्रद्धा रितु बसंत सम गाई।।

भगति निरूपन बिबिध बिधाना। छमा दया दम लता बिताना।।

सम जम नियम फूल फल ग्याना। हरि पद रति रस बेद बखाना।।

                          

औरउ कथा अनेक प्रसंगा। तेइ सुक पिक बहुबरन बिहंगा।।

दोहा-पुलक बाटिका बाग बन सुख सुबिहंग बिहारु।

माली सुमन सनेह जल सींचत लोचन चारु।।37।।

जे गावहिं यह चरित सँभारे। तेइ एहि ताल चतुर रखवारे।।

सदा सुनहिं सादर नर नारी। तेइ सुरबर मानस अधिकारी।।

अति खल जे बिषई बग कागा। एहिं सर निकट न जाहिं अभागा।।

संबुक भेक सेवार समाना। इहाँ न बिषय कथा रस नाना।।

तेहि कारन आवत हियँ हारे। कामी काक बलाक बिचारे।।

आवत एहिं सर अति कठिनाई। राम कृपा बिनु आइ न जाई।।

कठिन कुसंग कुपंथ कराला। तिन्ह के बचन बाघ हरि ब्याला।।

गृह कारज नाना जंजाला। ते अति दुर्गम सैल बिसाला।।

बन बहु बिषम मोह मद माना। नदीं कुतर्क भयंकर नाना।।

दोहा-जे श्रद्धा संबल रहित नहिं संतन्ह कर साथ।

तिन्ह कहुँ मानस अगम अति जिन्हहि न प्रिय रघुनाथ।।38।।

जौं करि कष्ट जाइ पुनि कोई। जातहिं नीद जुड़ाई होई।।

जड़ता जाड़ बिषम उर लागा। गएहुँ न मज्जन पाव अभागा।।

                          

करि न जाइ सर मज्जन पाना। फिरि आवइ समेत अभिमाना।।

जौं बहोरि कोउ पूछन आवा। सर निंदा करि ताहि बुझावा।।

सकल बिघ्न ब्यापहिं नहिं तेहि। राम सुकृपाँ बिलोकहिं जेहि।।

सोइ सादर सर मज्जनु करई। महा घोर त्रयताप न जरई।।

ते नर यह सर तजहिं न काहू। जिनके राम चरन भल भाहू।।

जो नहाइ चह एहिं सर भाई। सो सतसंग करउ मन लाई।।

अस मानस मानस चख चाही। भइ कबि बुद्धि बिमल अवगाही।।

भयउ हृदयँ आनंद उछाहू। उमगेउ प्रेम प्रमोद प्रबाहू।।

चली सुभग कबिता सरिता सो। रामबिमल जस जल भरिता सो।।

सरजू नाम सुमंगल मूला। लोक बेद मत मंजुल कूला।।

नदी पुनीत सुमानस नंदिनि। कलिमल तृन तरू मूल निकंदिनि।।

दोहा-श्रोता त्रिबिध समाज पुर ग्राम नगर दुहुँ कूल।

संतसभा अनुपम अवध सकल सुमंगल मूल।।39।।

रामभगति सुरसरितहि जाई। मिली सुकीरति सरजु सुहाई।।

सानुज राम समर जसु पावन। मिलेउ महानदु सोन सुहावन।।

जुग बिज भगति देबधुनि धारा। सोहति सहित सुबिरति बिचारा।।

त्रिबिध ताप त्रासक तिमुहानी। राम सरूप सिंधु समुहानी।।

                          

मानस मूल मिली सुरसरिही। सुनत सुजन मन पावन करिही।।

बिच बिच कथा बिचित्र बिभागा। जनु सरि तीर तीर बन बागा।।

उमा महेस बिबाह बराती। ते जलचर अगनित बहुभाँती।।

रघुबर जनम अनंद बधाई। भवँर तरंग मनोहरताई।।

दोहा-बालचरित चहु बंधु के बनज बिपुल बहुरंग।

नृप रानी परिजन सुकृत मधुकर बारिबिहंग।।40।।

सीय स्वयंबर कथा सुहाई। सरित सुहावनि सो छबि छाई।।

नदी नाव पटु प्रस्न अनेका। केवट कुसल उतर सबिबेका।।

सुनि अनुकथन परस्पर होई। पथिक समाज सोह सरि सोई।।

घोर धार भृगुनाथ रिसानी। घाट सुबद्ध राम बर बानी।।

सानुज राम बिबिह उछाहू। सो सुभ उमग सुखद सब काहू।।

कहत सुनत हरषहिं पुलकाहीं। ते सुकृती मन मुदित नहाहीं।।

राम तिलक हित मंगल साजा। परब जोग जनु जुरे समाजा।।

काई कुमति केकई केरी। परी जासु फल बिपति घनेरी।।

दोहा-समन अमित उतपात सब भरतचरित जपजाग।

कलि अघ खल अवगुन कथन ते जलमल बग काग।।41।।

                          

कीरति सरित छहूँ रितु रूरी। समय सुहावनि पावनि भूरी।।

हिम हिम सैलसुता सुन ब्याहू। सिसिर सुखद प्रभु जनम उछाहू।।

बरनब राम बिबाह समाजू। सो मुद मंगलमय रितुराजू।।

ग्रीषम दुसह राम बनगवनू। पंथकथा खर आतप पवनू।।

बरषा घोर निसाचर रारी। सुरकूल सालि सुमंगलकारी।।

राम राज सुख बिनय बड़ाई। बिसद सुखद सोइ सरद सुहाई।।

सती सिरोमनि सिय गुनगाथा। सोइ गुन अमल अनूपम पाथा।।

भरत सुभाउ सुसीतलताई। सदा एकरस बरनि न जाई।।

दोहा-अवलोकनि बोलनि मिलनि प्रीति परसपर हास।

भायप भलि चहु बंधु की जल माधुरी सुबास।।42।।

आरति बिनय दीनता मोरी। लघुता ललित सुबारि न थोरी।।

अदभुत सलिल सुनत गुनकारी। आस पिआस मनोमल हारी।।

राम सुप्रेमहि पोषत पानी। हरत सकल कलि कलुष गलानी।।

भव श्रम सोषक तोषक तोषा। समन दुरित दुख दारिद दोषा।।

काम कोह मद मोह नसावन। बिमल बिबेक बिराग बढ़ावन।।

सादर मज्जन पान किए तें। मिटहिं पाप परिताप हिए तें।।

                          

जिन्ह एहिं बारि न मानस धोए। ते कायर कलिकाल बिगोए।।

तृषित निरखि रबि कर भव बारी। फिरिहहिं मृग जिमि जीव दुखारी।।

दोहा-मति अनुहारि सुबारि गुन गन मनि मन अन्हवाइ।

सुमिरि भवानी संकरहि कह कबि कथा सुहाइ।।43क।।

अब रघुपति पद पंकरुह हियँ धरि पाइ प्रसाद।

कहउँ जुगल मुनिबर्ज कर मिलन सुभग संबाद।।43ख।।

भरद्वाज मुनि बसहिं प्रयागा। तिन्हहि राम पद अति अनुरागा।।

तापस सम दम दया निधाना। परमारथ पथ परम सुजाना।।

माघ मकरगत रबि जब होई। तीरथपतिहिं आव सब कोई।।

देव दनुज किंनर नर श्रेनीं। सादर मज्जहिं सकल त्रिबेनीं।।

पूजहिं माधव पद जलजाता। परसि अखय बटु हरषहिं गाता।।

भरद्वाज आश्रम अति पावन। परम रम्य मुनिबर मन भावन।।

तहाँ होइ मुनि रिषय समाजा। जाहिं जे मज्जन तीरथराजा।।

मज्जहिं प्रात समेत उछाहा। कहहिं परसपर हरि गुन गाहा।।

दोहा-ब्रह्म निरूपन धरम बिधि बरनहिं तत्त्व बिभाग।

कहहिं भगति भगवंत कै संजुत ग्यान बिराग।।44।।

                          

एहि प्रकार भरि माघ नहाहीं। पुनि सब निज निज आश्रम जाहीं।।

प्रति संबत अति होइ अनंदा। मकर मज्जि गवनहिं मुनिबृंदा।।

एक बार भरि मकर नहाए। सब मुनीस आश्रमन्ह सिधाए।।

जागबलिक मुनि परम बिबेकी। भरद्वाज राखे पद टेकी।।

सादर चरन सरोज पखारे। अति पुनीत आसन हैठारे।।

करि पूजा मुनि सुजसु बखानी। बोले अति पुनीत मृदु बानी।।

नाथ एक संसउ बड़ मोरें। करगत बेदतत्त्व सबु तोरें।।

कहत सो मोहि लागत भय लाजा। जौं न गहउँ बड़ होइ अकाजा।।

दोहा-संत कहहिं असि नीति प्रभु श्रुति पुरान मुनि गाव।

होइ न बिमल बिबेक उर गुर सन किएँ दुराव।।45।।

अस बिचारि प्रगटउँ निज मोहू। हरहु नाथ करि जन पर छोहू।।

राम नाम कर अमित प्रभावा। संत पुरान उपनिषद गावा।।

संतत जपत संभु अबिनासी। सिव भगवान ग्यान गुन रासी।।

आकर चारि जीव जग अहहीं। कासीं मरत परम पद लहहीं।।

सोपि राम महिमा मुनिराया। सिव उपदेसु करत करि दाया।।

रामु कवन प्रभु पूछउँ तोही। कहिअ बुझाइ कृपानिधि मोहि।।

                          

एक राम अवधेस कुमारा। तिन्ह कर चरित बिदित संसारा।।

नारि बिरहँ दुखु लहेउ अपारा। भयउ रोषु रन रावनु मारा।।

दोहा-प्रभु सोइ राम कि अपर कोउ जाहि जपत त्रिपुरारि।

सत्यधाम सर्बग्य तुम्ह कहहु बिबेकु बिचारि।।46।।

जैसें मिटै मोर भ्रम भारी। कहहु सो कथा नाथ बिस्तारी।।

जागबलिक बोले मुसुकाई। तुम्हहि बिदित रघुपति प्रभुताई।।

रामभगत तुम्ह मन क्रम बानी। चतुराई तुम्हारि मैं जानी।।

चाहहु सुनै राम गुन गूढ़ा। कीन्हिहु प्रस्न मनहुँ अति मूढ़ा।।

तात सुनहु सादर मनु लाई। कहउँ राम कै कथा सुहाई।।

महामोहु महिषेसु बिसाला। रामकथा कालिका कराला।।

रामकथा ससि किरन समाना। संत चकोर करहिं जेहि पाना।।

एसेइ संसय कीन्ह भवानी। महादेव तब कहा बखानी।।

दोहा-कहउँ सो मति अनुहारि अब उमा संभु संबाद।

भयउ समय जेहि हेतु जेहि सुनि मुनि मिटिहि बिषाद।।47।।

एक बार त्रेता जुग माहीं। संभु गए कुंभज रिषि पाहीं।।

संग सती जगजननि भवानी। पूजे रिषि अखिलेस्वर जानी।।

                          

रामकथा मुनिबर्ज बखानी। सुनि महेस परम सुकु मानी।।

रिषि पूछि हरिभगति सुहाई। कहि संभु अधिकारी पाई।।

कहत सुन रघुपति गुन गाथा। कछु दिन तहाँ रहे गिरिनाथा।।

मुनि सन बिदा मागि त्रिपुरारी। चले भवन सँग दच्छकुमारी।।

तेहि अवसर भंजन महिभारा। हरि रघुबंस लीन्ह अवतारा।।

पुता बचन तजि राजु उदासी। दंडक बन बिचरत अबिनासी।।

दोहा-हृदयँ बिचारत जात हर केहि बिधि दरसनु होइ।

गुप्त रूप अवतरेउ प्रभु गएँ जान सबु कोइ।।48क।।

सोरठा-संकर उर अति छोभु सती न जानहिं मरमु सोइ।

तुलसी दरसन लोभु मन डरु लोचन लालची।।48ख।।

रावन मरन मनुज कर जाचा। प्रभु बिधि बचनु कीन्ह चह साचा।।

जौं नहिं जाउँ रहइ पछितावा। करत बिचारु न बनत बनावा।।

एहि बिधि भए सोचबस ईशा। तेहि समय जाइ दससीसा।।

लीन्ह नीच मारीचहि संगा। भयउ तुरत सोइ कपट कुरंगा।।

करि छलु मूढ़ हरी वैदेही। प्रभु प्रभाउ तस बिदित न तेही।।

मृग बधि बंधु सहित हरि आए। आश्रमु देखि नयन जल छाए।।

बिरह बिकल नर इव रघुराई। खोजत बिपिन फिरत दोउ भाई।।

                          

कबहूँ जोग बियोग न जाकें। देखा प्रगट बिरह दुखु ताकें।।

दोहा-अति बिचित्र रघुपति चरित जानहिं परम सुजान।

जे मतिमंद बिमोह बस हृदयँ धरहिं कछु आन।।49।।

संभु समय तेहि रामहि देखा। उपजा हियँ अति हरषु बिसेषा।।

भरि लोचन छबिसिंधु निहारी। कुसमय जानि न कीन्हि चिन्हारी।।

जय सच्चिदानंद जग पावन। अस कहि चलेउ मनोज नसावन।।

चले जातसिव सती समेता। पुनि पुनि पुलकत कृपानिकेता।।

सतीं सो दसा संभु कै देखी। उर उपजा संदेहु बिसेषी।।

संकरु जगतबंद्य जगदीसा। सुर नर मुनि सब नावत सीसा।।

तिन्ह नृपसुतहि कीन्ह परनामा। कहि सच्चिदानंद परधामा।।

भए मगन छबि तासु बिलोकी। अजहुँ प्रीति उर रहति न रोकी।।

दोहा-ब्रह्म जो ब्यापक बिरज अज अकल अनीह अभेद।

सो कि देह धरि होइ नर जाहि न जानत बेद।।50।।

बिष्नु जो सुर हित नरतनु धारी। सोउ सर्बग्य जथा त्रिपुरारी।।

खोजइ सो कि अग्य इव नारी। ग्यानधाम श्रीपति असुरारी।।

संभुगिरा पुनि मृषा न रोई। सिव सर्बग्य जान सबु कोई।।

                          

अस संसय मन भयउ अपारा। होइ न हृदयँ प्रबोध प्रचारा।।

जद्यपि प्रगट न कहेउ भवानी। हर अंतरजामी सब जानी।।

सुनहि सती तव नारि सुभाऊ। संसय अस न धरिअ उर काऊ।।

जासु कथा कुंभज रिषि गाई। भगति जासु मैं मुनिहि सुनाई।।

सोइ मम इष्टदेव रघुबीरा। सेवत जाहि सदा मुनि धीरा।।

छन्द - मुनि धीर जोगी सिद्ध संतत बिमल मन जेहि ध्यावहीं।

कहि नेति निगम पुरान आगम जासु कीरति गावहीं।।

सोइ रामु ब्यापक ब्रह्म भुवन निकाय पित माया धनी।

अवतरेउ अपने भगत हित निजतंत्र नित रघुकुलमनी।।

सोरठा- लाग न उर उपदेसु जदपि कहेउ सिवँ बार बहु।

बोले बिहसि महेसु हरिमाया बलु जानि जियँ।।51।।

जौं तुम्हरें मन अति संदेहू। तौ किन जाइ परीछा लेहू।।

तब लगि बैठ अहउँ बटछाहीं। जब लगि तुम्ह ऐहहु मोहि पाहीं।।

जैसें जाइ मोह भ्रम भारी। करेहु सो जतनु बिबेक बिचारी।।

चलीं सती सिव आयसु पाई। करहिं बिचारु करौं का भाई।।

इहाँ संभु अस मन अनुमाना। दच्छसुता कहुँ नहिं कल्याना।।

                          

मोरेहु कहें न संसय जाहीं। बिधि बिपरीत भलाई नाहीं।।

होइहि सोइ जो राम रचि राखा। को करि तर्क बढ़ावै साखा।।

अस कहि लगे जपन हरिनामा। गईं सती जहँ प्रभु सुखधामा।।

दोहा-पुनि पुनि हृदयँ बिचारु करि धरि सीता कर रूप।

आगें होइ चलि पंथ तेहिं जेहिं आवत नरभूप।।52।।

लछिमन दीख उमाकृत बेषा। चकित भए भ्रम हृदयँ बिसेषा।।

कहि न सकत कछु अति गंभीरा। प्रभु प्रभाउ जानत मतिधीरा।।

सती कपटु जानेउ सुरस्वामी। सबदरसी सब अंतरजामी।।

सुमिरत जाहि मिटइ अग्याना। सोइ सरबग्य रामु भगवाना।।

सती कीन्ह चह तहँहुँ दुराऊ। देखहु नारि सुभाव प्रभाऊ।।

निज माया बलु हृदयँ बखानी। बोले बिहसि रामु मृदु बानी।।

जोरि पानि प्रभु कीन्ह प्रनामू। पिता समेत लीन्ह निज नामू।।

कहेउ बहोरि कहाँ बृषकेतु। बिपिन अकेलि फिरहु केहि हेतू।।

दोहा-राम बचन मृदु गूढ़ सुनि उपजा अति संकोचु।

सती सभीत महेस पहिं चलीं हृदयँ बड़ सोचु।।53।।

मैं संकर कर कहा न माना। निज अग्यानु राम पर आना।।

जाइ उतरु अब देहउँ काहा। उर उपजा अथि दारुन दाहा।।

                          

जाना राम सतीं दुखु पावा। निज प्रभाउ कछु प्रगटि जनावा।।

सतीं दीख कौतुकु मग जाता। आगें रामु सहित श्री भ्राता।।

फिरि चितवा पाछें प्रभु देखा। सहित बंधु सिय सुंदर बेषा।।

जहँ चितवहिं तहँ प्रभु आसीना। सेवहिं सिद्ध मुनीस प्रबीना।।

देखे सिव बिधि बिष्नु अनेका। अमित प्रभाउ एक तें एका।।

बंदत चरन करत प्रभु सेवा। बिबिध बेष देखे सब देवा।।

दोहा-सती बिधात्री इंदिरा देखीं अमित अनूप।

जेहिं जेहिं बेष अजादि सुर तेहि तेहि तन अनुरूप।।54।।

देखे जहँ तहँ रघुपति जेते। सक्तिन्ह सहित सकल सुर तेते।।

जीव चराचर जो संसारा। देखे सकल अनेक प्रकारा।।

पूजहिं प्रभुहि देव बहु बेषा। राम रूप दूसर नहिं देखा।।

अवलोके रघुपति बहुतेरे। सीता सहित न बेष घनेरे।।

सोइ रघुबर सोइ लछिमनु सीता। देखि सती अति भईं सभीता।।

हृदय कंप तन सुधि कछु नाहीं। नयन मूदि बैठीं मग माहीं।।

बहुरि बिलोकेउ नयन उघारी। कछु न दीख तहँ दच्छकुमारी।।

पुनि पुनि नाइ राम पद सीसा। चलीं तहाँ जहँ रहे गिरीसा।।

                          

दोहा-गईं समीप महेस तब हँसि पूछी कुसलात।

लीन्हि परीछा कवन बिधि कहहु सत्य सब बात।।55।।

सतीं समुझि रघुबीर प्रभाउ। भय बस सिव सन कीन्ह दुराऊ।।

कछु न परीछा लीन्हि गोसाईं। कीन्ह प्रनामु तुम्हारिहि नाईं।।

जो तुम्ह कहा सो मृषा न होई। मोरें मन प्रतीति अति सोई।।

तब संकर देखेउ धरि ध्याना। सतीं जो कीन्ह चरित सबु जाना।।

बहुरि राममायहि सिरु नावा। प्रेरि सतिहि जेहिं झूँठ कहावा।।

हरि इच्छा भावी बलवाना। हृदयँ बिचारत संभु सुजाना।।

सतीं कीन्ह सीता कर बेषा। सिव उर भयउ बिषाद बिसेषा।।

जौं अब करउँ सती पन प्रीती। मिटइ भगति पथु होइ अनीती।।

दोहा-परम पुनीत न जाइ तजि किएँ प्रेम बड़ पापु।

प्रगटि न कहत महेसु कछु हृदयँ अधिक संतापु।।56।।

तब संकर प्रभु पद सिरु नावा। सुमिरत रामु हृदयँ अस आवा।।

एहिं तन सतिहि भेट मोहि नाहीं। सिव संकल्पु कीन्ह मन माहीं।।

अस बिचारि संकरु मतिधीरा। चले भवन सुमिरत रघुबीरा।।

चलत गगन भै गिरा सुहाई। जय महेस भलि भगति दृढ़ाई।।

                          

अस पन तुम्ह बिनु करइ को आना। रामभगत समरथ भगवाना.।

सुनि नभगिरा सती उर सोचा। पूछा सिवहि समेत सकोचा।।

कीन्ह कवन पन कहहु कृपाला। सत्यधाम प्रभु दीनदयाला।

जदपि सतीं पूछा बहु भाँती। तदपि न कहेउ त्रिपुर आराती।।

दोहा-सतीं हृदयँ अनुमान किय सबु जानेउ सर्बग्य।

कीन्ह कपटु मैं संभु सन नारि सहज जड़ अग्य।।57क।।

सोरठा-जलु पय सरिस बिकाइ देखहु प्रीति कि रीति भलि।

बिलग होइ रसु जाइ कपट खटाई परत पुनि।।57ख।।

हृदयँ सोचु समुझत निज करनी। चिंता अमित जाइ नहिं बरनी।।

कृपासिंधु सिव परम अगाधा। प्रगट न कहेउ मोर अपराधा।।

संकर रुख अवलोकि भवानी। प्रभु मोहि तजेउ हृदयँ अकुलानी।।

निज अघ समुझि न कछु कहि जाई। तपइ अवाँ इव उर अधिकाई।।

सतिहि ससोच जानि बृषकेतु। कहीं कथा सुंदर सुख हेतू।।

बरनत पंथ बिबिध इतिहासा। बिस्वनाथ पहुँचे कैलासा।।

तहँ पुनि संबु समुझि पन आपन। बैठे बट तर करि कमलासन।।

संकर सहज सरूपु सम्हारा। लागि समाधि अखंड अपारा।।

                          

दोहा-सती बसहिं कैलास तब अधिक सोचु मन माहिं।

मरमु न कोउ जान कछु जुग सम दिवस सिराहिं।।58।।

नित नव सोचु सती उर भारा। कब जैहउँ दुख सागर पारा।।

मैं जो कीन्ह रघुपति अपमाना। पुनि पतिबचनु मृषा करि जाना।।

सो फलु मोहि बिधाताँ दीन्हा। जो कछु उचित रहा सोइ कीन्हा।।

अब बिधि अस बूझिअ नहिं तोही। संकर बिमुख जिआवसि मोही।।

कहि न जाइ कछु हृदय गलानी। मन महुँ रामहि सुमिर सयानी।।

जौं प्रभु दीनदयालु कहावा। आरति हरन बेद जसु गावा।।

तौ मैं बिनय करउँ कर जोरी। छूटउ बेगि देह यह मोरी।।

जौं मोरें सिव चरन सनेहू। मन क्रम बचन सत्य ब्रतु एहू।।

दोहा-तौ सबदरसी सुनिअ प्रभु करउ सो बेगि उपाइ।

होइ मरनु जेहिं बिनहिं श्रम दुसह बिपत्ति बिहाइ।।59।।

एहि बिधि दुखित प्रजेसकुमारी। अकथनीय दारुन दुखु भारी।।

बीतें संबत सहस सतासी। तजी समाधि संभु अबिनासी।।

राम नाम सिव सुमिरन लागे। जानेउ सतीं जगतपति जागे।।

जाइ संभु पद बंदनु कीन्हा। सनमुख संकर आसनु दीन्हा।।

                                      

लगे कहन हरिकथा रसाला। दच्छ प्रजेस भए तेहि काला।।

देखा बिधि बिचारि सब लायक। दच्छहि कीन्ह प्रजापति नायक।।

बड़ अधिकार दच्छ जब पावा। अथि अभिमानु हृदयँ तब आवा।।

नहिं कोउ अस जनमा जग माहीं। प्रभुता पाइ जाहि मद नाहीं।।

दोहा-दच्छ लिए मुनि बोले सब करन लगे बड़ जाग।

नेवते सादर सकल सुर जे पावत मख भाग।।60।।

किंनर नाग सिद्ध गंधर्बा। बधुन्ह समेत चले सुर सर्बा।।

बिष्नु बिरंचि महेसु बिहाई। चले सकल सुर जान बनाई।।

सतीं बिलोके ब्योम बिमाना। जात चले सुंदर बिधि नाना।।

सुर सुंदरी करहिं कल गाना। सुनत श्रवन छूटहिं मुनि ध्याना।।

पूछेउ तब सिवँ कहेउ बखानी। पिता जग्य सुनि कछु हरषानी।।

जौं महेसु मोहि आयसु देहीं। कछु दिन जाइ रहौं मिस एहीं।।

पति परित्याग हृदयँ दुखु भारी। कहइ न निज अपराध बिचारी।।

बोली सती मनोहर बानी। भय संकोच प्रेम रस सानी।।

दोहा-पिता भवन उत्सव परम जौं प्रभु आयसु होइ।

तौ मैं जाउँ कृपायतन सादर देखन सोइ।।61।।

                                      

कहेहु नीक मोरेहुँ मन भावा। यह अनुचित नहिं नेवत पठावा।।

दच्छ सकल निज सुता बोलाईं। हमरें बयर तुम्हउ बिसराईं।।

ब्रह्मसभाँ हम सन दुखु माना। तेहि तें अजहुँ करहिं अपमाना।।

जौं बिनु बोलें जाहु भवानी। रहइ न सीलु सनेहु न कानी।।

जदपि मित्र प्रभु पितु गुर गेहा। जाइअ बिनु बोलेहुँ न संदेहा।।

तदपि बिरोध मान जहँ कोई। तहाँ गएँ कल्यानु न होई।।

भाँति अनेक संभु समुझावा। भावी बस न ग्यानु उर आवा।।

कह प्रभु जाहु जो बिनहिं बोलाएँ। नहिं भलि बात हमारे भाएँ।।

दोहा-कहि देखा हर जतन बहु रहइ न दच्छकुमारि।

दिए मुख्य गन संग तब बिदा कीन्ह त्रिपुरारि।।62।।

पिता भवन जब गईं भवानी। दच्छ त्रास काहुँ न सनमानी।।

सादर भलेहिं मिली एक माता। भगिनीं मिलीं बहुत मुसुकाता।।

दच्छ न कछु पूछी कुसलाता। सतिहि बिलोकि जरे सब गाता।।

सतीं जाइ देखेउ तब जागा। कतहुँ न दीख संभु कर भागा।।

तब चित चढ़ेउ जो संकर कहेऊ। प्रभु अपमानु समुझि उर दहेऊ।।

पाछिल दुखु न हृदयँ अस ब्यापा। जस यह भयउ महा परितापा।।

                                      

जद्यपि जग दारुन दुख नाना। सब तें कठिन जाति अवमाना।।

समुझि सो सतिहि भयउ अति क्रोधा। बहु बिधि जननीं कीन्ह प्रबोधा।।

दोहा- सिव अपमानु न जाइ सहि हृदयँ न होइ प्रबोध।

सकल सभहि हठि हटकि तब बोलीं बचन सक्रोध।।63।।

सुनहु सभासद सकल मुनिंदा। कही सुनी जिन्ह संकर निंदा।।

सो फलु तुरत लहब सब काहूँ। भली भाँति पछिताब पिताहूँ।।

संत संभु श्रीपति अपबादा। सुनिअ जहाँ तहँ असि मरजादा।।

काटिअ तासु झीभ जो बसाई। श्रवन मूदि न त चलिअ पराई।।

जगदातमा महेसु पुरारी। जगत जनक सब के हितकारी।।

पिता मंदमति निंदत तेही। दच्छ सुक्र संभव यह देही।।

तजिहउँ तुरत देह तेहि हेतू। उर धरि चंद्रमौलि बृषकेतू।।

अस कहि जोग अगिनि तनु जारा। भयउ सकल मख हाहाकारा।।

दोहा-सती मरनु सुनि संभु गन लगे करन मख खीस।

जग्य बिधंस बिलोकि भृगु रच्छा कीन्हि मुनीस।।64।।

समाचार सब संकर पाए। बीरभद्रु करि कोप पठाए।।

जग्य बिधंस जाइ तिन्ह कीन्हा। सकल सुरन्ह बिधिवत फलु दीन्हा।।

                                      

भै जगबिदित दच्छ गति सोई। जसि कछु संभु बिमुख कै होई।।

यह इतिहास सकल जग जानी। ताते मैं संछेप बखानी।।

सतीं मरत हरि सन बरु मागा। जनम जनम सिव पद अनुरागा।।

तेहि कारन हिमगिरि गृह जाईं। जनमीं परबती तनु पाई।।

ब तें उमा सैल गृह जाईं। सकल सिद्धि संपति तहँ छाईं।।

जहँ तहँ मुनिन्ह सुआश्रम कीन्हे। उचित बास हिम भूधर दीन्हे।।

दोहा-सदा सुमन फल सहित सब द्रुम नव नाना जाति।

प्रगटीं सुंदर सैल पर मनि आकर बहु भाँति।।65।।

सरिता सब पुनीत जलु बहहीं। खग मृग मधुप सुखी सब रहहीं।।

सहज बयरु सब जीवन्ह त्यागा। गिरि पर सकल करहिं अनुरागा।।

सोह सैल गिरिजा गृह आएँ। जिमि जनु रामभगति के पाएँ।।

नत नूतन मंगल गृह तासू। ब्रह्मदिक गावहिं जसु जासू।।

नारद समाचार सब पाए। कौतुकहीं गिरि गेह सिधाए।।

सैलराज बड़ आदर कीन्हा। पद पखारि बर आसनु दीन्हा।।

नारि सहित मुनि पद सिरु नावा। चरन सलिल सबु भवनु सिंचावा।।

निज सौभाग्य बहुत गिरि बरना।।सुता बोलि मेली मुनि चरना।।

                                      

दोहा-त्रिकालग्य सर्बग्य तुम्ह गति सर्बत्र तुम्हारि।

कहहु सुता के दोष गुन मुनिबर हृदयँ बिचारि।।66।।

कह मुनि बिहसि गूढ़ मृदु बानी। सुता तुम्हारि सकल गुन खानी।।

सुंदर सहज सुसील सयानी। नाम उमा अंबिका भवानी।।

सब लच्छन संपन्न कुमारी। होइहि संतत पियहि पिआरी।।

सदा अचल एहि कर अहिवाता। एहि तें जसु पैहहिं पितु माता।।

होइहि पूज्य सकल जग माहीं। एहि सेवत कछु दुर्लभ नाहीं।।

एहि कर नामु सुमिरि संसारा। त्रिय चढ़िहहिं पतिब्रत असिधारा।।

सैल सुलच्छन सुता तुम्हारी। सुनहु जे अब अवगुन दुइ चारी।।

अगुन अमान मातु पितु हीना। उदासीन सब संसय छीना।।

दोहा-जोगी जटिल अकाम मन नगन अंमगल बेष।

अस स्वामी एहि कहँ मिलिहि परी हस्त असि रेख।।67।।

सुनि मुनि गिरा सत्य जियँ जानी। दुख दंपतिहि उमा हरषानी।।

नारदहूँ यह भेदु न जाना। दसा एक समुझब बिलगाना।।

सकल सखीं गिरिजा गिरि मैना। पुलक सरीर भरे जल नैना।।

होइ न मृषा देवरिषि भाषा। उमा सो बचनु हृदयँ धरि राखा।।

                                      

उपजेउ सिव पद कमल सनेहू। मिलन कठिन मन भा संदेहू।

जानि कुअवसरु प्रीति दुराई। सखी उछँग बैठी पुनि जाई।।

झूठि न होइ देवरिषि बानी। सोचहिं दंपति सखीं सयानी।।

उर धरि धीर कहइ गिरिराऊ। कहहु नाथ का करिअ उपाऊ।।

दोहा- कह मुनीस हिमवंत सुनु जो बिधि लिखा लिलार।

देव दनुज नर नाग मुनि कोउ न मेटनिहार।।68।।

तदपि एक मैं कहउँ उपाई। होइ करै जौं देउ सहाई।।

जस बरु मैं बरनेउँ तुम्ह पाहीं। मिलिहि उमहि तस संसय नाहीं।।

जे जे बर के दोष बखाने। ते सब सिव पहि मैं अनुमाने।।

जौं बिबाहु संकर सन होई। दोषउ गुन सम कह सबु कोई।।

जौं अहि सेज सयन हरि करहीं। बुध कछु तिन्ह कर दोषु न धरहीं।।

भानु कृसानु सर्ब रस खाहीं। तिन्ह कहँ मंद कहत कोउ नाहीं।।

सुभ अरु असुभ सलिल सब बहई। सुरसरि कोउ अपुनीत न कहई।।

समरथ कहुँ नहिं दोषु गोसाईं। रबि पावक सुरसरि की नाईं।।

दोहा-जौं अस हिसिषा करहिं नर जड़ बिबेक अभिमान।

परहिं कलप भरि नरक महुँ जीव कि ईस समान।।69।।

                                      

सुरसरि जल कृत बारुनि जाना। कबहुँ न संत करहिं तेहि पाना।।

सुरसरि मिलें सो पावन जैसें। ईस अनीसहि अंतरु तैसें।।

संभु सहज समरथ भगवाना। एहि बिबाहँ सब बिधि कल्याना।।

दुराराध्य पै एहहिं महेसू। आसुतोष पुनि किएँ कलेसू।।

जौं तपु करै कुमारि तुम्हारी। भाविउ मेटि सकहिं त्रिपुरारी।।

जद्यपि बर अनेक जग माहीं। एहि कहँ सिव तजि दूसर नाहीं।।

बर दायक प्रनतारति भंजन। कृपासिंधु सेवक मन रंजन।।

इच्छित फल बिनु सिव अवराधें। लहिअ न कोटि जोग जप साधें।।

दोहा-अस कहि नारद सुमिरि हरि गिरिजहि दीन्हि असीस।

होइहि यह कल्यान अब संसय तजहु गिरीस।।70।।

कहि अस ब्रह्मभवन मुनि गयऊ। आगिल चरित सुनहु जल भयऊ।।

पतिहि एकांत पाइ कह मैना। नाथ न मैं समुझे मुनि मैना।।

जौं घरु बरु कुलु होइ अनूपा। करिअ बिबिहु सुता अनुरूपा।।

न त कन्या बरु रहउ कुआरी। कंत उमा मम प्रानपिआरी।।

जौं न मिलिहि बरु गिरिजहि जोगू। गिरि जड़ सहज कहिहि सबु लोगू।।

सोइ बिचारि पति करेहु बिबाहू। जेहिं न बहोरि होइ उर दाहू।।

                                      

अस कहि परी चरन धरि सीसा। बोले सहित सनेह गिरीसा।।

बरु पावक प्रगटै ससि माहीं। नारद बचनु अन्यथा नाहीं।।

दोहा-प्रिया सोचु परिहरहु सबु सुमिरहु श्रीभगवान।

पारबतिहि निरमयउ जेहिं सोइ करिहि कल्यान।।71।।

अब जौं तुम्हहि सुता पर नेहू। तौ अस जाइ सिखावनु देहू।।

करै सो तपु जेहिं मिलहिं महेसू। आन उपायँ न मिटिहि कलेसू।।

नारद बचन सगर्भ सहेतू। सुंदर सब गुन निधि बृषकेतू।।

अस बिचारि तुम्ह तजहु असंका। सबहि भाँथि संकरु अकलंका।।

सुनि पति बचन हरषि मन माहीं। गई तुरत उठि गिरिजा पाहीं।।

उमहि बिलोकि नयन भरे बारी। सहित सनेह गोद बैठारी।।

बारहिं बार लेति उर लाई। गदगद कंठ न कछु कहि जाई।।

जगत मातु सर्बग्य भवानी। मातु सुखद बोलीं मृदु बानी।।

दोहा- सुनहि मातु मैं दीख अस सपन सुनावउँ तोहि।

सुंदर गौर सुबिप्रबर अस उपदेसेउ मोहि।।72।।

करहि जाइ तपु ससैलकुमारी। नारद कहा सो सत्य बिचारी।।

मातु पितहि पुनि यह मत भावा। तपु सुखप्रद दुख दोष नसावा।।

                                      

तपबल रचइ प्रपंचु बिधाता। तपबल बिष्नु सकल जग त्राता।।

तपबल संभु करहिं संघारा। तपबल सेषु धरइ महिभारा।।

तप अधार सब सृष्टि भवानी। करहि जाइ तपु अस जियँ जानी।।

सुनत बचन बिसमित महतारी। सपन सुनायउ गिरिहि हँकारी।।

मातु पितहि बहुबिधि समुझाई। चलीं उमा तप हित हरषाई।।

प्रिय परिवार पिता अरु माता। भए बिकल मुख आव न बाता।।

दोहा- बेदसिरा मुनि आइ तब सबहि कहा समुझाइ।

पारबती महिमा सुनत रहे प्रबोधहि पाइ।।73।।

उर धरि उमा प्रानपति चरना। जाइ बिपिन लागीं तपु करना।।

अति सुकुमार न तनु तप जोगू। पति पद सुमिरि तजेउ सबु भोगू।।

नित नव चरन उपज अनुरागा। बिसरी देह तपहिं मनु लागा।।

संबत सहस मूल फल खाए। सागु खाइ सत बरष गवाँए।।

कछु दिन भोजनु बारि बतासा। किए कठिन कछु दिन उपबासा।।

बेल पाती महि परइ सुखाई। तीनि सहस संबत सोइ खाई।।

पुनि परिहरे सुखानेउ परना। उमहि नामु तब भयउ अपरना।

देखि उमहि तप खीन सरीरा। ब्रह्मगिरा भै गगन गभीरा।।

                                      

दोहा- भयउ मनोरथ सुफल तव सुनु गिरिराजकुमारि।

परिहरु दुसह कलेस सब अब मिलिहहिं त्रिपुरारि।।74।।

अस तपु काहुँ न कीन्ह भवानी। भए अनेक धीर मुनि ग्यानी।।

अब उर धरहु ब्रह्म बर बानी। सत्य सदा संतत सुचि जानी।।

आवै पिता बोलावन जबहीं। हठ परिहरि घर जाएहु तबहीं।।

मिलहिं तुम्हहि जब सप्त रिषीसा। जानेहु तब प्रमान बागीसा।।

सुनत गिरा बिधि गगन बखानी। पुलक गात गिरिजा हरषानी।।

उमा चरित सुंदर मैं गावा। सुनहु संभु कर चरित सुहावा।।

जब तें सतीं जाइ तनु त्यागा। तब तें सिव मन भयउ बिरागा।।

जपहिं सदा रघुनायक नामा। जहँ तहँ सुनहिं राम गुन ग्रामा।।

दोहा-चिदानंद सुखधाम सिव बिगत मोह मद काम।

बिचरहिं महि धरि हृदयँ करि सकल लोक अभिराम।।75।।

कतहुँ मुनिन्ह उपदेसहिं ग्याना। कतहुँ राम गुन करहिं बखाना।।

जदपि अकाम तदपि भगवाना। भगत बिरह दुख दुखित सुजाना।।

एहि बिधि गयउ कालु बहु बीती। नित नै होइ राम पद प्रीती।।

नेमु प्रेमु संकर कर देखा। अबिचल हृदयँ भगति कै रेखा।।

                                      

प्रगटे रामु कृतग्य कृपाला। रूप सील निधि तेज बिसाला।।

बहु प्रकार संकरहि सराहा। तुम्ह बिनु अस ब्रतु को निरबाहा।।

बहुबिधि राम सिवहि समुझावा। परबती कर जन्मु सुनावा।।

अति पुनीत गिरिजा कै करनी। बिस्तर सहित कृपानिधि बरनी।।

दोहा-अब बिनती मम सुनहु सिव जौं मो पर निज नेहु।

जाइ बिबाहहु सैलजहि यह मोहि मागें देहु।।76।।

कह सिव जदपि उचित अस नाहीं। नाथ बचन पुनि मेटि न जाहीं।।

सिर धरि आयसु करिअ तुम्हारा। परम धरमु यह नाथ हमारा।।

मातु पिता गुर प्रभु कै बानी। बिनहिं बिचार करिअ सुभ जाना।।

तुम्ह सब भाँति परम हितकारी। अग्या सिर पर नाथ तुम्हारी।।

प्रभु तोषेउ सुनि सेकर बचना। भक्ति बिबेक धर्म जुत रचना।।

कह प्रभु हर तुम्हार पन रहेऊ। अब उर राखेहु जो हम कहेऊ।।

अंतरधान भए अस भाषी। संकर सोइ मूरति उर राखी।।

तबहिं सप्तरिषि सिव पहिं आए। बोले प्रभु अति बचन सुहाए।।

दोहा-पारबती पहिं जाइ तुम्ह प्रेम परिच्छा लेहु।

गिरिहि प्रेरि पठएहु भवन दूरि करेहु संदेहु।।77।।

                                      

रिषिन्ह गौरि देखी तहँ कैसी। मूरतिमंत तपस्या जैसी।।

बोले मुनि सुनु सैलकुमारी। करहु कवन कारन तपु भारी।।

केहि अवराधहु का तुम्ह चहहू। हम सन सत्य मरमु किन कहहू।।

कहत बचन मनु अति सकुचाई। हँसिहहु सुनि हमारि जड़ताई।।

मनु हठ परा न सुनइ सिखावा। चहत बारि पर भीति उठावा।।

नारद कहा सत्य सोइ जाना। बिनु पंखन्ह हम चहहिं उड़ाना।।

देखहु मुनि अबिबेकु हमारा। चाहिअ सदा सिवहि भरतारा।।

दोहा-सुनत बचन बिहसे रिषय गिरिसंभव तव देह।

नारद कर उपदेसु सुनि कहहु बसेउ किसु गेह।।78।।

दच्छसुतन्ह उपदेसेन्हि जाई। तिन्ह फिरि भवनु न देखा आई।।

चित्रकेतु कर घरु उन घाला। कनककसिपु कर पुनि अस हाला।।

नारद सिख जो सुनहिं नर नारी। अवसि होहिं तजि भवनु भिखारी।।

मन कपटी तन सज्जन चीन्हा। आपु सरिस सबही चह कीन्हा।।

तेहि कें बचन मानि बिस्वासा। तुम्ह चाहहु पति सहज उदासा।।

निर्गुन निलज कुबेष कपाली। अकुल अगेह दिगंबर ब्याली।।

कहहु कवन सुखु अस बरु पाएँ। भल भूलिहु ठग के बौराएँ।।

                                      

पंच कहें सिवँ सती बिबाही। पुनि अवडेरि मराएन्हि ताही।।

दोहा-अब सुख सोवत सोचु नहिं भीख मागि भव खाहिं।

सहज एकाकिन्ह के भवन कबहुँ कि नारि खटाहिं।।79।।

अजहूँ मानहु कहा हमारा। हम तुम्ह कहुँ बरु नीक बिचारा।।

अति सुंदर सुचि सुखद सुसीला। गावहिं बेद जासु जस लीला।।

दूषन रहित सकल गुन रासी। श्रीपति पुर बैकुंठ निवासी।।

अस बरु तुम्हहि मिलाउब आनी। सुनत बिहसि कह बचन भवानी।।

सत्य कहेहु गिरिभव तनु एहा। हठ न छूट छूटै बरु देहा।।

कनकउ पुनि पषान तें होई। जारेहुँ सहजु न परिहर सोई।।

नारद बचन न मैं परिहरऊँ। बसउ भवनु उजरउ नहिं डरऊँ।।

गुर कें बचन प्रतीति न जेही। सपनेहुँ सुगम न सुख सिधि तेही।।

दोहा- महादेव अगुन भवन बिष्नु सकल गुन धाम।

जेहि कर मनु रम जाहि सन तेहि तेही सन काम।।80।।

जौं तुम्ह मिलतेहु प्रथम मुनीसा। सुनतिउँ सिख तुम्हारि धरि सीसा।।

अब मैं जन्मु संभु हित हारा। को गुन दूषन करै बिचारा।।

जौं तुम्हरे हठ हृदयँ बिसेषी। रहि न जाइ बिनु किएँ बरेषी।।

                                      

तौ कौतुकिअन्ह आलसु नाहीं। बर कन्या अनेक जग माहीं।।

जन्म कोटि लगि रगर हमारी। बरउँ संभु न त रहउँ कुआरी।।

तजउँ न नारद कर उपदेसू। आपु कहहिं सत बार महेसू।।

मैं पा परउँ कहइ जगदंबा। तुम्ह गृह गवनहु भयउ बिलंबा।।

देखि प्रेमु बोले मुनि ग्यानी। जय जय जगदंबिके भवानी।।

दोहा- तुम्ह माया भगवान सिव सकल जगत पितु मातु।

नाइ चरन सिर मुनि चले पुनि पुनि हरषत गातु।।81।।

जाइ मुनिन्ह हिमवंतु पठाए। करि बिनती गिरजहिं गृह ल्याए।।

बहुरि सप्तरिषि सिव पहिं जाई। कथा उमा कै सकल सुनाई।।

भए मगन सिव सुनत सनेहा। हरषि सप्तरिषि गवने गेहा।।

मनु थिर करि तब संभु सुजाना। लगे करन रघुनायक ध्याना।।

तारकु असुर भयउ तेहि काला। भुज प्रताप बल तेज बिसाला।।

तेहिं सब लोक लोकपति जीते। भए देव सुख संपति रीते।।

अजर अमर सो जीति न जाई। हारे सुर करि बिबिध लराई।।

तब बिरंचि सन जाइ पुकारे। देखे बिधि सब देव दुखारे।।

दोहा-सब सन कहा बुझाइ बिधि दनुज निधन तब होइ।

                                      

संभु सुक्र संभूत सुत एहि जीतइ रन सोइ।।82।।

मोर कहा सुनि करहु उपाई। होइहि ईस्वर करिहि सहाई।।

सतीं जो तजी दच्छ मख देहा। जनमी जाइ हिमाचल गेहा।।

तिहं तपु कीन्ह संभु पति लागी। सिव समाधि बैठे सबु त्यागी।।

जदपि अहइ असमंजस भारी। तदपि बात एक सुनहु हमारी।।

पठवहु कामु जाइ सिव पाहीं। करै छोभु संकर मन माहीं।।

तब हम जाइ सिवहि सिर नाई। करवाउब बिबाहु बरिआई।।

एहि बिधि भलेहिं देवहित होई। मत अति नीक कहइ सबु कोई।।

अस्तुति सुरन्ह कीन्हि अति हेतू। प्रगटेउ बिषमबान झषकेतु।।

दोहा-सुरन्ह कही निज बिपति सब सुनि मन कीन्ह बिचार।

संभु बिरोध न कुसल मोहि बिहसि कहेउ अस मार।।83।।

तदपि करब मैं काजु तुम्हारा। श्रुति कह परम धरम उपकारा।।

पर हित लागि तजइ जो देही। संतत संत प्रसंसहिं तेही।।

अस कहि चलेउ सबहि सिरु नाई। सुमन धनुष कर सहित सहाई।।

चलत मार अस हृदयँ बिचारा। सिव बिरोध ध्रुव मरनु हमारा।।

तब आपन प्रभाउ बिस्तारा। निज बस कीन्ह सकल संसारा।।

                                      

कोपेउ जबहिं बारिचरकेतू। छन महुँ मिटे सकल श्रुति सेतू।।

ब्रह्मचर्य ब्रत संजम नाना। धीरज धरम ग्यान बिग्याना।।

सदाचार जप जोग बिरागा। सभय बिबेक कटकु सबु भागा।।

छन्द-भागेउ बिबेकु सबाय सहित सो सुभट संजुग महि मुरे।

सदग्रंथ पर्बत कंदरन्हि महुँ जाइ तेहि अवसर दुरे।।

होनिहार का करतार को रखवार जग खरभरु परा।

दुइ माथ केहि रतिनाथ जेहि कहुँ कोपि कर धनु सरु धरा।।

दोहा-जे सजीव जग अचर चर नारि पुरुष अस नाम।

ते निज निज मरजाद तजि भए सकल बस काम।।84।।

सब के हृदयँ मदन अभिलाषा। लता निहारि नवहिं तरु साखा।।।

नदीं उमगि अंबुधि कहुँ धाईं। संगम करहिं तलाव तलाईं।।

जहँ असि दसा जड़न्ह कै बरनी। को कहि सकइ सचेतन करनी।।

पसु पच्छी नभ जल थलचारी। भए कामबस समय बिसारी।।

मदन अंध ब्याकुल सब लोका। निसि दिनु नहिं अवलोकहिं कोका।।

देव दनुज नर किंनर ब्याला। प्रेत पिसाच भूत बेताला।।

इन्ह कै दसा न कहेउँ बखानी। सदा काम के चेरे जानी।।

सिद्ध बिरक्त महामुनि जोगी। तेपि कामबस भए बियोगी।।

                                      

छन्द-भए कामबस जोगीस तापस पावँरन्हि की को कहै।

देखहिं चराचर नारिमय जे ब्रह्ममय देखत रहे।।

अबला बिलोकहिं पुरुषमय जगु पुरुष सब अबलामयं।

दुइ दंड भरि ब्रह्मांड भीतर कामकृत कौतुक अयं।।

सोरठा-धरी न काहूँ धीर सब के मन मनसिज हरे।

जे राखे रघुबीर ते उबरे तेहि काल महुँ।।85।।

उभय घरी अस कौतुक भयऊ। जौ लगि कामु संभु पहिं गयऊ।।

सिवहि बिलोकि ससंकेउ मारू। भयउ जथाथिति सबु संसारू।।

भए थुरत सब जीव सुखारे। जिमि मद उतरि गएँ मतवारे।।

रुद्रहि देखि मदन भय माना। दुराधरष दुर्गम भगवाना।।

फिरत लाज कछु करि नहिं जाई। मरनु ठानि मन रचेसि उपाई।।

प्रगटेसि तुरत रुचिर रितुराजा। कुसुमित नव तरु राजि बिराजा।।

बन उपबन बापिका तड़ागा। परम सुभग सब दिसा बिभागा।।

जहँ तहँ जनु उमगत अनुरागा। देखि मुएहुँ मन मनसिज जागा।।

छन्द- जागइ मनोभव मुएहुँ मन बन सुभगता न परै कही।

सीतल सुगंध सुमंद मारुत मदन अनल सखा सही।।

                                      

बिकसे सरन्हि बहु कंज गुंजत पुंज मंजुल मधुकरा।

कलहंस पिक सुक सरस रब करि गान नाचहिं अपछरा।।

दोहा-सकल कला करि कोटि बिधि हारेउ सेन समेत।

चली न अचल समाधि सिव कोपेउ हृदयनिकेत।।86।।

दिखि रसाल बिटप बर साखा। तेहि पर चढ़ेउ मदनु मन माखा।।

सुमन जाप निज सर संधाने। अति रिस ताकि श्रवन लगि ताने।।

छाड़े बिषम बिसिख उर लागे। छूटि समाधि संभु तब जागे।।

भयउ ईस मन छोभु बिसेषी। नयन उघारि सकल दिसि देखी।।

सौरभ पल्लव मदनु बिलोका। भयउ कोपु कंपेउ त्रैलोका।।

तब सिवँ तीसर नयन उघारा। चितवत कामु भयउ जरि छारा।।

हाहाकार भयउ जग भारी। डरपे सुर भए असुर सुखारी।।

समुझि कामसुखु सोचहिं भोगी। भए अकंटक साधक जोगी।।

छन्द-जोगी अकंटक भए पति गति सुनत रति मुरुछित भई।

रोदति बदति बहु भाँति करुना करति संकर पहिं गई।।

अति प्रेम करि बिनती बिबिध बिधि जोरि कर सन्मुख रही।

प्रभु आसुतोष कृपाल सिव अबला निरखि बोले सही।।

                                      

दोहा-अब तें रति तव नाथ कर होइहि नामु अनंगु।

बिनु बपु ब्यापिहि सबहि पुनि सुनु निज मिलन प्रसंगु।।87।।

जब जदुबंस कृष्न अवतारा। होइहि हरन महा महिभारा।।

कृष्न तनय होइहि पति तोरा। बचनु अन्यथा होइ न मोरा।।

रति गवनी सुनि संकर बानी। कथा अपर अब कहउँ बखानी।।

देवन्ह समाचार सब पाए। ब्रह्मादिक बैकुंठ सिधाए।।

सब सुर बिष्नु बिरंचि समेता। गए जहाँ सिव कृपानिकेता।।

पृथक पृथक तिन्ह कीन्ह प्रसंसा। भए प्रसन्न चंद्र अवतंसा।।

बोले कृपासिंधु बृषकेतू। कहहु अमर आए केहि हेतू।।

कह बिधि तुम्ह प्रभु अंतरजामी। तदपि भगति बस बिनवउँ स्वामी।।

दोहा-सकल सुरन्ह के हृदयँ अस संकर परम उछाहु।

निज नयनन्हि देखा जहहिं नाथ तुम्हार बिबाहु।।88।।

यह उत्सव देखिअ भरि लोचन। सोइ कछु करहु मदन मद मोचन।।

कामु जारि रति कहुँ बरु दीन्हा। कृपासिंधु यह अति भल कीन्हा।।

सासति करि पुनि करहिं पसाऊ। नाथ प्रभुन्ह कर सहज सुभाऊ।।

पारबतीं तपु कीन्ह अपारा। करहु तासु अब अंगीकारा।।

                                      

सुनि बिधि बिनय समुझि प्रभु बानी। ऐसेइ होउ कहा सुखु मानी।।

तब देवन्ह दुंदुभीं बजाईं। बरषि सुमन जय जय सुर साईं।।
अवसरु जानि सप्तरिषि आए। तुरतहिं बिधि गिरिभवन पठाए।।

प्रथम गए जहँ रहीं भवानी। बोले मधुर बचन छल सानी।।

दोहा-कहा हमार न सुनेहु तब नारद कें उपदेस।

अब भा झूठ तुम्हार पन जारेउ कामु महेस।।89।।

सुनि बोलीं मुसुकाइ भवानी। उचित कहेहु मुनिबर बिग्यानी।।

तुम्हरें जान कामु अब जारा। अब लगि संभु रहे सबिकारा।।

हरें जान सदा सिव जोगी। अज अनवद्य अकाम अभोगी।।

जौं मैं सिव सेये अस जानी। प्रीति समेत कर्म मन बानी।।

तौ हमार पन सुनहु मुनीसा। करिहहिं सत्य कृपानिधि ईसा।।

तुम्ह जो कहा हर जारेउ मारा। सोइ अति बड़ अबिबेकु तुम्हारा।।

तात अनल कर सहज सुभाऊ। हिम तेहि निकट जाइ नहिं काऊ।।

गएँ समीप सो अवसि नसाई। असि मन्मथ महेस की नाई।।

दोहा- हियँ हरषे मुनि बचन सुनि देखि प्रीति बिस्वास।

चल भवानिहि नाइ सिर गए हिमाचल पास।।90।।

                                      

सबु प्रसंगु गिरिपतिहि सुनावा। मदन दहन सुनि अति दुखु पावा।।

बहुरि कहेउ रति कर बरदाना।। सुनि हिमवंत बहुत सुखु माना।।

हृदयँ बिचारि संभु प्रभुताई। सादर मुनिबर लिए बोलाई।।

सुदिनु सुनखतु शुघरी सोचाई। बेगि बेदबिधि लगन धराई।।

पत्री सपतरिषिन्ह सोइ दीन्ही। गहि पद बिनय हिमाचल कीन्ही।।

जाइ बिधिहि तिन्ह दीन्हि सो पाती। बाचत प्रीति न हृदयँ समाती।।

लगन बाचि अज सबहि सुनाई। हरषे मुनि सब सुर समुदाई।।

सुमन बृष्टि नभ बाजन बाजे। मंगल कलस दसहुँ दिसि साजे।।

दोहा-लगे सँवारन सकल सुर बाहन बिबिध बिमान।

होहिं सगुन मंगल सुभद करहिं अपछरा गान।।91।।

सिवहि संभु गन करहिं सिंगारा। जटा मुकुट अहि मौरु सँवारा।।

कुंडल कंकल पहिरे ब्याला। तन बिभूति पट केहरि छाला।।

ससि ललाट सुंदर सिर गंगा। नयन तीनि उपबीत भुजंगा।।

गरल कंठ उर नर सिर माला। असिव बेष सिवधाम कृपाला।।

कर त्रिसूल अरु डमरु बिराजा। चले बसहँ चढ़ि बाजहिं बाजा।।

देखि सिवहि सुरत्रिय मुसुकाहीं। बर लायक दुलहिनि जग नाहीं।।

                                      

बिष्नु बिरंचि आदि सुरब्राता। चढ़ि चढ़ि बाहन चले बराता।।

सुर समाज सब भाँति अनूपा। नहिं बरात दूलह अनुरूपा।।

दोहा-बिष्नु कहा अस बिहसि तब बोलि सकल दिसिराज।

बिलग बिलग होइ चलहु सब निज निज सहित समाज।।92।।

बर अनुहारि बरात न भाई। हँसी करैहहु परपुर जाई।।

बिष्नु बचन सुनि सुर मुसुकाने। निज निज सेन सहित बिलगाने।।

मनहीं मन महेसु मुसुकाहीं। हरि के बिंग्य बचन नहिं जाहीं।।

अति प्रिय बचन सुनत प्रिय केरे। भृंगिह प्रेरि सकल गन टेरे।।

सिव अनुसासन सुनि सब आए। प्रभु पद जलज सीस तिन्ह नाए।।

नाना बाहन नाना बेषा। बिहसे सिव समाज निज देखा।।

कोउ मुखहिन बिपुल मुख काहू। बिनु पद कर कोउ बहु पद बाहू।।

बिपुल नयन कोउ नयन बिहीना। रिष्टपुष्ट कोउ अति तनखीना।।

छन्द-तन खीन कोउ अति पीन पावन कोउ अपावन गति धरें।

भूषन कराल कपाल कर सब सद्य सोनित तन भरें।।

खर स्वान सुअर सृकाल मुख गन बेष अगनित को गनै।

बहु जिनस प्रेत पिसाच जोगि जमात बरनत नहिं बनै।।

सोरठा-नाचहिं गावहिं गीत परम तरंगी भूत सब।

                                      

देखत अति बिपरीत बोलहिं बचन बिचित्र बिधि।।93।।

जस दूलहु तसि बनी बराता। कौतुक बिबिध होहिं गम जाता।।

इहाँ हिमाचल रचेउ बिताना। अति बिचित्र नहिं जाइ बखाना।।

सैल सकल जहँ लगि जग माहीं। लघु बिसाल नहिं बरनि सिराहीं।।

बन सागर सब नदीं तलावा। हिमगिरि सब कछुँ नेवत पठावा।।

कामरूप सुंदर तन धारी। सहित समाज सहित बर नारी।।

गए सकल तुहिनाचल गेहा। गावहिं मंगल सहित सनेहा।।

प्रथमहिं गिरि बहु गृह सँवराए। जथाजोगु तहँ तहँ सब छाए।।

पुर सोभा अवलोकि सुहाई। लागइ लघु बिरंचि निपुनाई।।

छन्द-लघु लाग बिधि की निपुनता अवलोकि पुर सोभा सही।

बन बाग कूप तड़ाग सरिता सुभग सब सक को कही।।

मंगल बिपुल तोरन पताका केतु गृह गृह सोहहीं।

बनिता पुरुष सुंदर चतुर छबि देखि मुनि मन मोहहीं।।

दोहा-जगदंबा जहँ अवतरी सो पुरु बरनि कि जाइ।

रिद्धि सिद्धि संपत्ति सुख नित नूतन अधिकाइ।।94।।

नगर निकट बरात सुनि आई। पुर खरभरु सोभा अधिकाई।।

                                      

करि बनाव सजि बाहन नाना। चले लेन सादर अगवाना।।

हियँ हरषे सुर सेन निहारी। हरिहि देखि अति भए सुखारी।।

सिव समाज जब देखन लागे। बिडरि चले बाहन सब भागे।।

धरि धीरजु तहँ रहे सयाने। बालक सब लै जीव पराने।।

गएँ भवन पूछहिं पितु माता। कहहिं बचन भय कंपित गाता।।

कहिअ काह कहि जाइ न बाता। जम कर धार किधौं बरिआता।।

बरु बौराह बसहँ असवारा। ब्याल कपाल बिभूषन छारा।।

छन्द-तन छार ब्याल कपाल भूषन नगन जटिल भयंकरा।

सँग भूत प्रेत पिसाच जोगिनि बिकट मुख रजनीचरा।।

जो जिआत रहिहि बरात देखत पुन्य बड़ तेहि कर सहि।

देखिहि सो उमा बिबाहु घर घर बात अस लरिकन्ह कही।।

दोहा-समुझि महेस समाज सब जननि जनक मुसुकाहिं।

बाल बुझाए बिबिध बिधि निडर होहु डरु नाहिं।।95।।

लै अगवान बरातहि आए। दिए सबहि जनवास सुहाए।।

मैनाँ सुभ आरती सँवारी। संग सुमंगल गावहिं नारी।।

कंचन थार सोह बर पानी। परिछन चली हरहि हरषानी।।

                                      

बिकट बेष रुद्रहि जब देखा। अबलन्ह उर भय भयउ बिसेषा।।

भागि भवन पैठीं अति त्रासा। गए महेसु जहाँ जनवासा।।

मैना हृदयँ भयउ दुखु भारी। लीन्ही बोलि गिरीसकुमारी।।

अधिक सनेहँ गोद बैठारी। स्याम सरोज नयन भरे बारी।।

जेहिं बिधि तुम्हहि रूपु अस दीन्हा। तेहिं जड़ बरु बाउर कस कीन्हा।।

छन्द-कस कीन्ह बरु बौराह बिधि जेहिं तुम्हहि सुंदरता दई।

जो फलु चहिअ सुरतरुहिं सो बरबस बहूरहिं लागई।।

तुम्ह सहित गिरि तें गिरौं पावक जरौं जलनिधि महुँ परौं।

घरु जाउ अपजसु होउ जग जीवत बिबाहु न हौं करौं।।

दोहा-भईं बिकल अबला सकल दुखित देखि गिरिनारि।

करि बिलापु रोदति बदति सुता सनेहु सँभारि।।96।।

नारद कर मैं काह बिगारा। भवनु मोर जिन्ह बसत उजारा।।

अस उपदेसु उमहि जिन्ह दीन्हा। बौरे बरहि लागि तपु कीन्हा।।

साजेहुँ उन्ह कें मोह न माया। उदासीन धनु धामु न जाया।।

पर घर घालक लाज न भीरा। बाँझ कि जान प्रसव कै पीरा।।

जननिहि बिकल बिलोकि भवानी। बोली जुत बिबेक मृदु बानी।।

                                      

अस बिचारि सोचहि मति माता। सो न टरइ जो रचइ बिधाता।।

करम लिखा जौं बाउर नाहू। तौ कत दोसु लगाइअ काहू।।

तुम्ह सन मिटहिं कि बिधि के अंका। मातु ब्यर्थ जनि लेहु कलंका।।

छन्द-जनि लेहु मातु कलंकु करुना परिहरहु अवसर नहीं।

दुखु सुखु जो लिखा लिलार हमरें जाब जहँ पाउब तहीं।

सुनि उमा बचन बिनीत कोमल सकल अबला सोचहीं।।

बहु भाँति बिधिहि लगाइ दूषन नयन बारि बिमोचहीं।।

दोहा-तेहि अवसर नारद सहित अरु रिषि सप्त समेत।

समाचार सुनि तुहिनगिरि गवने तुरत निकेत।।97।।

तब नारद सबही समुझावा। पूरुब कथाप्रसंगु सुनावा।।

मयना सत्य सुनहु मम बानी। जगदंबा तब सुता भवानी।।

अजा अनादि सक्ति अबिनासिनि। सदा संभु अरधंग निवासिनि।।

जग संभव पालन लय कारिनि। निज इच्छा लीला बपु धारिनि।।

जनमीं प्रथम दच्छ गृह जाई। नामु सती सुंदर तनु पाई।।

तहँहुँ सती संकरहि बिबाहीं। कथा प्रसिद्ध सकल जग माहीं।।

एक बार आवत सिव संगा। देखेउ रघुकुल कमल पतंगा।।

                                      

भयउ मोहु सिव कहा न कीन्हा। भ्रम बस बेशु सीय कर लीन्हा।।

छन्द-सिय बेषु सतीं जो कीन्ह तेहिं अपराध संकर परिहरीं।

हर बिरहँ जाइ बहोरि पितु कें जग्य जोगानल जरीं।।

अब जनमि तुम्हरे भवन निज पति लागि दारुन तपु किया।।

अस जानि संसय तजहु गिरिजा सर्बदा संकर प्रिया।।

दोहा- सुनि नारद के बचन तब सब कर मिटा बिषाद।

छन महुँ ब्यापेउ सकल पुर घर घर यह संबाद।।98।।

तब मयना हिमबंतु अनंदे। पुनि पुनि पारबती पद बंदे।।

नारि पुरुष सिसु जुबा सयाने। नगर लोग सब अति हरषाने।।

लगे होन पुर मंगलगाना। सजे सबहिं हाटक घट नाना।।

भाँति अनेक भई जेवनारा। सूपसास्त्र जस कछु ब्यवहारा।।

सो जेवनार कि जाइ बखानी। बसहिं भवन जेहिं मातु भवानी।।

सादर बोले सकल बराती। बिष्नु बिरंचि देव सब जाती।।

बिबिधि पाँति बैठी जेवनारा। लागे परुसन निपुन सुआरा।।

नारिबृंद सुर जेवँत जानी। लगीं देन गारीं मृदु बानी।।

छन्द- गारीं मधुर स्वर देहिं सुंदरि बिंग्य बचन सुनावहीं।

                                      

भोजनु करहिं सुर अति बिलंबु बिनोदु सुनि सचु पावहीं।।

जेवँत जो बढ़्यो अनंदु सो मुख कोटिहुँ न परै कह्यो।

अचवाँइ दीन्हे पान गवने बास जहँ जाको रह्यो।।

दोहा-बहुरि मुनिन्ह हिमवंत कहुँ लगन सुनाई आइ।

समय बिलोकि बिबाह कर पठए देव बोलाइ।।99।।

बोलि सकल सुर सादर लीन्हे सबहि जथोचित आसन दीन्हे।।

बेदी बेद बिधान सँवारी। सुभग सुमंगल गावहिं नारी।।

सिंघासनु अति दिब्य सुहावा। जाइ न बरनि बिरंचि बनावा।।

बैठे सिव बिप्रन्ह सिरु नाई। हृदयँ सुमिरि निज प्रभु रघुराई।।

बहुरि मनीसन्ह उमा बोलाईं। करि सिंगारु सखीं लै आईं।।

देखत रूपु सकल सुर मोहे। बरनै छबि अस जग कबि को है।।

जगदंबिका जानि भव भामा। सुरन्ह मनहिं मन कीन्ह प्रनामा।।

सुंदरता मरजाद भवानी। जाइ न कोटिहुँ बदन बखानी।।

छन्द-कोटिहुँ बदन नहिं बनै बरनत जग जननि सोभा महा।

सकुचहिं कहत श्रुति सेष सारद मंदमति तुलसी कहा।।

छबिखानि मातु भवानि गवनीं मध्य मंडप सिव जहाँ।

                                      

अवलोकि सकहिं न सकुच पति पद कमल मनु मधुकरु तहाँ।।

दोहा- मुनि अनुसासन गनपतिहि पूजेउ संभु भवानि।

कोउ सुनि संसय करै जनि सुर अनादि जियँ जानि।।100।।

जसि बिबाह कै बिधि श्रुति गाई। महामुनिन्ह सो सब करवाई।।

गहि गिरीस कुस कन्या पानी। भवहि समरपीं जानि भवानी।।

पानिग्रहन जब कीन्ह महेसा। हियँ हरषे तब सकल सुरेसा।।

बेदमंत्र मुनिबर उच्चरहीं। जय जय जय संकर सुर करहीं।।

बाजहिं बाजन बिबिध बिधाना। सुमनबृष्टि नभ भै बिधि नाना।।

हर गिरिजा कर भयउ बिबाहू। सकल भुवन भरि रहा उछाहू।।

दासी दास तुरग रथ नागा। धेनु बसन मनि बस्तु बिभागा।।

अन्न कनकभाजन भरि जाना। दाइज दीन्ह न जाइ बखाना।।

छन्द- दाइज दियो बहु भाँति पुनि कर जोरी हिमभूधर कह्यो।

का देउँ पूनकाम संकर चरन पंकज गहि रह्यो।।

सवँ कृपासागर ससुर कर संतोषु सब भाँतिहिं कियो।

पुनि गहे पद पाथोज मयनाँ प्रेम परिपूरन हियो।।

दोहा-नाथ उमा मम प्रान सम गृहकिकरी करेहु।

                                      

छमेहु सकल अपराध अब होइ प्रसन्न बरु देहु।।101।।

बहु बिधि संभु सासु समुझाई। गवनी भवन चरन सिरु नाई।।

जननीं उमा बोलि तब लीन्ही। लै उछंग सुंदर सिख दीन्ही।।

करेहु सदा संकर पद पूजा। नारिधरमु पति देउ न दूजा।।

चन कहत भरे लोचन बारी। बहुरि लाइ उर लीन्हि कुमारी।।

कत बिधि सृजीं नारि जग माहीं। पराधीन सपनेहुँ सुखु नाहीं।।

भै अति प्रम बिकल महतारी। धीरजु कीन्ह कुसमय बिचारी।।

पुनि पुनि मिलति परति गहि चरना। परम प्रेमु कछु जाइ न बरना।।

सब नारिन्ह मिलि भेटि भवानी। जाइ जननि उर पुनि लपटानी।।

जननिहि बहुरि मिलि चली उचित असीस सब काहूँ दईं।

फिरि फिरि बिलोकति मातु तन तब सखीं लै सिव पहिं गईं।।

जाचक सकल संतोषि संकरु उमा सहित भवन चले।

सब अमर हरषे सुमन बरषि निसान नभ बाजे भले।।

दोहा-चल संग हिमवंतु तब पहुँचावन अति हेतु।

बिबिध भाँति परितोषु करि बिदा कीन्ह बृषकेतु।।102।।

तुरत भवन आए गिरिराई। सकल सैल सर लिए बोलाई।।

                                      

आदर दान बिनय बहुमाना। सब कर बिदा कीन्ह हिमवाना।।

जबहिं संभु केलासहिं आए। सुर सब निज निज लोक सिधाए।।

जगत मातु पितु संभु भवानी। तेहिं सिंगारु न कहउँ बखानी।।

करहिं बिबिध बिधि भोग बिलासा। गनन्ह समेत बसहिं कैलासा।।

हर गिरिजा बिहार नित नयऊ। एहि बिधि बिपुल काल चलि गयऊ।।

तब जनमेउ षटबदन कुमारा। तारकु असुरु समर जेहिं मारा।।

आगम निगम प्रसिद्ध पुराना। षन्मुख जन्मु सकल जग जाना।।

छन्द-जगु जान षन्मुख जन्मु प्रतापु पुरुषारथु महा।

तेहि हेतु मैं बृषकेतु सुत कर चरित संछेपहिं कहा।।

यह उमा संभु बिबाहु जे नर नारि कहहिं जे गावहीं।

कल्यान काज बिबाह मंगल सर्बदा सुखु पावहीं।।

दोहा-चरित सिंधु गिरिचा रमन बेद न पावहिं पारु।

बरनै तुलसीदासु किमि अति मतिमंद गवाँरु।।103।।

संभु चरित मुनि सरस सुहावा। भरद्वाज मुनि अति सुखु पावा।।

बहु लालसा कथा पर बाढ़ी। नयनन्हि नीरु रोमावलि ठाढ़ी।।

प्रेम बिबस मुख आव न बानी। दसा देखि हरषे मुनि ग्यानी।।

                                      

अहो धन्य तब जन्मु मुनीसा। तुम्हहि प्रान सम प्रिय गौरीसा।।

सिव पद कमल जिन्हहि रति नाहीं। रामहि ते सपनेहुँ न सोहाहीं।।

बिनु छल बिस्वनाथ पद नेहू। राम भगत कर लच्छन एहू।।

सिव सम को रघुपति ब्रतधारी। बिनु अघ तजी सती असि नारी।।

पनु करि रघुपति भगति देखाई। को सिव सम रामहि प्रिय भाई।।

दोहा-प्रथमहिं मैं कहि सिव चरित बूझा मरमु तुम्हार।

सुचि सेवक तुम्ह राम के रहित समस्त बिकार।।104।।

मैं जाना तुम्हार गुन सीला। कहउँ सुनहु अब रघुपति लीला।।

सुनु मुनि आजु समागम तोरें। कहि न जाइ जस सुखु मन मोरें।।

राम चरित अति अमित मुनीसा। कहि न सकहिं सत कोटि अहीसा।।

तदपि जथाश्रुत कहउँ बखानी। सुमिरि गिरापति प्रभु धनुपानी।।

सारद दारुनारि सम स्वामी। रामु सूत्रधर अंतरजामी।।

जेहि पर कृपा करहिं जनु जानी। कबि उर अजिर नजावहिं बानी।।

प्रनवउँ सोइ कृपाल रघुनाथा। बरनउँ बिसद तासु गुन गाथा।

परम रम्य गिरिबरु कैलासू। सदा जहाँ सिव उमा निवासू।।

दोहा-सिद्ध तपोधन जोगिजन सुर किंनर मुनिबृंद।

                                      

बसहिं तहाँ सुकृती सकल सेवहिं सिव सुखकंद।।105।।

हरि हर बिमुख धर्म रति नाहीं। ते नर तहँ सपनेहुँ नहिं जाहीं।।

दतेहि गिरि पर बिटप बिसाला। नित नूतन सुंदर सब काला।

त्रिबिध समीर सुसीतलि छाया। सिव बिश्राम बिटप श्रुति गाया।।

एक बार तेहि तर प्रभु गयऊ। तरु बिलोकि उर अति सुखु भयऊ।।

निज कर डासि नागरिपु छाला। बैठे सहजहिं संभु कृपाला।।

कुंद इंदु दर गौर सरीरा। भुज प्रलंब परिधन मुनिचीरा।।

तरुन अरुन अंबुज सम चरना। नख दुति भगत हृदय तम हरना।।

भुजग भूति भूषन त्रिपुरारी। आननु सरद चंद छबि हारी।।

दोहा-जटा मुकुट सुरसरित सिर लोचन नलिन बिसाल।

नीलकंठ लावन्यनिधि सोह बालबिधु भाल।।106।।

बैठे सोह कामरुपु कैसें। धरें सरीरु सांतरसु जैसें।।

पारबती भल अवसरु जानी। गईं संभु पहिं मातु भवानी।।

जानि प्रिया आदरु अति कीन्हा। बाम भाग आसनु हर दीन्हा।।

बैठीं सिव समीप हरषाई। पूरुब जन्म कथा चित आई।।

                                      

पित हियँ हितु अधिक अनुमानी। बिहसि उमा बोलीं प्रिय बानी।।

कथा जो सकल लोक हितकारी। सोइ पूछन चह सैलकुमारी।।

बिस्वनाथ मम नाथ पुरारी। त्रिभुवन महिमा बिदित तुम्हारी।।

चर अरु अचर नाग नर देवा। सकल करहिं पद पंकज सेवा।।

दोहा-प्रभु समरथ सर्बग्य सिव सकल कला गुन धाम।

जोग ग्यान बैराग्य निधि प्रनत कलपतरु नाम।।107।।

जौं मो पर प्रसन्न सुखरासी। जानिअ सत्य मोहि निज दासी।।

तौ प्रभु हरहु मोर अग्याना। कहि रघुनाथ कथा बिधि नाना।।

जासु भवनु सुरतरु तर होई। सहि कि दरिद्र जनित दुखु सोई।।

ससिभूषन अस हृदयँ बिचारी। हरहु नाथ मम मति भ्रम भारी।।

प्रभु जे मुनि परमारथबादी। कहहिं राम कहुँ ब्रह्म अनादी।।

सेस सारदा बेद पुराना। सकल करहिं रघुपति गुन गाना।।

तुम्ह पुनि राम राम दिन राती। सादर जपहु अनँग आराती।।

रामु सो अवध नृपति सुत सोई। की अज अगुन अलखगति कोई।।

दोहा-जौं नृप तनय त ब्रह्म किमि नारि बिरहँ मति भोरि।

देखि चरित महिमा सुनत भ्रमति बुद्धि अति मोरि।।108।।

                                      

जौं अनीह ब्यापक बिभु कोऊ। कहहु बुझाइ नाथ मोहि सोऊ।।

अग्य जानि रिस उर जनि धरहू। जेहि बिधि मोह मिटै सोइ करहू।।

मैं बन दीखि राम प्रभुताई। अति भय बिकल न तुम्हहि सुनाई।।

तदपि मलिन मन बोधु न आवा। सो फलु भली भाँति हम पावा।।

अजहूँ कछु संसउ मन मोरें। करहु कृपा बिनवउँ कर जोरें।।

प्रभु तब मोहि बहु भाँति प्रबोधा। नाथ सो समुझि करहु जनि क्रोधा।।

तब कर अस बिमोह अब नाहीं। रामकथा पर रुचि मन माहीं।।

कहहु पुनीत राम गुन गाथा। भुजगराज भूषन सुरनाथा।।

दोहा-बंदउँ पद धरि धरनि सिरु बिनय करउँ कर जोरि।

बरनहु रघुबर बिसद जसु श्रुति सिद्धांत निचोरि।।109।।

जदपि जोषिता नहिं अधिकारी। दासी मन क्रम बचन तुम्हारी।।

गूढ़उ तत्त्व न साधु दुरावहिं। आरत अधिकारी जहँ पावहिं।।

अति आरति पूछउँ सुरराया। रघुपति कथा कहहु करि दाया।।

प्रथम सो कारन कहहु बिचारी। निर्गुन ब्रह्म सगुन बपु धारी।।

पुनि प्रभु कहहु राम अवतारा। बालचरित पुनि कहहु उदारा।।

कहहु जथा जानकी बिबाहीं। राज तजा सो दूषन काहीं।।

                                      

बन बसि कीन्हे चरित अपारा। कहहु नाथ जिमि रावन मारा।।

राज बैठि कीन्हीं बहु लीला। सकल कहहु संकर सुखसीला।।

दोहा-बहुरि कहहु करुनायतन कीन्ह जो अचरज राम।

प्रजा सहित रघुबंसमनि किमि गवने निज धाम।।110।।

पुनि प्रभु कहहु सो तत्त्व बखानी। जेहिं बिग्यान मगन मुनि ग्यानी।।

भगति ग्यान बिग्यान बिरागा। पुनि सब बरनहु सहित बिभागा।।

औरउ राम रहस्य अनेका। कहहु नाथ अति बिमल बिबेका।।

जो प्रभु मैं पूछा नहिं होई। सोउ दयाल राखहु जनि गोई।।

तुम्ह त्रिभुवन गुर बेद बखाना। आन जीव पाँवर का जाना।।

प्रस्न उमा कै सहज सुहाई। छल बिहीन सुनि सिव मन भाई।।

हर हियँ रामचरित सब आए। प्रेम पुलक लोचन जल छाए।।

श्रीरघुनाथ रूप उर आवा। परमानंद अमित सुख पावा।।

दोहा-मगन ध्यानरस दंड जुग पुनि मन बाहेर कीन्ह।

रघुपति चरित महेस तब हरषित बरनै लीन्ह।।111।।

झूठेउ सत्य जाहि बिनु जानें। जिमि भुजंग बिनु रजु पहिचानें।।

जेहि जानें जग जाइ हेराई। जागें जथा सपन भ्रम जाई।।

                                      

बंदउँ बालरुप सोइ रामू। सब सिधि सुलभ जपत जिसु नामू।।

मंगल भवन अमंगल हारी। द्रवउ सो दसरथ अजिर बिहारी।।

किर प्रनाम रामहि त्रिपुरारी। हरषि सुधा सम गिरा उचारी।।

धन्य धन्य गिरिराजकुमारी। तुम्ह समान नहिं कोउ उपकारी।।

पूँछेहु रघुपति कथा प्रसंगा। सकल लोक जग पावनि गंगा।।

तुम्ह रघुबीर चरन अनुरागी। कीन्हिहु प्रस्न जगत हित लागी।।

दोहा-राम कृपा तें पारवति सपनेहुँ तव मन माहिं।

सोक मोह संदेह भ्रम मम बिचार कछु नाहिं।। 112।।

तदपि असंका कीन्हिहु सोई। कहत सुनत सह कर हित होई।।

जिन्ह हरि कथा सुनी नहिं काना। श्रवन रंध्र अहिभवन समाना।।

नयनन्हि संत दरस नहिं देखा। लोचन मोरपंख कर लेखा।।

ते सिर कटु तुंवरि समतूला। जे न नमत हरि गुर पद मूला।।

जिन्ह हरिभगति हृदयँ नहिं आनी। जीवत सव समान तेइ प्रानी।।

जो नहिं करइ राम गुन गाना। जीह सो दादुर जीह समाना।।

कुलिस कठोर निठुर सोइ छाती। सुनि हरिचरित न जो हरषाती।।

गिरिजा सुनहु राम तै लीला। सुर हित दनुज बिमोहनसीला।।

                                      

दोहा-रामकथा सुरधेनु सम बेवत सब सुख दानि।

सतसमाज सुरलोक सब को न सुनै अस जानि।।113।।

रामकथा सुंदर कर तारी। संसय बिहग उड़ावनिहारी।।

रामकथा कलि बिटप कुठारी। सादर सुनु गिरिराजकुमारी।।

राम नाम गुन चरित सुहाए। जनम करम अगनित श्रुति गाए।।

जथा अनंत राम भगवानी। तथा कथा कीरति गुन नाना।।

तदपि जथा श्रुत जसि मति मोरी। कहिहुँ देखि प्रीति अति तोरी।।

उमा प्रस्न तव सहज सुहाई। सखद संतसंमत मोहि भाई।।

एक बात नहिं मोहि सोहानी। जदपि मोह बस कहेहु भवानी।।

तुम्ह जो कहा राम कोउ आना। जेहि श्रुति गाव धरहिं मुनि ध्याना।।

दोहा-कहहिं सुनहिं अस अधम नर ग्रसे जे मोह पिसाच।

पाषंडी रहि पद बिमुख जानहिं झूठ न साच।।114।।

अग्य अकोबिद अंध अभागी। काई बिषय मुकुर मन लागी।।

लंपट कपटि कुटिल बिसेषी। सपनेहुँ संतसभा नहिं देखी।।

कहहिं ते बेद असंमत बानी। जिन्ह के सूझ लाभु नहिं हानी।।

                                      

मुकुर मलिन अरु नयन बिहीना। राम रूप देखहिं किमि दीना।।

जिन्ह के अगुन न सगुन बिबेका। जल्पहिं कल्पित बचन अनेका।।

हरिमाया बस जगत भ्रमाहीं। तिन्हहि कहत कछु अघटित नाहीं।।

बातुल भूत बिबस मतवारे। ते नहिं बोलहिं बचन बिचारे।।

जिन्ह कृत महामोह मद पाना। तिन्ह कर कहा करिअ नहिं काना।।

सोरठा-अस निज हृदयँ बिचारि तजु संसय भजु राम पद।

सुनु गिरिराज कुमारि भ्रम तम रबि कर बचन मम।।115।।

सगुनहि अगुनहि नहिं कछु भेदा। गावहिं मुनि पुरान बुध बेदा।।

अगुन अरूप अलख अज जोई। भगत प्रेम बस सगुन सो होई।।

जो गुन रहित सगुन सोइ कैसें। जलु हिम उपल बिलग नहिं जैसें।।

जासु नाम भ्रम तिमिर पतंगा। तेहि किमि कहिअ बिमोह प्रसंगा।।

राम सच्चिदानंद दिनेसा। नहिं तहँ मोह निसा लवलेसा।।

सहज प्रकासरूप भगवाना। नहिं तहँ पुनि बिग्यान बिहाना।।

हरष बिषाद ग्यान अग्याना। जीव धर्म अहमिति अभिमाना।।

राम ब्रह्म ब्यापक जग जाना। परमानंद परेस पुराना।।।

दोहा- पुरुष प्रसिद्ध प्रकास निधि प्रगट परावर नाथ।

                                      

रघुकुलमनि मम स्वामि सोइ कहि सिवँ नायउ माथ।।116।।

निज भ्रम नहिं समुझहिं अग्यानी। प्रभु पर मोह धरहिं जड़ प्रानी।।

जथा गगन घन पटल निहारी। ढाँपेउ भानु कहहिं कुबिचारी।।

चितव जो लोचन अंगुलि लाएँ। प्रगट जुगल ससि तेहि के भाएँ।।

उमा राम बिषइक अस मोहा। नभ तम धूम धूरि जिमि सोहा।।

बिषय करन सुर जीव समेता। सकल एक तें एक सचेता।।

सब कर परम प्रकासक जोई। राम अनादि अवधपति सोई।।

जगत प्रकास्य प्रकासक रामू। मायाधीस ग्यान गुन धामू।।

दोहा-रजत सीप महुँ भास जिमि जथा भानु कर बारि।

जदपि मृषा तिहुँ काल सोइ भ्रम न सकइ कोउ टारि।।117।।

एहि बिधि जग हरि आश्रित हरई। जगपि असत्य देत दुख अहई।।

जौं सपनें सिर काटै सोई। बिनु जागें न दूरि दुख होई।।

जासु कृपाँ अस भ्रम मिटि जाई। गिरिजा सोइ कृपाल रघुराई।।

आदि अंत कोउ जासु न पावा। अति अनुमानि निगम अस गावा।।

बिनु पद चलइ सुनइ बिनु काना। कर बिनु करम करइ बिधि नाना।।

आनन रहित सकल रस भोगी। बिनु बानी बकता बड़ जोगी।।

                                      

तन बिनु परस नयन बिनु देखा। ग्रहइ घ्रान बिन बास असेषा।।

असि सब भाँति अलौकिक करनी। महिमा जासु जाइ नहिं बरनी।।

दोहा-जेहि इमि गावहिं बेद बुध जाहि धरहिं मुनि ध्यान।

सोइ दसरथ सुत भगत हित कोसलपति भगवान।।118।।

कासीं मरत जंतु अवलोकी। जासु नाम बल करउँ बिसोकी।।

सोइ प्रभु मोर चराचर स्वामी। रघुबर सब उर अंतरजामी।।

बिबसहुँ जासु नाम नर कहहीं। जनम अनेक रचित अघ दहहीं।।

सादर सुमिरन जे नर करहीं। भव बारिधि गोपद इव तरहीं।।

राम सो परमातमा भवानी तहँ भ्रम अति अबिहित तव बानी।।

अस संसय आनत उर माहीं। ग्यान बिराग सकल गुन जाहीं।।

सुनि सिव के भ्रम भंजन बचना। मिटि गै सब कुतरक कै रचना।।

भइ रघुपति पद प्रीति प्रतीती। दारुन असंभावना बीती।।

दोहा-पुनि पुनि प्रभु पद कमल गहि जोरि पंकरुह पानि।

बोलीं गिरिजा बचन बर मनहुँ प्रेम रस सानि।।119।।

ससि कर सम सुनि गिरा तुम्हारी। मिटा मोह सरदातप भारी।।

तुम्ह कृपाल सबु संसउ हरेऊ। राम स्वरूप जानि मोहि परेऊ।।

                                      

नाथ कृपाँ अब गयउ बिषादा। सुखी भयउँ प्रभु चरन प्रसादा।।

अव मोहि आपनि किंकरि जानी। जदपि सहज जड़ नारि अयानी।।

प्रथम जो मैं पूछा सोइ कहहू। जौं मो पर प्रसन्न प्रभु अहहू।।

राम ब्रह्म चिनमय अबिनासी। सर्ब रहित सब उर पुर बासी।।

नाथ धरेउ नरतनु केहि हेतू। मोहि समुझाइ कहहु बृषकेतू।।

उमा बचन सुनि परम बिनीता। रामकथा पर प्रीति पुनीता।।

दोहा-हियँ हरषे कामारि तब संकर सहज सुजान।

बहु बिधि उमहि प्रसंसि पुनि बोले कृपानिधान।।120।।क।।

सोरठा-सुनु सुभ कथा भवानि रामचरित मानस बिमल।

कहा भुसुंडि बखानि सुना बिहग नायक गरुड़।।120ख।।

सो संबाद उदार जेहि बिधि भा आगें कहब।

सुनहु राम अवतार चरित परम सुंदर अनघ।।120ग।।

हरि गुन नाम अपार कथा रूप अगनित अमित।

मैं निज मति अनुसार कहउँ उमा सादर सुनहु।।120घ।।

सुनु गिरिजा हरिचरित सुहाए। बिपुल बिसद निगमागम गाए।।

हरि अवतार हेतु जेहि होई। इदमित्थं कहि जाइ न सोई।।

                                      

राम अतर्क्य बुद्धि मन बानी। मत हमार अस सुनहि सयानी।।

तदपि संत मुनि बेद पुराना। जस कछु कहहिं स्वमति अनुमाना।।

तस मैं सुमुखि सुनावउँ तोही। समुझि परइ जस कारन मोही।।

जब जब होइ धरम कै हानी। बाढ़हिं असुर अधम अभिमानी।।

करहिं अनीति जाइ नहिं बरनी। सीदहिं बिप्र धेनु सुर धरनी।।

तब प्रभु धरि बिबिध सरीरा। हरहिं कृपानिधि सज्जन पीरा।।

दोहा-असुर मारि थापहिं सुरन्ह राखहिं निज श्रुति सेतु।

जग बिस्तारहिं बिसद जस राम जन्म कर हेतु।।121।।

सोइ जस गाइ भगत भव तरहीं। कृपासिंधु जन हित तनु धरहीं।।

राम जनम ते हेतु अनेका। परम बिचित्र एक तें एका।।

जनम एक दुइ कहउँ बखानी। सावधान सुनु सुमति भवानी।।

द्वारपाल हरि के प्रिय दोऊ। जय अरु बिजय जान सब कोऊ।।

बिप्र श्राप तें दूनउ भाई। तामस असुर देह तिन्ह पाई।।

कनककसिपु अरु हाटक लोचन। जगत बिदित सुरपति मद मोचन।।

बिजई समर बीर बिख्याता। धरि बराह बपु एक निपाता।।

होइ नरहरि दूसर पुनि मारा। जन प्रहलाद सुजस बिस्तारा।।

                                      

दोहा-भए निसाचर जाइ तेइ महाबीर बलवान।

कुंभकरन रावन सुभट सुर बिजई जग जान।।122।।

मुकुत न भए हते भगवाना। तीनि जनम द्विज बचन प्रवाना।।

एक बार तिन्ह के हित लागी। धरेउ सरीर भगत अनुरागी।।

कस्यप अदिति तहाँ पितु माता। दसरथ कौसल्या बिख्याता।।

एक कलप एहि बिधि अवतारा। चरित पवित्र संसारा।।

एक कलप सुर देखि दुखारे। समर जलंधर सन सब हारे।।

संभु कीन्ह संग्राम अपारा। दनुज महाबल मरइ न मारा।।

परम सती असुराधिप नारी। तेहिं बल ताहि न जितहिं पुरारी।।

दोहा-छल करि टारेउ तासु ब्रत प्रभु सुर कारज कीन्ह।

जब तेहिं जानेउ मरम तब श्राप कोप करि दीन्ह।।123।।

तासु श्राप हरि दीन्ह प्रमाना। कौतुकनिधि कृपाल भगवाना।।

तहाँ जलंधर रावन भयऊ। रन हति राम परम पद दयऊ।।
एक जनम कर कारन एहा। जेहि लगि राम धरी नरदेहा।।

प्रति अवतार कथा प्रभु केरी। सुनु मुनि बरनी कबिन्ह घनेरी।।

नारद श्राप दीन्ह एक बारा। कलप एक तेहि लगि अवतारा।।

गिरिजा चकित भईं सुनि बानी। नारद बिष्नुभगत पुनि ग्यानी।।

                                      

कारन कवन श्राप मुनि दीन्हा। का अपराध रमापति कीन्हा।।

यह प्रसंग मोहि कहहु पुरारी। मुनि मन मोह आचरज भारी।।

दोहा-बोले बिहसि महेस तब ग्यानी मूढ़ न कोइ।

जेहि जस रघुपति करहिं जब सो तस तेहि छन होइ।।124क।।

सोरठा-कहउँ राम गुन गाथ भरद्वाज सादर सुनहु।

भव भंजन रघुनाथ भजु तुलसी तजि मान मद।।124ख।।

हिमगिरि गुहा एक अति पावनि। बह समीप सुरसरी सुहावनि।।

आश्रम परम पुनीत सुहावा। देखि देवरिषि मन अति भावा।।

निरखि सैल सरि बिपिन बिभागा। भयउ रमापति पद अनुरागा।।

सुमिरत हरिहि श्राप गति बाधी। सहज बिमल मन लागि समाधी।।

मुनि गति देखि सुरेस डेराना। कामहि बोलि कीन्ह सनमाना।।

सहित सहाय जाहु मम हेतू। चलेउ हरषि हियँ जलचरकेतू।।

सुनासीर मन महुँ असि त्रासा। चहत देवरिषि मम पुर बासा।।

जे कामी लोलुप जग माहीं। कुटिल काक इव सबहि डेराहीं।।

दोहा-सूख हाड़ लै भाग सठ स्वान निरखि मृगराज।

छीनि लेइ जनि जान जड़ तिमि सुरपतिहि न लाज।।125।।

                                      

तेहि आश्रमहिं मदन जब गयऊ। निज मायाँ बसंत निरमयऊ।।

कुसुमित बिबिध बिटप बहुरंगा। कूजहिं कोकिल गुंजहिं भृंगा।।

चली सुहावनि त्रिबिध बयारी। काम कृसानु बढावनिहारी।।

रंभादिक सुरनारि नबीना। सकल असमसर कला प्रबीना।।

करहिं गान बहु तान तरंगा। बहुबिधि क्रीड़हिं पानि पतंगा।।

देखि सहाय मदन हरषाना। कीन्हेसि पुनि प्रपंच बिधि नाना।।

कान मला कछु मुनिहि न ब्यापी। निज भयँ डरेउ मनोभव पापी।।

सीम कि जाँपि सकइ कोउ तासू। बड़ रखवार रमापति जासू।।

दोहा-सहित सहाय सभीत अति मानि हारि मन मैन।

गहेसि जाइ मुनि चरन तब कहि सुठि आरत बैन।।126।।

भयउ न नारद मन कछु रोषा। कहि प्रिय बचन काम परितोषा।।

नाइ चरन सिरु आयसु पाई। गयउ मदन तब सहित सहाई।।

मुनि सुसीलता आपनि करनी। सुरपति सभाँ जाइ सब बरनी।।

सुनि सब कें मन अचरजु आवा।। मुनिहि प्रसंसि हरिहि सिरु नावा।।

तब नारद गवने सिव पाहीं। जिता काम अहमिति मन माहीं।।

मार चरित संकरहि सुनाए। अतिप्रिय जानि महेस सिखाए।।

                                      

बार बार बिनवउँ मुनि तोही। जिमि यह कथा सुनायहु मोही।।

तिमि जनि हरिहि सुनावहु कबहूँ। चलेहुँ प्रसंग दुराएहु तबहूँ।।

दोहा-संभु दीन्ह उपदेस हित नहिं नारदहि सोहान।

भरद्वाज कौतुक सुनहु हरि इच्छा बलवान।।127।।

राम कीन्ह चाहहिं सोइ होई। करै अन्यथा अस नहिं कोई।।

संभु बचन मुनि मन नहिं भाए। तब बिरंचि के लोक सिधाए।।

एक बार करतल बर बीना। गावत हरि गुन गान प्रबीना।।

छीरसिंधु गवने मुनिनाथा। जहँ बस श्रीनिवास श्रुतिमाथा।।

हरषि मिले उठि रमानिकेता। बैठे आसन रिषिहि समेता।।

बोले बिहसि चराचर राया। बहुते दिनन कीन्हि मुनि दाया।।

काम चरित नारद सब भाषे। जद्यपि प्रथम बरजि सिवँराखे।।

अति प्रचंड रघुपति कै माया। जेहि न मोह अस को जग जाया।।

दोहा-रूख बदन करि बचन मृदु बोले श्रीभगवान।

तुम्हरे सुमिरन तैं मिटहिं मोह मार मद मान।।128।।

सुनु मुनि मोह होइ मन ताकें। ग्यान बिराग हृदय नहिं जाकें।।

ब्रह्मचरज ब्रत रत मतिधीरा। तुम्हहि कि करइ मनोभव पीरा।।

                                      

नारद कहेउ सहित अभिमाना। कृपा तुम्हारि सकल भगवाना।।

करुनानिधि मन दीख बिचारी। उर अंकुरेउ गरब तरु भारी।।

बेगि सो मैं जारिहउँ उखारी। पन हमार सेवक हितकारी।।

मुनि कर हित मम कौतुक होई। अवसि उपाय करबि मैं सोई।।

तब नरद हरि पद सिर नाई। चले हृदयँ अहमिति अधिकाई।।

श्रीपति निज माय तब प्रेरी। सुनहु कठिन करनी तेहि केरी।।

दोहा-बिरचेउ मग महुँ नगर तेहिं सत जोजन बिस्तार।

श्रीनिवासपुर तें अधिक रचना बिबिध प्रकार।।129।।

बसहिं नगर सुंदर नर नारी। जनु बहु मनसिज रति तनुधारी।।

तेहिं पुर बसइ सीलनिधि राजा। अगनित हय गय सेन समाजा।।

सत सुरेस सम बिभव बिलासा। रूप तेज बल नीति निवासा।।

बिस्वमोहनी तासु कुमारी। श्री बिमोह जिसु रूपु निहारी।।

सोइ हरिमाया सब गुन खानी। सोभा तासु कि जाइ बखानी।।

करइ स्वयंबर सो नृपबाला। आए तहँ अगनित महिपाला।।

मुनि कौतुकी नगर तेहिं गयऊ। पुरबासिन्ह सब पूछत भयऊ।।

सुनि सब चरित भूपगृहँ आए। करि पूजा नृप मुनि बैठाए।।

                                      

दोहा- आनि देखाई नारदहि भूपति राजकुमारि।

कहहु नाथ गुन दोष सब एहि के हृदयँ बिचारि।।130।।

देखि रूप मुनि बिरति बिसारी। बड़ी बार लगि रहे निहारी।।

लच्छन तासु बिलोकि भुलाने। हृदयँ हरष नहिं प्रगट बखाने।।

जो एहि बरइ अमर सोइ सोई। समरभूमि तेहि जीत न कोई।।

सेवहिं सकल चराचर ताही। बरइ सीलनिधि कन्या जाही।।

लच्छन सब बिचारि उर राखे। कछुक बनाइ भूप सन भाषे।।

सुता सुलच्छन कहि नृप पाहीं। नारद चले सोच मन माहीं।।

करौं जाइ सोइ जतन बिचारी। जेहि प्रकार मोहि बरै कुमारी।।

जप तप कछु न होइ तेहि काला। हे बिधि मिलइ कवन बिधि बाला।।

दोहा-एहि अवसर जाहिअ परम सोभा रूप बिसाल।

जो बिलोकि रीझै कुअँरि तब मेलै जयमाल।।131।।

हरि सन मागौं सुंदरताई। होइहि जात गहरु अति भाई।।

मोरें हित हरि सम नहिं कोऊ। एहि अवसर सहाय सोइ होऊ।।

बहुबिधि बिनय कीन्हि तेहि काला। प्रगटेउ प्रभु कौतुकी कृपाला।।

प्रभु बिलोकि मुनि नयन जुड़ाने। होइहि काजु हिएँ हरषाने।।

                                      

अति आरति कहि कथा सुनाई। करहु कृपा करि होहु सहाई।।

आपन रूप देहु प्रभु मोही। आन भाँति नहिं पावौं ओही।।

जेहि बिधि नाथ होइ हित मोहा। कहु सो बेगि दास मैं तोरा।।

निज माया बल देखि बिसाला। हियँ हँसि बोले दीनदयाला।।

दोहा-जेहि बिधि होइहि परम हित नारद सुनहु तुम्हार।

सोइ हर करब न आन कछु बचन न मृषा हमार।।132।।

कुपथ माग रुज ब्याकुल रोगी। बैद न देइ सुनहु मुनि जोगी।।

एहि बिधि हित तुम्हार मैं ठयऊ। कहि अस अंतरहित प्रभु भयऊ।।

माया बिबस भए मुनि मूढ़ा। समुझी नहिं हरि गिरा निगूढ़ा।।

गवने तुरत तहाँ रिषिराई। जहाँ स्वयंबर भूमि बनाई।।

निज निज आसन बैठे राजा। बहु बनाव करि सहित समाजा।।

मुनि मन हरष रूप अति मोरें। मोहि तजि आनहि बरिहि न भोरें।।

                                      

मुनि हित कारन कृपानिधाना। दीन्ह कुरूप न जाइ बखाना।।

सो चरित्र लखि काहुँ न पावा। नारद जानि सबहिं सिर नावा।।

दोहा-रहे तहाँ दुइ रूद्र गन ते जानहिं सब भेउ।

बिप्रबेष देखत फिरहिं परम कौतुकी तेउ।।133।।

जेहिं समाज बैठे मुनि जाई। हृदयँ रूप अहमिति अधिकाई।।

तहँ बैठे महंस गन दोऊ। बिप्रबेष गति लखइ न कोऊ।।

करहिं कूटि नारदहि सुनाई। नीकि दीन्हि हरि सुंदरताई।।

रीझिहि राजुकुअँरि छबि देखी। इन्हहि बरिहि हरि जानि बिसेषी।।

मुनिहि मोह मन हाथ पराएँ। हँसहिं संभु गन अति सचु पाएँ।।

जदपि सुनहिं मुनि अटपटि बानी। समुझि न परइ बुद्धि भ्रम सानी।।

काहुँ न लखा सो चरित बिसेषा। सो सरूप नृपकन्याँ देखा।।

मर्कट बदन भयंकर देही। देखत हृदयँ क्रोध भा तेही।।

दोहा- सखीं संग लै कुअँरि तब चलि जनु राजमराल।

देखत फिरइ महीप सब कर सरोज जयमाल।।134।।

जेहि दिसि बैठे नारद फूली। सो दिसि तेहिं न बिलोकी भूली।।

                                      

पुनि पुनि मुनि उकसहिं अकुलाहीं। देखि दसा हर गन मुसुकाहीं।।

धरि नृपतनु तहँ गयउ कृपाला। कुअँरि हरषि मेलेउ जयमाला।।

दुलहिनि लै गे लच्छिनिवासा। नृपसमाज सब भयउ निरासा।।

मुनि अति बिकल मोहँ मति नाठी। मनि गिरि गई छूटि जनु गाँठी।।

तब हर गन बोले मुसुकाई। निज मुखमुकुर बिलोकहु जाई।।

अस कहि  दोउ भागे भयँ भारी। बदन दीख मुनि बारि निहारी।।

बेषु बिलोकि क्रोध अति बाढ़ा। तिन्हहि सराप दीन्ह अति गाढ़ा।।

दोहा- होहु निसाचर जाइ तुम्ह कपटी पापी देउ।

हँसेहु हमहि सो लेहु फल बहुरि हँसेहु मुनि कोउ।।135।।

पुनि जल दीख रुप निज पावा। तदपि हृदयँ संतोष न आवा।।

फरकत अधर कोप मन माहीं। सपदि चले कमलापति पाहीं।।

देहउँ श्राप कि मरिहउँ जाई। जगत मोरि उपहास कराई।।

बीचहिं पंथ मिले दनुजारी। संग रमा सोइ राजकुमारी।।

बोले मधुर बचन सुरसाईं। मुनि कहँ चले बिकल की नाईं।।

सुनत बचन उपजा अति क्रोधा। माया बस न रहा मन बोधा।।

पर संपदा सकहु नहीं देखी। तुम्हरें इरिषा कपट बिसेषी।।

मथत सिंधु रुद्रहि बौरायहु। सुरन्ह प्रेरि बिष पान करायहु।।

दोहा-असुर सुरा बिष संकरहि आपु रमा मनि चारु।

                                      

स्वारथ साधक कुटिल तुम्ह सदा कपट ब्यवहारु।।136।।

परम स्वतंत्र न सिर पर कोई। भावइ मनहि करहु तुम्ह सोई।।

भलेहि मंद मंदेहि भल करहू। बिसमय हरष न हियँ कछु धरहू।।

डहकि डहकि परिचेहु सब काहू। अति असंक मन सदा उछाहू।।

करम सुभासुभ तुम्हहि न बाधा। अभ लागि तुम्हहि न काहूँ साधा।।

भले भवन अब बायन दीन्हा। पावहुगे फल आपन कीन्हा।।

बंचेहु मोहि जवनि धरि देहा। सोइ तनु धरहु श्राप मम एहा।।

कपि आकृति तुम्ह कीन्हि हमारी। करिहहिं कीस सहाय तुम्हारी।।

मम अपकार कीन्ह तुम्ह भारी। नारि बिरहँ तुम्ह होब दुखारी।।

दोहा- श्राप सीस धरि हरषि हियँ प्रभु बहु बिनती कीन्हि।

निज माया कै प्रबलता करषि कृपानिधि लीन्हि।।137।।

जब हरि माया दूरि निवारी। नहिं तहँ रमा न राजकुमारी।।

तब मुनि अति सभीत हरि चरना। गहे पाहि प्रनतारति हरना।।

मृषा होउ मम श्राप कृपाला। मम इच्छा कह दीनदयाला।।

मैं दुर्बचन कहे बहुतेरे। कह मुनि पाप मिटिहिं किमि मेरे।।

जपहु जाइ संकर सत नामा। होइहि हृदयँ तुरत बिश्रामा।।

                                      

कोउ नहिं सिव समान प्रिय मोरें। असि परतीति तजहु जनि भोरें।।

जेहि पर कृपा न करहिं पुरारी। सो न पाव मुनि भगति हमारी।।

अस उर धरि महि बिचरहु जाई। अब न तुम्हहि माय निअराई।।

दोहा-बहुबिधि मुनिहि प्रबोधि प्रभु तब भए अंतरधैन।

सत्यलोक नारदचले करत राम गुन गान।।138।।

हर गन मुनिहि जात पथ देखी। बिगतमोह मन हरष बिसेषी।।

अति सभीत नारद पहिं आए। गहि पद आरत बचन सुनाए।।

हर गन हम न बिप्रमुनिराया। बड़ अफराध कीन्ह फल पाया।।

श्राप अनुग्रह करहु कृपाला। बोले नारद दीनदयाला।।

निसिचर जाइ होहु तुम्ह दोऊ। बैभव बिपुल तेज बल होऊ।।

भुजबल बिस्व जितब तुम्ह जहिआ। धरिहहिं बिष्नु मनुज तनु तहिआ।।

समर मरन हरि हाथ तुम्हारा। होइहहु मुकुत न पुनि संसारा।।

चले जुगल मुनि पद सिर नाई। भए निसाचर कालहि पाई।।

दोहा-एक कलप एहि हेतु प्रभु लीन्ह मनुज अवतार।

सुर रंजन सज्ज्न सुखद हरि भंजन भुबि भार।।139।।

एहि बिधि जनम करम हरि केरे। सुंदर सुखद बिचित्र घनेरे।।

                                      

कलप कलप प्रति प्रभु अवतरहीं। चारु चरित नानाबिधि करहीं।।

तब तब कथा मुनीसन्ह गाई। परम पुनीत प्रबंध बनाई।।

बिबिध प्रसंग अनूप बखाने। करिं न सुनि आचरजु सयाने।।

हरि अनंत हरिकथा अनंता। कहहिं सुनहिं बहुबिधि सब संता।।

रामचंद्र के चरित सुहाए। कलप कोटि लगि जाहिं न गाए।।

यह प्रसंग मैं कहा भवानी। हरिमायाँ मोहहिं मुनि ग्यानी।।

प्रभु कौतुकी प्रनत हितकारी। सेवत सुलभ सकल दुख हारी।।

सोरठा- सुर नर मुनि कोउ नाहिं जेहि न मोह माया प्रबल।

अस बिचारि मन माहिं भजिअ महामाया पतिहि।।140।।

अपर हेतु सुनु सैलकुमारी। कहउँ बिचित्र कथा बिस्तारी।।

जेहि कारन अज अगुन अरूपा। ब्रह्म भयउ कोसलपुर भूपा।।

जो प्रभु बिपिन फिरत तुम्ह देखा। बेधु समेत धरें मुनिबेषा।।

जासु चरित अवलोकि भवानी। सती सरीर रहिहु बौरानी।।

अजहुँ न छाया मिटति तुम्हारी। तासु चरित सुनु भ्रम रुज हारी।।

लीला कीन्हि जो तेहिं अवतारा। सो सब कहिहउँ मति अनुसारा।।

भरद्वाज सुनि संकर बानी। सकुचि सप्रेम उमा मुसुकानी।।

                                      

लगे बहुरि बरनै बृषकेतू। सो अवतार भयउ जेहि हेतू।।

दोहा-सो मैं तुम्ह सन कहउँ सबु सुनु मुनीस मन लाइ।

राम कथा कलि मल हरनि मंगल करनि सुहाइ।।141।।

स्वायंभू मनु अरु सतरूपा। जिन्ह तें बै नरसृष्टि अनूपा।।

दंपति धरम आचरन नीका। अजहुँ गाव श्रुति जिन्ह कै लीका।।

नृप उत्तानपाद सुत तासू। ध्रुव हरि भगत भयउ सुत जासू।।

घु सुत नाम प्रियब्रत ताही। बेद पुरान प्रसंसहिं जाही।।

देवहूति पुनि तासु कुमारी। जो मुनि कर्दम कै प्रिय नारी।।

आदिदेव प्रभु दीनदयाला। जठर धरेउ जेहिं कपिल कृपाला।।

सांख्य सास्त्र जिन्ह प्रगट बखाना। तत्त्व बिचार निपुन भगवाना।।

तेहिं मनु राज कीन्ह बहु काला। प्रभु आयसु सब बिधि प्रतिपाला।।

सोरठा-होइ न बिषय बिराग भवन बसत भा चौथपन।

हृदयँ बहुत दुख लाग जनम गयउ हरिभगति बिनु।।142।।

बरबस राज सुतहि तब दीन्हा। नारि समेत गवन बन कीन्हा।।

तीरथ बर नैमिष बिख्याता। अति पुनीत साधक सिधि दाता।।

बसहिं तहाँ मुनि सिद्ध समाजा। तहँ हियँ हरषि चलेउ मनु राजा।।

                                      

पंथ जात सोहहिं मति धीरा। ग्यान भगति जनु धरें सरीरा।।

पहुँचे जाइ धेनुमति तीरा। हरषि नहाने निरमल नीरा।।

आए मिलन सिद्ध मुनि ग्यानी। धरम धुरंधर नृपरिषि जानी।।

जहँ तहँ तीरथ रहे सुहाए। मुनिन्ह सकल सादर करवाए।।

कृस सरीर मुनिपट परिधाना। सत समाज नित सुनहिं पुराना।।

दोहा-द्वादस अच्छर मंत्र पुनि जपहिं सहित अनुराग।

बासुदेव पद पंकरुह दंपति मन अति लाग।।143।।

करहिं अहार साक फल कंदा। सुमिरहिं ब्रह्म सच्चिदानंदा।

पुनि हरि हेतु करन तप लागे। बारि अधार मूल फल त्यागे।।

उर अभिलाष निरंतर होई। देखिअ नयन परम प्रभु सोई।।

अघुन अखंड अनंत अनादी। जेहि चिंतहिं परमारथबादी।।

नेति नेति जेहि बेद निरूपा। निजानंद निरुपाधि अनूपा।।

संभु बिरंचि बिष्नु भगवाना। उपजहिं जासु अंस तें नाना।।

ऐसेउ प्रभु सेवक बस अहई। भगत हेतु लीलातनु गहई।।

जौं यह बचन सत्य श्रुति भाषा। तौ हमार पूजिहि अभिलाषा।।

दोहा-एहि बिधि बीते बरष षट सहस बारि आहार।

                                      

संबत सप्त सहस्र पुनि रहे समीर अधार।।144।।

बरष सहस दस त्यागेउ सोऊ। ठाढ़े रहे एक पद दोऊ।।

बिधि हरि हर तप देखि अपारा। मनु समीप आए बहु बारा।।

मागहु बर बहु भाँति लोभाए। परम धीर नहिं चलहिं चलाए।।

अस्थिमात्र होइ रहे सरीरा। तदपि मनाग मनहिं नहिं पीरा।।

प्रभु सर्बग्य दास निज जानी। गति अनन्य तापस नृप रानी।।

मागु मागु बरु बै नब बानी। परम गभीर कृपामृत सानी।।

मृतक जिआवनि गिरा सुहाई। श्रवन रंध्र रोइ उर जब आई।।

हृष्टपुष्ट तन भए सुहाए। मानहुँ अबहिं भवन ते आए।।

दोहा-श्रवन सुधा सम बचन सुनि पुलक प्रफुल्लित गात।

बोले मनु करि दंडवत प्रेम न हृदयँ समात।।145।।

सुनि सेवक सुरतरु सुरधेनू। बिधि हरि हर बंदित पद रेनू।।

सेवत सुलभ सकल सुख दायक। प्रनतपाल सचराचर नायक।।

जौं अनाथ हित हम पर नेहू। तौ प्रसन्न होइ यह बर देहू।।

जो सरूप बस सिब मन माहीं। जेहि कारन मुनि जतन कराहीं।।

जो भुसुंडि मन मानस हंसा। सगुन अगुन जेहि निगम प्रसंसा।।

                                      

देखहिं हम सो रूप भरि लोचन। कृपा करहु प्रनतारति मोचन।।

दंपति बचन परम प्रिय लागे। मृदुल बिनीत प्रेम रस पागे।।

भगत बछल प्रभु कृपानिधाना। बिस्वबास प्रगटे भगवाना।।

दोहा- निल सरोरुह नील मनि नील नीरधर स्याम।

लाजहिं तन सोभा निरखि कोटि कोटि सत काम।।146।।

सरद मयंक बदन छबि सींवा। चारु कपोल चिबुक दर ग्रीवा।।

अधर अरुन रद सुंदर नासा। बिधु कर निकर बिनिंदक हासा।।

नव अंबुच अंबक छबि नीकी। चितवनि ललित भावँती जी की।।

भृकुटि मनोज चाप छबि हारी। तिलक ललाट पटल दुतिकारी।।

कुंडल मकर मुकुट सिर भ्राजा। कुटिल केस जनु मधुप समाजा।।

उर श्रीबत्स रुचिर बनमाला। पदिक हार भूषन मनिजाला।।

केहरि कंधर जारु जनेऊ। बाहु बिभूषन सुंदर देऊ।।

करि कर सरिस सुभग भुजदंडा। कटि निषंग कर सर कोदंडा।।

दोहा-तड़ित बिनिंदक पीत पट उदर रेख बर तीनि।

नाभि मनोहर लेति जनु जमुन भवँर छबि छीनी।।147।।

पद राजीव बरनि नहिं जाहीं। मुनि मन मधुप बसहिं जेन्ह माहीं।।

                                      

बाम भाग सोभति अनुकूला। आदिसक्ति छबिनिधि जगमूला।।

जासु अंस उपजहिं गुनखानी। अगनित लच्छि उमा ब्रह्मानी।।

भृकुटि बिलास जासु जग होई। राम बाम दिसि सीता सोई।।

छबिसमुद्र हरि रूप बिलोकी। एकटक रहे नयन पट रोकी।।

चितबहिं सादर रूप अनूपा। तृप्ति न मानहिं मनु सतरूपा।।

हरष बिबस तन दसा भुलानी। परे दंड इव गहि पद पानी।।

सिर परसे प्रभु निज कर कंजा। तुरत उठाए करुनापुंजा।।

दोहा-बोले कृपानिधान पुनि अति प्रसन्न मोहि जानि।

मागहु बर जोइ भाव मन महादानि अनुमानि।।148।।

सुनि प्रभु बचन जोरि जुग पानी। धरि धीरजु बोली मृदु बानी।।

नाथ देखि पद कमल तुम्हारे। अब पूरे सब काम हमारे।।

एक लालसा बड़ि उर माहीं। सुगम अगम कहि जाति सो नाहीं।।

तुम्हहि देत अति सुगम गोसाईं। अगम लाग मोहि निज कृपनाईं।।

जथा दरिद्र बिबुधतरु पाई। बहु संपति मागत सकुचाई।।

तासु प्रभाउ जान नहिं सोई। तथा हृदयँ मम संसय होई।।

सो तुम्ह जानहु अंतरजामी। पुरवहु मोर अनोरथ स्वामी।।

                                      

सकुच बिहाइ मागु नृप मोही। मोरें नहिं अदेय कछु तोही।।

दोहा-दानि सिरोमनि कृपानिधि नाथ कहउँ सतिभाउ।

चाहउँ तुम्हहि समान सुत प्रभु सन कवन दुराउ।।149।।

देखि प्रति सुनि बचन अमोले। एवमस्तु करुनानिधि बोले।।

आपु सरिस खोजौं कहँ जाई। नृप तव तनय होव मैं आई।।

सतरूपहि बिलोकि कर जोरें। देबि मागु बरु जो रूचि तोरें।।

जो बरु नाथ चतुर नृप मागा। सोइ कृपाल मोहि अति प्रिय लागा।।

प्रभु परंतु सुठि होति ढिठाई। जदपि भगत हित तुम्हहि सोहाई।।

तुम्ह ब्रह्मादि जनक जग स्वामी। ब्रह्म सकल उर अंतरजामी।।

अस समुजत मन संसय होई। कहा जो प्रभु प्रवान पुनि सोई।।

जे निज भगत नाथ तब अहहीं। जो सुख पावहिं जो गति लहहीं।।

दोहा-सोइ सुख सोइ गति सोइ भगति सोइ निज चरन सनेहु।

सोइ बिबेक सोइ रहनि प्रभु हमहि कृपा करि देहु।।150।।

सुनि मृदु गूढ़ रुचिर बर रचना। कृपासिंधु बोले मृदु बचना।।

जो कछु रुचि तुम्हरे मन माहीं। मैं सो दीन्ह सब संसय नाहीं।।

मातु बिबेक अलौकिक तोरें। कबहुँ न मिटिहि अनुग्रह मोरें।।

                                      

बंदि चरन मनु कहेउ बहोरी। अवर एक बिनती प्रभु मोरी।।

सुत बिषइक तब पद रति होऊ। मोहि बड़ मूढ़ कहै किन कोऊ।।

मनि बिनु फनि जिमि जल बिनु मीना। मम मजीवन तिमि तुम्हहि अधीना।।

अस बरु मागि चरन गहि रहेऊ। एवमस्तु करुनानिधि कहेऊ।।

अब तुम्ह मम अनुसासन मानी। बसहु जाइ सुरपति रजधानी।।

सोरठा-तहँ करि भोग बिसाल तात गएँ कछु काल पुनि।

होइहहु अवध भुआल त मैं होब तुम्हार सुत।।151।।

इच्छामय नरबेष सँबारें। होइहउँ प्रगट निकेत तुम्हारें।।

अंसन्ह सहित देह धरि ताता। करिहउँ चरित भगत सुखदाता।।

जे सुनि सादर नर बड़भागी। भव तरिहहिं ममता मद त्यागी।।

आदिसक्ति जेहिं जग उपजाया। सोउ अवतरिहि मोरि यह माया।।

पुरउब मैं अभिलाष तुम्हारा। सत्य सत्य पन तस्य हमारा।।

पुनि पुनि अस कहि कृपानिधाना। अंतरधान भए भगवाना।।

दंपति उर धरि भगत कृपाला। तेहिं आश्रम निवसे कछु काला।।

समय पाइ तनु तजि अनयासा। जाइ कीन्ह अमरावति बासा।।

                                      

दोहा-यह इतिहास पुनीत अति उमहि कही बृषकेतु।

भरद्वाज सुनु अपर पुनि राम जनम कर हेतु।।152।।

सुनु मुनि कथा पुनीत पुरानी। जो गिरिजा प्रति संभु बखानी।।

बिस्व बिदित एक कैकय देसू। सत्यकेतु तहँ बसइ नरेसू।।

धरम धुरंधर नीति निधाना। तेज प्रताप सील बलवाना।।

तेहि कें भए जुगल सुत बीरा। सब गुन धाम महा रनधीरा।।

राज धना जो जेठ सुत आही। नाम प्रतापभानु अस ताही।।

अपर सुतहि अरिमर्दन नामा। भुजबल अतुल अचल संग्रामा।।

भाइहि भाइहि परम समीती। सकल दोष छल बरजित प्रीती।।

जेठे सुतहि राज नृप दीन्हा। हरि हित आपु गवन बन कीन्हा।।

दोहा-जब प्रतापरबि भयउ नृप फिरी दोहाई देस।

प्रजा पाल अति बेदबिधि कतहुँ नहीं अघ लेस।।153।।

नृप हितकारक सचिव सयाना। नाम धरमरुचि सुक्र समाना।।

सचिव सयान बंधु बलबीरा। आपु प्रतापपुंज रनधीरा।।

सेन संग चतुरंग अपारा। अमित सुभट सब समर जुझारा।।

सेन बिलोकि राउ हरषान।. अरु बाजे गहगहे निसाना।।

                                      

बिजय हेतु कटकई बनाई। सुदिन साधि नृप चलेउ बजाई।।

जहँ तहँ परीं अनेक लराईं। जीते सकल भूप बरिआईं।।

सप्त दीप भुजबल बस कीन्हे। लै लै दंड छाड़ि नृप दीन्हे।।

सकल अवनि मंडल तेहि काला। एक प्रतापभानु महिपाला।।

दोहा-स्वबस बिस्व करि बाहुबल निज पुर कीन्ह प्रबेसु।

अरथ धरम कामादि सुख सेवइ समयँ नरेसु।।154।।

भूप प्रतापभानु बल पाई। कामधेनु भै भूमि सुहाई।।

सब दुख बरजित प्रजा सुखारी। धरमसील सुंदर नर नारी।।

सचिव धरमरूचि हरि पद प्रीती। नृप हित हेतु सिखव नित नीती।।

गुर सुर संत पितर महिदेवा। करइ सदा नृप सब कै सेवा।।

भूप धरम जे बेद बखाने। सकल करइ सादर सुख माने।।

दिन प्रति देह बिबिध बिधि दाना। सुनइ सास्त्र बर बेद पुराना।।

नाना बापीं कूप तड़ागा। सुमन बाटिका सुंदर बागा।।

बिप्रभवन सुरभवन सुहाए। सब तीरथन्ह बिचित्र बनाए।।

दोहा-जहँ लगि कहे पुरान श्रुति एक एक सब जाग।

बार सहस्र सहस्र नप किए सहित अनुराग।।155।।

                                      

हृदयँ न कछु फल अनुसंधाना। भु बिबेकी परम सुजाना।।

करइ जे धरम करम मन भानी। बासुदेव अर्पित नृप ग्यानी।।

चढ़ि बर बाजि बार एक राजा। मृगया कर सब साजि समाजा।।

बिंध्याचल गभीर बन गयऊ। मृग पुनीत बहु मारत भयऊ।

फिरत बिपिन नृप दीख बराहू। जनु बन दुरेउ ससिहि ग्रसि राहू।।

बड़ बिधु नहि समात मुख माहीं। मनहुँ क्रोध बस उगिलत नाहीं।।

कोल कराल दसन छबि गाई। तनु बिसाल पीवर अधिकाई।।

घुरुघुरात हय आरौ पाएँ। चकित बिलोकत कान उठाएँ।।

दोहा-नील महीधर सिखर सम देखि बिसाल बराहु।

चपरि चलेउ हय सुटुकि नृप हाँकि न होइ निबाहु।।156।।

आवत देखि अधिक रब वाजी। चलेउ बराह मरुत गति भाजी।।

तुरत कीन्ह नृप सर संधाना। महि मिलि गयउ बिलोकत बानी।।

तकि तकि तीर महीस चलावा। करि छल सुअऱ सरीर बचावा।।

प्रघटत दुरत जाइ मृग भागा। रिस बस भूप चलेउ सँग लागा।।

गयउ दूरि घन गहन बराहू। जहँ नाहिन गज बाजि निबाहू।।

अति अकेल बन बिपुल कलेसू। तदपि न मृग मग तजइ नरेसू।।

                                      

कोल बिलोकि भूप बड़ धीरा। भागि पैठ गिरिगुहाँ गभीरा।।

अगम देखि नृप अति पछिताई। फिरेउ महाबन परेउ भुलाई।।
दोहा-खेद खिन्न छिद्धित तृषित राजा बाजि समेत।

खोजत ब्याकुल सरित सर जल बिनु भयउ अचेत।।157।।

फिरत बिपिन आश्रम एक देखा। तहँ बस नृपति कपट मुनिबेषा।।

जासु देस नृप लीन्ह छड़ाई। समर सेन तजि गयउ पराई।।

समय प्रतापभानु  कर जानी। आपन अति असमय अनुमानी।।

गयउ न गृह मन बहुत गलानी। मिला न राजहि नृप अभिमानी।।

रिस उर मारि रंक जिमि राजा। बिपिन बसइ तापस कें साजा।।

तासु समीप गवन नृप कीन्हा। यह प्रतापरबि तेहिं तब चीन्हा।।

राउ तृषित नहिं सो पहिचानी। देखि सुबेष महामुनि जाना।।

उतरि तुरग तें कीन्ह प्रनामा। परम चतुर न कहेउ निज नामा।।

दोहा-भूपति तृषित बिलोकि तेहिं सरबरु दीन्ह देखाइ।

मज्जन पान समेत हय कीन्ह नृपति हरषाइ।।158।।

गै श्रम सकल सुखी नृप भयऊ। निज आश्रम तापस लै गयऊ।।

आसन दीन्ह अस्त रबि जानी। पुनि तापस बोलेउ मृदु बानी।।

                                      

को तुम्ह कस बन फिरहु अकेलें। सुंदर जुबा जीव परहेलें।।

चक्रबर्ति के लच्छन तोरें। देखत दया लागि अति मोरें।।

नाम प्रतापभानु अवनीसा। तासु सचिव मैं सुनहु मुनीसा।।

फिरत अहेरें परेउँ भुलाई। बड़ें भाग देखेउँ पद आई।।

हम कहँ दुरलभ दरस तुम्हारा। जानत हौं कछु भल होनिहारा।।

कह मुनि तात भयउ अँधिआरा। जोजन सत्तरि नगरु तुम्हारा।।

दोहा-निसा घोर गंभीर बन पंथ न सुनहु सुजान।

बसहु आजु अस जानि तुम्ह जाएहु होत बिहान।।159क।।

तुलसी जसि भवतब्यता तैसी मिलइ सहाइ।

आपुनु आवइ ताहि पहिं ताहि तहाँ लै जाइ।।159ख।।

भलेहिं नात आयसु धरि सीसा। बाँधि तुरग तरु बैठ महीसा।।

नृप बहु भाँति प्रसंसेउ ताही। चरन बंदि निज भाग्य सराही।।

पुनि बोलेउ मृदु गिरा सुहाई। जानि पिता प्रभु करउँ ढिठाई।।

मोहि मुनीस सुत सेवक जानी। नाथ नाम निज कहहु बखानी।।

तेहि न जान नृप नपहि सो जाना। भूप सुहृद सो कपट सयाना।।

बैरी पुनि छत्री पुनि राजा। छल बल कीन्ह चहइ निज काजा।।

                                      

समुझि राजसुख दुखित अराती। अवाँ अनल इव सुलगइ छाती।।

सरल बचन नृप के सुनि कानी। बयर सँभारि हृदयँ हरषाना।।

दोहा-कपट बोरि बानी मृदुल बोलेउ जुगुति समेत।

नाम हमार भिखारि अब निर्धन रहित निकेत।।160।।

कह नृप जे बिग्यान निधाना। तुम्ह सारिखे गलित अभिमाना।।

सदा रहहिं अपनपौ दुराएँ। सब बिधि कुसल कुबेष बनाएँ।।

तेहि तें कहहिं संत श्रुति टेरें। परम अकिंचन प्रिय हरि केरें।।

तुम्ह सम  अधन भिखारि अगेहा। होत बिरंचि सिवहि संदेहा।।

जोसि सोसि तव चरन नमामी। मो पर कृपा करिअ अब स्वामी।।

सहज प्रीति भूपति कै देखी। आपु बिषय बिस्वास बिसेषी।।

सब प्रकार राजहि अपनाई। बोलेउ अधिक सनेह जनाई।।

सुनु सतिभाउ कहउँ महिपाला। इहाँ बसत बीते बहु काला।।

दोहा-अब लगि मोहि न मिलेउ कोउ मैं न जनावउँ काहु।

लोकमान्यता अनल सम कर तप कानन दाहु।।161क।।

सोरठा-तुलसी देख सुबेषु भूलहिं मूढ़ न चतुर नर।

सुंदर केकिहि पेखु बचन सुधा सम असन अहि।।161ख।।

                                      

तातें गुपुत रहउँ जग माहीं। हरि तजि किमपि प्रयोजन नाहीं।।

प्रभुजानत सब बिनहिं जनाएँ। कहहु कवनि सिधि लोक रिझाएँ।।

तुम्ह सुचि सुमति परम प्रिय मोरें। प्रीति प्रतीति मोहि पर तोरें।।

अब जौं तात दुरावउँ तोही। दारुन दोष घटइ अति मोही।।

जिमि जिमि तापसु कथइ उदासा। तिमि तिमि नृपहि उपज बिस्वासा।।

देखा स्वबस कर्म मन बानी। तब बोला तापस बगध्यानी।।

नाम हमार एकतनु भाई। सुनि नृप बोलेउ पुनि सिरु नाई।।

कहहु नाम कर अरथ बखानी। मोहि सेवक अति आपन जानी।।

दोहा-आदिसृष्टि उपजी जपहिं तब उतपति भै मोरि।

नाम एकतनु हेतु तेहि देह न धरी बहोरि।।162।।

जानि आचरजु करहु मन माहीं। सुत तब तें दुरलभ कछु नाहीं।।

तपबल तें जग सृजइ बिधाता। तपबल बिष्नु भए परित्राता।

तपबल संभु करहिं संघारा। तप तें अगम न कछु संसारा।।

भयउ नृपहि सुनि अति अनुरागा। कथा पुरातन कहै सो लागा।।

करम धरम इतिहास अनेका। करइ निरूपन बिरति बिबेका।।

उदभव पालन प्रलय कहानी। कहेसि अमित आचरज बखानी।।

                                      

सुनि महीप तापस बस भयऊ। आपन नाम कहन तब लयऊ।।

कह तापस नृप जानउँ तोही। कीन्हेहु कपट लाग भल मोही।।

सोरठा - सुनि महीस असि नीति जहँ तहँ नाम न कहहिं नृप।

मोहि तोहि पर अति प्रीति सोइ चतुरता बिचारि तव।।163।।

नाम तुम्हार प्रताप दिनेसा। सत्यकेतु तव पिता नरेसा।।

गुर प्रसाद सब जानिअ राजा। कहिअ न आपन जानि अकाजा।।

देखि तात तव सहज सुधाई। प्रीति प्रतीति नीति निपुनीई।।

उपजि परी ममता नव मोरें। कहउँ कथा निज पूछे तोरें।।

अब प्रसन्न मैं संसय नाहीं। मागु जो भूप भाव मन माहीं।।

सुनि सुबचन भूपति हरषाना। गहि पद बिनय कीन्हि बिधि नाना।।

कृपासिंधु मुनि दरसन तोरें। चारि पदारथ करतल मोरें।।

प्रभुहि तथापि प्रसन्न बिलोकी। मागि अगम बर होउँ असोकी।।

दोहा-जरा मरन दुख रहित तनु समर जितै जनि कोउ।

एकछत्र रिपुहीन महि राज कलप सत होउ।।164।।

कह तापस नृप ऐसेइ होऊ। कारन एक कठिन सुनि सोऊ।।

कालउ तुअ पद नाइहि सीसा। एक बिप्रकुल छाड़ि महिसा।।

                                      

तपबल बिप्र सदा बरिआरा। तिन्ह के कोप न कोउ रखवारा।।

जौं बिप्रन्ह बस करहु नरेसा। तौ तुअ बस बिधि बिष्नु महेसा।।

चल न ब्रह्मकुल सन बरिआई। सत्य कहउँ दोउ भुजा उठाई।।

बिप्र श्राप बिनु सुनु महिपाला। तोर नास नहिं कवनेहुँ काला।।

हरषेउ राउ बचन सुनि तासू। नाथ न होइ मोर अव नासू।।

तब प्रसाद प्रभु कृपानिधाना। मो कहुँ सर्ब काल कल्याना।।

दोहा-एवमस्तु कहि कपटमुनि बोला कुटिल बहोरि।

मिलब हमार भुलाब निज कहहु त हमहि न खोरि।।165।।

तातें मैं तोहि बरजउँ राजा। कहें कथा तब परम अकाजा।।

छठें श्रवन यह परत कहानी। नास तुम्हार सत्य मम बानी।।

यह प्रगटें अथवा द्विजश्रापा। नास तोर सुनु भानुप्रतापा।।

आन उपायँ निधन तब नाहीं। जौं हरि हर कोपहिं मन माहीं।।

सत्य नाथ पद गहि नृप भाषा। द्विज गुर कोप कहहु को राखा।।

राखइ गुर जौं कोप बिधाता। गुर बिरोध नहिं कोउ जग त्राता।।

जौं न चलब हम कहे तुम्हारें। होउ नास नहिं सोच हमारें।।

एकहिं डर डरपत मन मोरा। प्रभु महिदेव श्राप अति घोरा।।

                                      

दोहा-होहिं बिप्र बस कवन बिधि कहहु कृपा करि सोउ।

तुम्ह तजि दीनदयाल निज हितू न देखउँ कोउ।।166।।

सुनु नृप बिबिध जतन जग माहीं। कष्टसाध्य पुनि होहिं कि नाहीं।।

अहइ एक अति सुगम उपाई। तहँ परंतु एक कठिनाई।।

मम आधीन जुगुति नृप सोई। मोर जाब तब नगर न होई।।

आजु लगें अरु जब तें भयऊँ। काहू के गृह ग्राम न गयऊँ।।

जौं न जाउँ तब होइ अकाजू। बना आई असमंजस आजू।।

सुनि महीस बोलेउ मृदु बानी। नाथ निगम असि नीति बखानी।।

बड़े सनेह लघुन्ह पर करहीं। गिरि निज सिरनि सदा तृन धरहीं।।

जलधि अगाध मौलि बह फेनू। संतत धरनि धरत सिर रेनू।।

दोहा-अस कहि गहे नरेस पद स्वामी होहु कृपाल।

मोहि लागि दुख सहिअ प्रभु सज्जन दीनदयाल।।167।।

जानि नृपहि आपन आधीना। बोला तापस कपट प्रबीना।।

सत्य कहउँ भूपति सुनु तोहि। जग नाहिन दुर्लभ कछु मोही।।

अवसि काज मैं करिहउँ तोरा। मन तन बचन भगत तैं मोरा।।

जोग जुगुति तप मंत्र प्रभाऊ। फलइ तबहिं जब करिअ दुराऊ।।

                                      

जौं नरेस मैं करौं रसोई। तुम्ह परुसहु मोहि जान न कोई।।

अन्न सो जोइ जोइ भोजन करई। सोइ सोइ तव आयसु अनुसरई।।

पुनि तिन्ह के गृह जेवँइ जोऊ। तव बस होइ भूप सुनु सोऊ।।

जाइ उपाय रचहु नृप एहू। संबत भरि संकलप करेहू।।

दोहा-नित नूतन द्विज सहस सत बरेहु सहित परिवार।

मैं तुम्हरे संकलप लगि दिनहिं करबि जेवनार।।168।।

एहि बिधि भूप कष्ट अति थोरें। होइहहिं सकल बिप्र बस तोरें।।

करिहहिं बिप्र होम मख सेवा। तेहिं प्रसंग सहजेहिं बस देवा।।

और एक तोहि कहउँ लखाऊ। मैं एहिं बेष न आउब काऊ।।

तुम्हरे उपरोहित कहुँ राया। हरि आनब मैं करि निज माया।।

तपबल तेहि करि आपु समाना। रखिहउँ इहाँ बरष परवाना।।

मैं धरि तासु बेषु सुनु राजा। सब बिधि तोर सँवारब काजा।।

गै निसि बहुत सयन अब कीजे। मोहि तोहि भूप भेंट दिनतीजे।।

मैं तपबल तोहि तुरग समेता। पहुँचैहउँ सोवतहि निकेता।।

दोहा-मैं आउब सोइ बेषु धरि पहिचानेहु तब मोहि।

जब एकांत बोलाइ सब कथा सुनावौं तोहि।।169।।

सयन कीन्ह नृप आयसु मानी। आसन जाइ बैठ छलग्यानी।।

                                      

श्रमित भूप निद्रा अति आई। सो किमि सोव सोच अधिकाई।।

कालकेतु निसिचर तहँ आवा। जेहिं सूकर होइ नृपहि भुलावा।।

परम मित्र तापस नृप केरा। जानइ सो अति कपट घनेरा।।

तेहि के सत सुत अरु दस भाई। खल अथि अजय देव दुखदाई।।

प्रथमहिं भूप समर सब मारे। बिप्र संत सुर देखि दुखारे।।

तेहिं खल पाछिल बयरु सँभारा। तापस नृप मिलि मंत्र बिचारा।।

जेहिं रिपु छय सोइ रचेन्हि उपाऊ। भावी बस न जान कछु राऊ।।

दोहा-रिपु तेजसी अकेल अपि लघु करि गनिअ न ताहु।

अजहुँ देत दुख रबि ससिह सिर अवसेषित राहु।।170।।

तापस नृप निज सखहि निहारी। हरषि मिलेउ उठि भयउ सुखारी।।

मित्रहि कहि सब कथा सुनाई। जातुधान बोला सुख पाई।।

अब साधेउँ रिपु सुनहु नरेसा। जौं तुम्ह कीन्ह मोर उपदेसा।

परिहरि सोच रहहु तुम्ह सोई। बिनु औषध बिआधि बिधि खोई।।

कुल समेत रिपु मूल बहाई। चौथें दिवस मिलब मैं आई।।

तापस नृपहि बहुत परितोषी। चला महाकपटी अतिरोषी।।

भानुप्रतापहि बाजि समेता। पहुचाएसि छन माझ निकेता।।

                                      

नृपहि नारि पहिं सयन कराई। हयगृहँ बाँधेसि बाजि बनाई।।

दोहा-राजा के उपरोहितहि हरि लै गयउ बहोरि।

लै राखेसि गिरि खोह महुँ मायाँ करि मति भोरि।।171।।

आपु बिरचि उपरोहित रूपा। परेउ जाइ तेहि सेज अनूपा।।

जागेउ नृप अनभएँ बिहाना। देखि भवन अति अचरजु माना।।

मुनि महिमा मन महुँ अनुमानी। उठेउ गवँहि जेहिं जान न रानी।।

कानन गयउ बाजि चढ़ि तेहिं। पुर नर नारि न जानेउ केहिं।।

गएँ जाम जुग भूपति आवा। घर घर उत्सव बाज बधावा।।

उपरोहितहि देख जब राजा। चकित बिलोक सुमिरि सोइ काजा।।

जुग सम नृपहि गए दिन तीना। कपटी मुनि पद रह मति लीनी।।

समय जानि उपरोहित आवा। नृपहि मते सब कहि समुझावा।।

दोहा-नृप हरषेउ पहिचानि गुरु भ्रम बस रहा न चेत।

बरे तुरत सत सहस बर बिप्र कुटुंब समेत।।172।।

उपरोहित जेवनार बनाई। छरस चारि बिधि जसि श्रुति गाई।।

मायामय तेहिं कीन्हि रसोई। बिंजन बहु गनि सकइ न कोई।।

बिबिध मृगन्ह कर आमिष राँधा। तेहि महुँ बिप्र माँसु खल साँधा।।

                                      

भोजन कहुँ सब बिप्र बोलाए। पद पखारि सादर बैठाए।।

परिसन जबहिं लाग महिपाल। भै अकासबानी तेहि काला.।

बिप्रबृंद उठि उठि गृह जाहू। है बड़ि हानि अन्न जनि खाहू।।

भयउ रसोईं भूसर माँसू। सब द्विज उठे मानि बिस्वासू।।

भूप बिकल मति मोहँ भूलानी। भावी बस न आव मुख बानी।।

दोहा-बोले बिप्र सकोप तब नहिं कछु कीन्ह बिचार।

जाइ निसाचर होहु नृप मूढ़ सहित परिवार।।173।।

छत्रबंधु तैं बिप्र बोलाई। घालै लिए सहित समुदाई।।

ईस्वर राखा धरम हमारा। जैहसि तैं समेत परिवारा।।

संबत मध्य नास तव होउ। जलदाता न रहिहि कुल कोऊ।।

नृप सुनि श्राप बिकल अति त्रासा। भै बहोरि बर गिरा अकासा।।

बिप्रहु श्राप बिचारि न दीन्हा। नहिं अपराध भूप कछु कीन्हा।।

चकित बिप्र सब सुनि नभवानी। भूप गयउ जहँ भोजन खानी।।

तहँ न आसन नहिं बिप्र सुआरा। फिरेउ राउ मन सोच अपारा।।

सब प्रसंग महिसुरन्ह सुनाई। त्रसित परेउ अवनीं अकुलाई।।

दोहा-भूपति भावी मिटइ नहिं जदपि न दूषन तोर।

किएँ अन्यथा होइ नहिं बिप्रश्राप अति घोर।।174।।

अस कहि सब महिदेव सिधाए। समाचार पुरलोगन्ह पाए।।

                                      

सोचहिं दूषन दैवहि देहीं। बिरचत हंस काग किय जेहीं।।

उपरोहितहि भवन पहुँचाई। असुर तापसहि खबरि जनाई।।

तेहिं खल जहँ तहँ पत्र पठाए। सजि सजि सेन भूप सब धाए।।

घेरेन्हि नगर निसान बजाई। बिबिध भाँति नित होइ लराई।।

जूझे सकल सुभट करि करनी। बंधु समेत परेउ नृप धरनी।।

सत्यकेतु कुल कोउ नहि बाँचा। बिप्रश्राप किमि होइ असाँचा।।

रिपु जिति सब नृप नगर बसाई। निज पुर गवने जय जसु पाई।।

दोहा-भरद्वाज सुनि जाहि जब होइ बिधाता बाम।

धूरि मेरुसम जनक जम ताहि ब्यालसम दाम।।175।।

काल पाइ मुनि सुनि सोइ राजा। भयउ निसाचर सहित समाजा।।

दस सिर ताहि बीस भुजदंडा। रावन नाम बीर बरिबंडा।।

भूप अनुज अरिमर्दन नामा। भयउ सो कुंभकरन बलधामा।।

सचिव जो रहा धरम रुचि जासू। भयउ बिमात्र बंधु लघु तासू।।

नाम बिभिषन जेहि जग जाना। बिष्नुभगत बिग्यान निधाना।।

रहे जे सुत सेवक नृप केरे। भए निसाचर घोर घनेरे।।

                                      

कामरूप खल जिनस अनेका। कुटिल भयंकर बिगत बिबेका।।

कृपा रहित हिंसक सब पापी। बरनि न जाहिं बिस्व परितापी।।

दोहा-उपजे जदपि पुलस्त्यकुल पावन अमल अनूप।

तदपि महीसुर श्राप बस भए सकल अघरूप।।176।।

कीन्ह बिबिध तब तीनिहुँ भाई। परम उग्र नहिं बरनि सो जाई।।

गयउ निकट तप देखि बिधाता। मागहु बर प्रसन्न मैं ताता।।

करि बिनती पद गहि दससीसा। बोलेउ बचन सुनहु जगदीसा।।

हम काहू के मरहिं न मारें। बानर मनुज जाति दुइ बारें।।

एवमस्तु तुम्ह बड़ तप कीन्हा। मैं ब्रह्माँ मिलि तेहि बर दीन्हा।।

पुनि प्रभु कुंभकरन पहिं गयऊ। तेहि बिलोकि मन बिसमय भयऊ।।

जौं एहिं खल नित करब अहारू। होइहि सब उजारि संसारू।।

सारद प्रेरि तासु मति फेरी। मागेसि नीद मास षट केरी।।

दोहा-गए बिभिषन पास मुनि कहेउ पुत्र बर मागु।

तेहिं मागेउ भगवतं पद कमल अमल अनुरागु।।177।।

तिन्हहि देइ बर ब्रह्म सिधाए। हरषित ते अपने गृह आए।।

मय तनुजा मंदोदरि नामा। परम सुंदरी नारि ललामा।।

                                      

सोइ मयँ दीन्हि रावनहि आनी। होइहि जातुधानपति जानी।।

हरषित भयउ नारि भलि पाई। पुनि दोउ बंधु बिआहेसि जाई।।

गिरि त्रिकूट एक सिंधु मझारी। बिधि निर्मित दुर्गम अति भारी।।

सोइ मय दानवँ बहुरि सँवारा। कनक रचित मनिभवन अपारा।।

भोगावति जसि अहिकुल बासा। अमरावति जसि सक्रनिवासा।।

तिन्ह तें अधिक रम्य अति बंका। जग बिख्यात नाम तेहि लंका।।

दोहा-खाईं सिंधु गभीर अति चारिहुँ दिसि फरि आव।

कनक कोट मनि खचित दृढ़ बरनि न जाइ बनाव।।178क।।

हरि प्रेरित जेहिं कलप जोइ जातुधानपति होइ।

सूर प्रतापी अतुलबल दल समेत बस सोइ।।178ख।।

रहे तहाँ निसिचर भट भारे। ते सब सुरन्ह समर संघारे।।

अब तहँ रहहिं सक्र के प्रेरे। रच्छक कोटि जच्छपति केरे।।

दसमुख कतहुँ खबरि असि पाई। सेन साजि गढ़ घेरेसि जाई।।

देखि बिकट भट बड़ि कटकाई। जच्छ जीव लै गए पराई।।

फिरि सब नगर दसानन देखा। गयउ सोच सुख भयउ बिसेषा।।

सुंदर सहज अगम अनुमानी। कीन्हि तहाँ रावन रजधानी।।

                                      

जेहि जस जोग बाँटि गृह दीन्हे। सुखी सकल रजनीचर कीन्हे।।

एक बार कुबेर पर धावा। पुष्पक जान जीति लै आवा।।

दोहा-कौतुकहिं कैलास पुनि लीन्हेसि जाइ उठाइ।

मनहुँ तौलि निज बाहुबल चला बहुत सुख पाइ।।179।।

सुख संपति सुत सेन सहाई। जय प्रताप बल बुद्धि बड़ाई।।

नित नूतन सब बाढ़त जाई। जिमि प्रतिलाभ लोभ अधिकाई।।

अतिबल कुंभकरन अस भ्राता। जेहि कहुँ नहिं प्रतिभट जग जाता।।

करइ पान सोवइ षट मासा। जागत होइ तिहूँ पुर त्रासा।।

जौं दिन प्रति अहार कर सोई। बिस्व बेगि सब जौपट होई।।

समर धीर नहिं जाइ बखाना। तेहि सम अमित बीर बलवाना।।

बारिदनाद जेठ सुत तासू। भट महुँ प्रथम लीक जग जासू।।

जेहि न होइ रन सनमुख कोई। सुरपुर नितहिं परावन होई।।

दोहा-कुमुख अकंपन कुलिसरद धूमकेतु अतिकाय।

एक एक जग जीति सक ऐसे सुभट निकाय।।180।।

कामरूप जानहिं सब माया। सपनेहुँ जिन्ह कें धरम न दाया।।

दसमुख बैठ सभाँ एक बारा। देख अमित आपन पिरवारा।।

सुत समूह जन परिजन नाती। गनै को पार निसाचर जाती।।

                                      

सेन बिलोकि सहज अभिमानी। बोला बचन क्रोध मद सानी।।

सुनहु सकल रजनीचर जूथा। हमरे बैरी बिबुध बरूथा।।

ते सनमुख नहिं करहिं लराई। देखि सबल रिपु जाहिं पराई।।

तेन्ह कर मरन एक बिधि होई। कहउँ बुझाइ सुनहु अब सोई।।

द्विजभोजन मख होम सराधा। सब कै जाइ करहु तुम्ह बाधा।।

दोहा-छुधा छीन बलहीन सुर सहजेहिं मिलिहहिं आइ।

तब मारिहउँ कि छाड़िहउँ भली भाँति अपनाइ।।181।।

मेघनाद कहुँ पुनि हँकरावा। दीन्ही सिख बलु बयरु बढ़ावा।।

जे सुर समर धीर बलवाना। जिन्ह कें लरिबे कर अभिमाना।।

तिन्हहि जीति रन आनेसु बाँधी। उठि सुत पितु अनुसासन काँधी।।

एहि बिधि सबही अगया दीन्ही। आपुनु चलेउ गदा कर लीन्ही।।

चलत दसानन डोलति अवनी। गर्जत गर्भ स्रवहिं सुर रवनी।।

रावन आवत सुनेउ सकोहा। देवन्ह तके मेरु गिरि खोहा।।

दिगपालन्ह के लोक सुहाए। सूने सकल दसानन पाए।।

पुनि पुनि सिंघनाद करि भारी। देइ देवतन्ह गारि पचारी।।

रन मद मत्त फिरइ जग धावा। प्रतिभट खोजत कतहुँ न पावा।।

                                      

रबि ससि पवन बरुन धनधारी। अगिनि काल जम सब अधिकारी।।

किंनर सिद्ध मनुज सुर नागा। हठि सबही के पंथहिं लागा।।

ब्रह्मसृष्टि जहँ लगि तनुधारी। दसमुख बसबर्ती नर नारी।।

आयसु करहिं सकल भयभीता। नवहिं आइ नित चरन बिनीता।।

दोहा-भुजबल बिस्व बस्य करि राखेसि कोउ न सुतंत्र।

मंडलीक मनि रावन राज करइ निज मंत्र।।182क।।

देव जच्छ गंधर्ब नर किंनर नाग कुमारि।

जीति बरीं निज बाहुबल बहु सुंदर बर नारि।।182ख।।

इंद्रजीत सन जो कछु कहेऊ। सो सब जनु पहिलेहिं करि रहेऊ।।

प्रथमहिं जिन्ह कहुँ आयसु दीन्हा। तिन्ह कर चरित सुनहु जो कीन्हा।।

देखत भीमरूप सब पापी। निसिचर निकर देव परितापी।।

करहिं उपद्रव असुर निकाया। नाना रूप धरहिं करि माया।।

जेहि बिधि होइ धर्म निर्मूला। सो सब करहिं बेद प्रतिकूला।।

जेहिं जेहिं देस धनु द्विज पावहिं। नगर गाउँ पुर आगि लगावहिं।।

सुभ आचरन कतहुँ नहिं होई। देव बिप्र गुरु मान न कोई।।

नहिं हरिभगति जग्य तप ग्याना। सपनेहूँ सुनिअ न बेद पुराना।।

                                      

छन्द-जप जोग बिरागा तप मख भागा श्रवन सुनइ दससीसा।

आपुनु उठि धावइ रहै न पावइ धरि सब घालइ खीला।।

अस भ्रष्ट अचारा भा संसारा धर्म सुनिअ नहिं काना।।

तेहि बहुबिधि त्रासइ देस निकासइ जो कह बेद पुराना।।

सोरठा-बरनि न जाइ अनीति घोर निसाचर जो करहिं।।

हिंसा पर अथि प्रीति तिन्ह के पापहि कवनि मिति।।183।।

बाढ़े खल बहु चोर जुआरा। जे लंपट परधन परदारा।।

मानहिं मातु पिता नहिं देवा। साधुन्ह सन करवावहिं सेवा।।

जिन्ह के यह आचरन भवानी। ते जानेहु निसिचर सब प्रानी।।

अतिसय देखि धर्म कै ग्लानी। परम सभीत धरा अकुलानी।।

गिरि सरि सिंधु भार नहिं मोही। जस मोहि गरुअ एक परद्रोही।।

सकल धर्म देखइ बिपरीता। कहि न सकइ रावन भय भीता।।

धेनु रूप धरि हृदयँ बिचारी। गई तहाँ जहँ सुर मुनि झारी।।

निज संताप सुनाएसि रोई। कारू तें कचु काज न होई।।
छन्द-सुर मुनि गंधर्बा मिलि करि सर्बा गे बिरंचि के लोगा।

सँग गोतनुधारी भूमि बिचारी परम बिकल भय सोका।।

                                      

ब्रह्मा सब जाना मन अनुमाना मोर कछू न बसाई।

जा करि तैं दासी सो अबिनासी हमरेउ तोर सहाई।।

सोरठा-धरनि धरहि मन धीर कह बिरंचि हरिपद सुमिरू।

जानत जन की पीर प्रभु भंजिहि दारुन बिपति।।184।।

बैठे सुर सब करहिं बिचारा। कहँ पाइअ प्रभु करिअ पुकारा।।

पुर बैकुंठ जान कह कोई। कोउ कह पयनिधि बस प्रभु सोई।।

जाके हृदयँ भगति जसि प्रीती। प्रभु तहँ प्रगट सदा तेहिं रीती।।

तेहिं समाज गिरिजा मैं रहेऊँ। अवसर पाइ बचन एक कहेऊँ।।

हरि ब्यापक सर्बत्र समाना। प्रेम तें प्रगट होहिं मैं जाना।।

देस काल दिसि बिदिसिहु माहीं। कहहु सो कहाँ जहाँ प्रभु नाहीं।।

अग जगमय सब रहित बिरागी। प्रेम तें प्रभु प्रगटइ जिमि आगी।।

मोर बचन सब के मन माना। साधु साधु करि ब्रह्म बखाना।।

दोहा-सुनि बिरंचि मन हरष तन पुलकि नयन बह नीर।

अस्तुति करत जोरि कर सावधान मतिधीर।।185।।

छन्द-जय जय सुरनायक जन सुखदायक प्रनतपाल भगवंता।

गो द्विज हितकारी जय असुरारी सिंधुसुता प्रिय कंता।।

                                      

पालन सुर धरनी अद्भुत करनी मरम न जानइ कोई।

जो सहज कृपाला दीनदयाला करउ अनुग्रह सोई।।

जय जय अबिनासी सब घट बासी ब्यापक परमानंदा।

अबिगत गोतीतं चरित पुनीतं मायारहित मुकुंदा।।

जेहि लागि बिरागी अति अनुरागी बिगतमोह मुनिबृंदा।

निसि बासर ध्यावहिं गुन गन गावहिं जयति सच्चिदानंदा।।

जेहिं सृष्टि उपाई त्रिबिध बनाई संग सहाय न दूजा।

सो करउ अघारी चिंत हमारी जानिअ भगति न पूजा।।

जो भव भय भंजन मुनि मन रंजन गंजन बिपति बरूथा।।

मन बच क्रम बानी छाड़ि सयानी सरन सकल सुर जूथा।।

सारद श्रुति सेषा रिषय असेषा जा कहुँ कोउ नहिं जाना।
जेहि दीन पिआरे बेद पुकारे द्रवउ सो श्रीभगवाना।।

भव बारिधि मंदर सब बिधि सुंदर गुनमंदिर सुखपुंजा।

मुनि सिद्ध सकल सुर परम भयातुर नमत नाथ पद कंजा।।

दोहा-जानि सभय सुरभूमि सुनि बचन समेत सनेह।

गगनगिरा गंभीर भइ हरनि सोक संदेह।।186।।

                                      

जनि डरपहु मुनि सिद्ध सुरेसा। दुतुहि लागि धरिहउँ नर बेसा।।

अंसन्ह सहित मनुज अवतारा। लेहउँ दिनकर बंस उदारा।।

कस्यप अदिति महातप कीन्हा। तिन्ह कहु मैं पूरब बर दीन्हा।।

ते दसरथ कौसल्या रूपा। कोसलपुरीं प्रगट नरभूपा।।

तिन्ह के गृह अवतरिहउँ जाई। रघुकुल तिलक सो चारिउ भाई।।

नारद बचन सत्य सब करिहउँ। परम सक्ति समेत अवतरिहउँ।।

हरिहउँ सकल भूमि गरुआई। निर्भय होहु देव समुदाई।।

गगन ब्रह्मबानी सुनि कानै। तुरत फिरे सुर हृदय जुड़ाना।।

तब ब्रह्माँ धरनिहि समुझावा। अभय भई भरोस जियँ आवा।।

दोहा-निज लोकहि निरंचि गे देवन्ह इहइ सिखाइ।

बानर तनु धरि धरि महि हरि पद सेवहु जाइ।।187।।

गए देव सब निज निज धामा। भूमि सहित मन कहउँ बिश्रामा।।

जो कछु आयसु ब्रह्माँ दीन्हा। हरषे देव बिलंब न कीन्हा।।

बनचर देह धरी छिति माहीं। अतुलित बल प्रताप तिन्ह पाहीं।।

गिरि तरु नख आयुध सब बीरा। हरि मारग चितवहिं मतिधीरा।।

गिरि कानन जहँ तहँ भरि पूरी। रहे निज निज अनीक रचि रूरी।।

                                      

यह सब रूचिर चरित मैं भाषा। सब सो सुनहु जो बीचहिं राखा।।

अवधपुरीं रघुकुलमनि राऊ। बेद बिदित तेहि दसरथ नाऊँ।।

धरम धुरंधर गुननिधि ग्यानी। हृदयँ भगति मति सारँगपानी।।

दोहा-कौसल्यादि नारि प्रिय सब आचरन पुनीत।

पति अनुकूल प्रेम दृढ़ हरि पद कमल बिनीत।।188।।

एक बार भूपति मन माहीं। भै गलानि मोरें सुत नाहीं।।

गुर गृह गयउ तुरत महिपाला। चरन लागि करि बिनय बिसाला।।

निज दुख सुख सब किरहि सुनायउ। कहि बसिष्ठ बहुबिधि समुझायउ।।

धरहु धीर होइहहिं सुत चारी। त्रिभुवन बिदित भगत भय हारी।।

सृंगी रिषिहि बसिष्ठ बोलावा। पुत्रकाम सुभ जग्य करावा।।

भगति सहित मुनि आहुति दीन्हें। प्रगटे अगिनि चरू कर लीन्हें।।

जो बसिष्ठ कछु हृदयँ बिचारा। सकल काजु भा सिद्ध तुम्हारा।।

यह हबि बाँटि देहु नृप जाई। जथा जोग जेहि भाग बनाई।।

दोहा- तब अदृस्य भए पावक सकल सभहि समुझाइ।

परमानंद मगन नृप हरष न हृदयँ समाइ।।189।।

तबहिं रायँ प्रिय नारि बोलाईं। कौसल्यादि तहाँ चलि आईं।।

                                      

अर्ध भाग कौसल्यहि दीन्हा। उभय भाग आधे कर कीन्हा।।

कैकेई कहँ नृप सो दयऊ। रह्यो सो उभय भाग पुनि भयऊ।।

कौसल्या कैकेई हाथ धरि । दीन्ह सुमित्रहि मन प्रसन्न करि।।

एहि बिधि गर्भसहित सब नारी। भईं हृदयँ हरषित सुख भारी।।

जा दिन तें हरि गर्भहिं आए। सकल लोक सुख संपति छाए।।

मंदिर महँ सब राजहिं रानीं। सोभा सील तेज की खानीं।।

सुख जुत कछुक काल चलि गयई। जेहिं प्रभु प्रगट सो अवसर भयऊ।।

दोहा-जोग लगन ग्रह बार तिथि सकल भए अनुकूल।

चर अरु अचर हर्षजुत राम जनम सुखमूल।।190।।

नौमी तिथि मधु मास पुनीता। सुकल पच्छ अभिजित हरिप्रीता।।

मध्यदिवस अति सीत न घामा। पावन काल लोक बिश्रामा।।

सीतल मंद सुरभि बह बाऊ। हरषित सुर संतन मन चाऊ।।

बन कुसुमित गिरिगन मनिआरा। स्रवहिं सकल सरिताऽमृतधारा।।

सो अवसर बिरंचि जब जाना। चले सकल सुर साजि बिमाना।।

गगन बिमल संकुल सुर जूथा। गावहिं गुन गंधर्ब बरूथा।।

बरषहिं सुमन सुअंजलि साजी। गहगहि गगन दुंदुभी बाजी।।

                                      

अस्तुति करहिं नाग मुनि देवा। बहुबिधि लावहिं निज निज सेवा।।

दोहा-सुर समूह बिनती करि पहुँचे निज निज धाम।

जगनिवास प्रभु प्रगटे अखिल लोक बिश्राम।।191।।

छन्द-भए प्रगट कृपाला दीनदयाला कौसल्या हितकारी।

हरषित महतारी मुनि मन हारी अद्भुत रूप बिचारी।।

लोचन अभिरामा तनु घनस्यामा निज आयुध भुज चारी।

भूषन बनमाला नयन बिसाला सोभासिंधु खरारी।।

कह दुइ कर जोरी अस्तुतु तोरी केहि बिधि करौं अनंता।

माया गुन ग्यानातीत अमाना बेद पुरान भनंता।।

करुना सुख सागर सब गुन आगर जेहि गावहिं श्रुति संता।।

सो मम हित लागी जन अनुरागी भयउ प्रगट श्रीकंता।।

ब्रह्मांड निकाया निर्मित माया रोम रोम प्रति बेद कहै।

मम उर सो बासी यह उपहासी सुनत धीर मति थिर न रहै।।

उपजा जब ग्याना प्रभु मुसुकाना चरित बहुत बिधि कीन्ह चहै।

कहि कथा सुहाई मातु बुझाई जेहि प्रकार सुत प्रेम लहै।।

माता पुनि बोली सो मति डोली तजहु तात यह रूपा।

                                      

कीजै सिसुलीला अति प्रियसीला यह सुख परम अनूपा।।

सुनि बचन सुजाना रोदन ठाना होइ बालक सुरभूपा।

चह चरित जे गावहिं हरिपद पावहिं ते न परहिं भवकूपा।।

दोहा-बिप्र धेनु सुर संत हित लीन्हमनुज अवतार।

निज इच्छा निर्मित तनु माया गुन गो पार।।192।।

सुनि सिसु रुदन परम प्रिय बानी। संभ्रम चलि आईं सब रानी।।

हरषित जहँ तहँ धाईं दासी। आनँद मगन सकल पुरबासी।।

दसरथ पुत्रजन्म सुनि काना। मानहुँ ब्रह्मानंद समाना।।

परम प्रेम मन पुलक सरीरा। चाहत उठन करत मति धीरा।।

जाकर नाम सुनत सुभ होई। मोरें गृह आवा प्रभु सोई।।

परमानंद पूरि मन राजा। कहा बोलाइ बजावहु बाजा।।

गुर बसिष्ठ कहँ गयउ हँकारा। आए द्विजन सहित नृपद्वारा।।

अनुपम बालक देखेन्हि जाइ। रूप रासि गुन कहि न सिराई।।

दोहा-नदीमुख सराध करि जातकरम सब कीन्ह।

हाटक धेनु बसन मनि नृप बिप्रन्ह कहँ दीन्ह।।193।।

ध्वज पताक तोरन पुर छावा। कहि न जाइ जेहि भाँति बनावा।।

                                      

सुमनबृष्टि अकास तें होई। ब्रह्मानंद मगन सब लोई।।

बृंद बृंद मिलि चलीं लोगाईं। सहज सिंगार किएँ उठि धाईं।।

कनक कलस मंगल भिर तारा। गावत पैठहिं भूप दुआरा।।

करि आरति नेवछावरि करीं। बार बार सिसु चरनन्हि परहीं।।

मागध सूत बंदिगन गायक। पावन गुन गावहिं रघुनायक।।

सर्बस दान दीन्ह सब काहू। जेहिं पावा राखा नहिं ताहू।।

मृगमद चंदन कुंकुम कीचा। मची सकल बीथिन्ह बिच बीचा।।

दोहा-गृह गृह बाज बधाव सुभ प्रगटे सुषमा कंद।

हरषवंत सब जहँ तहँ नगर नारि नर बृंद।।194।।

कैकयसुता सुमित्रा दोऊ। सुंदर सुत जनमत भैं ओऊ॥

बह सुख संपति समय समाजा। कहि न सकइ सारद अहिराजा।।

अवधपुरी सोहइ एहि भाँति। प्रभुहि मिलन आई जनु राती।।

देखि भानु जनु मन सकुचानी। तदपि बनी संध्या अनुमानी।।

अगर धूप बहु जनु अँधिआरी। उड़इ अबीर मनहुँ अरुनारी।।

मंदिर मनि समूह जनु तारा। नृप गृह कलस सो इंदु उदारा।।

भवन बेदधुनि अति मृदु बानी। जनु खग मुखर समयँ जनु सानी।।

                                      

कौतुक देखि पतंग भुलाना। एक मास तेइँ जात न जाना।।

दोहा मास दिवस कर दिवस भा मरम न जानइ कोइ।

रथ समेत रबि थाकेउ निसा कवन बिधि होइ।।195।।

यह रहस्य काहूँ नहिं जाना। दिनमनि चले करत गुनगाना।।

देखि महोत्सव सुर नागा। चले भवन बरनत निज भागा।।

औरउ एक कहउँ निज चोरी। सुनि गिरजा अति दृढ़ मति तोरी।।

काकभुसुंडि संग हम दोऊ। मनुजरूप जानइ नहिं कोऊ।।

परमानंद प्रेमसुख फूले। बीथिन्ह फिरहिं मगन मन भूले।।

यह सुभ चरित जान पै सोई। कृपा राम कै जापर होई।।

तेहि अवसर जो जेहि बिधि आवा। दीन्ह भूप जो जेहि मन भावा।।

गज रथ तुरग हेम गो हीरा। दीन्हे नृप नानाबिधि चीरा।।

दोहा-मन संतोषे सबन्हि के जहँ तहँ देहिं असीस।

सकल तनय चिर जीवहुँ तुलसिदास के ईस।।196।।

कछुक दिवस बीते एहि बाँती। जात न जानिअ दिन अरु राती।।

नामकरन कर अवसरु जानी। भूप बोलि पठए मुनि ग्यानी।।

करि पूजा भूपति अस भाषा। धरिअ नाम जो मुनि गुनि राखा।।

                                      

इन्ह के नाम अनेक अनूपा। मैं नृप कहब स्वमति अनुरूपा।।

जो आनंद सिंधु सुखरासी। सीकर तें त्रैलोक सुपासी।।

सो सुख धाम राम अस नामा। अखिल लोक दायक बिश्रामा।।

बिस्व भरन पोषन कर जोई। ताकर नाम भरत अस होई।।

जाके सुमिरन तें रिपु नासा। नाम सत्रुहन बेद प्रकासा।।

दोहा-लच्छन धाम राम प्रिय सकल जगत आधार।

गुरु बसिष्ट तेहि राखा लछिमन नाम उदार।।197।।

धरे नाम गुर हृदयँ बिचारी। बेद तत्व नृप तव सुत चारी।।

मुनि धन जन सरबस सिव प्राना। बाल केलि रस तेहिं सुख माना।।

बारेहि ते निज हित पति जानी। लछिमन राम चरन रति मानी।।

भरत सत्रुहन दूनउ भाई। प्रभु सेवक जसि प्रीति बड़ाई।।

स्याम गौर सुंदर दोउ जोरी। निरखहिं छबि जननीं तृन तोरी।।

चारिउ सील रूप गुन धामा। तदपि अधिक सुखसागर रामा।।

हृदयँ अनुग्रह इंदु प्रकासा। सूचत किरन मनोहर हासा।।

कबहुँ उछंग कबहुँ बर पलना। मातु दुलारइ कहि प्रिय ललना।।

                                      

दोहा-ब्यापक ब्रह्म निरंजन निर्गुन बिगत बिनोद।

सो अझ प्रेम भगति बस कौसल्या कें गोद।।198।।

काम कोटि छबि स्याम सरीरा। नील कंज बारिद गंभीरा।।

अरुन चरन पंकज नख जोती। कमल दलन्हि बैठे जनि मोती।।

रेख कुलिस ध्वज अंकुस सोहे।। नूपुर धुनि सुनि मुनि मन मोहे।।

कटि किंकिनी उदर त्रय रेखा। नाभि गभीर जान जेहिं देखा।।

भुज बिसाल भूषन जुत भूरी। हियँ हरि नख अति सोभा रूरी।।

उर मनिहार पदिक की सोभा। बिप्र चरन देखत मन लोभा।।

कंबु कंठ अति चिबुक सुहाई। आनन अमित मदन छबि छाई।।

दुइ दुइ दसन अधर अरुनारे। नासा तिलक को बरनै पारे।।

सुंदर श्रवन सुचारु कपोला। अति प्रिय मधुर तोतरे बोला।।

चिक्कन कच कुंचित गभुआरे। बहु प्रकार रचि मातु सँवारे।।

पीत झगुलिआ तनु पहिराई। जानु पानि बिचरनि मोहि भाई।।

रूप सकहिं नहिं कहि श्रुति सेषा। सो जानइ सपनेहुँ जेहिं देखा।।

दोहा-सुख संदोह मोहपर ग्यान गिरा गोतीत।

दंपति परम प्रेम बस कर सिसुचरित पुनीत।।।199।।

                                      

एहि बिधि राम जगत पितु माता। कोसलपुर बासिन्ह सुखदाता।।

जिन्ह रघुनाथ चरन रति मानी। तिन्ह की यह गति प्रगट भवानी।।

रघुपति बिमुख जतन कर कोरी। कवन सकइ भव बंधन छोरी।।

जीव चराचर बस कै राखे। सो माया प्रभु सों भय भाखे।।

भृकुटि बिलास नचावइ ताही। अस प्रभु छाड़ि भजिअ कहु काही।।

मन क्रम बचन छाड़ि चतुराई। भजत कृपा करिहहिं रघुराई।।

एहि बिधि सिसुबिनोद प्रभु कीन्हा। सकल नगरबासिन्ह सुख दीन्हा।।

लै उछंग कबहुँक हलरावै। कबहुँ पालनें घानि झुलावै।।

दोहा-प्रेम मगन कौलस्या निसि दिन जात न जान।

सुत सनेह बस माता बालचरित कर गान।।200।।

एक बार जननीं अन्हवाए। करि सिंगार पलनाँ पौढ़ाए।।

निज कुल इष्टदेव भगवाना। पूजा हेतु कीन्ह अस्नाना।।

करि पूजा नैबेद्य चढ़ावा। आपु गई जहँ पाक बनावा।।

बहुरि मातु तहवाँ चलि आई। भोजन करत देख सुत जाई।।

गै जननी सिसु पहिं भयभीता। देखा बाल तहाँ पुनि सूता।।

हुरि आइ देखा सुत सोई। हृदयँ कंप मन धीर न होई।।

                                      

इहाँ उहाँ दुइ बालक देखा। मतिभ्रम मोर कि आन बिसेषा।।

देखि राम जननी अकुलानी। प्रभु हँसि दीन्ह मधुर मुसुकानी।।

दोहा-देखरावा मातहि निज अद्भुत रूप अखंड।

रोम रोम प्रति लागे कोटि कोटि ब्रह्मंड।।201।।

अगनित रबि ससि सिव चतुरानन। बहु गिरि सरित सिंधु महि कानन।।

काल कर्म गुन ग्यान सुभाऊ। सोउ देखा जो सुना न काऊ।।

देखी माया सब बिधि गाढ़ी। अति सभीत जोरें कर ठाढ़ी।।

देखा जीव नचावइ जाही। देखी भगति जो छोरइ ताही।।

तन पुनकित मुख बचन न आवा। नयन मूदि चरननि सिरु नावा।।

बिसमयवंत देखि महतारी। भए बहुरि सिसुरूप खरारी।।

अस्तुति कर न जाइ भय माना। जगत पिता मैं सुत करि जाना।।

हरि जननी बुहबिधि समुझाई। यब जनि कतहुँ कहसि सुनु माई।।

दोहा-बार बार कौलस्या बिनय करइ कर जोरि।

अब जनि कबहूँ ब्यापै प्रभु मोहि माय तोरि।।202।।

बालचरित हरि बहुबिधि कीन्हा। अति अनंद दासन्ह कहँ दीन्हा।।

कछुक काल बीतें सब भाई। बड़े भए परिजन सुखदाई।।

                                      

चूड़ाकरन कीन्ह गुरु जाई। बिप्रन्ह पुनि दछिना बहु पाई।।

परम मनोहर चरित अपार। करत फिरत चारिउ सुकुमारा।।

मन क्रम बचन अगोचर जोई। दसरथ अजिर बिचर प्रभु सोई।।

भोजन करत बोल जब राजा। नहिं आवत तजि बाल समाजा।।

कौसल्या जब बोलन जाई। ठुमुक ठुमुक प्रभु चलहिं पराई।।

निगम नेति सिव अंत न पावा। ताहि धरै जननी हठि धावा।।

धूसर धूरि भरें तनु आए। भूपति बिहसि गोद बैठाए।।

दोहा-भोजन करत चपल चित इत उत अवसरु पाइ।

भाजि चले किलकत मुख दधि ओदन लपटाइ।।203।।

बालचरित अति सरल सुहाए। सारद सेष संभु श्रुति गाए।।

जिन्ह कर मन इन्ह सन नहिं राता। ते जन बंचित किए बिधाता।।

भए कुमार जबहिं सब भ्राता। दिन्ह जनेऊ गुरि पितु माता।।

गुरगृहँ गए पढ़न रघुराई। अलप काल बिद्या सब आई।।

जाकी सहज स्वास श्रुति चारी। सो हरि पढ़ यह कौतुक भारी।।

बिद्या बिनय निपुन गुन सीला। खेलहिं खेल सकल नृपलीला।।

करतल बान धनुष अति सोहा। देखत रूप चराचर मोहा।।

                                      

जिन्ह बीथिन्ह बिहरहिं सब भाई। थकित होहिं सब लोग लुगाई।।

दोहा- कोसलपुर बासी नर नारि बृद्ध अरु बाल।

प्रानहु ते प्रिय लागत सब कहुँ राम कृपाल।।204।।

बंधु सखा सँग लेहिं बोलाई। बन मृगया नित खेलहिं जाई।।

पावन मृग मारहिं जियँ जानी। दिन प्रति नृपहि देखाबहिं आनी।।

जे मृग राम बान के मारे। ते तनु तजि सुरलोक सिधारे।।

अनुज सखा सँग भोजन करहीं। मातु पिता अग्या अनुसरहीं।।

जेहि बिधि सुखी होहिन पुर लोगा। करहिं कृपानिधि सोइ संजोगा।।

बेद पुरान सुनहिं मन लाई। आपु कहहिं अनुजन्ह समुझाई।।

प्रातकाल उठि कै रघुनाथा। मातु पिता गुरु नावहिं माथा।।

आयसु मागि करहिं पुर काजा। देखि चरित हरषइ मन राजा।।

दोहा-ब्यापक अकल अनीह अज निर्गुन नाम न रूप।

भगत हेतु नाना बिधि करत चरित्र अनूप।।205।।

यह सब चरित कहा मैं गाई। आगिलि कथा सुनहु मन लाई।।

बिस्वामित्र महामुनि ग्यानी। बसहिं बिपिन सुभ आश्रम जानी।।

जहँ जप जगय जोग मुनि करीं। अति मारीच सुबाहुहि डरहीं।।

                                      

देखत जग्य निसाचर धावहिं। करहिं उपद्रव मुनि दुख पावहिं.।

गाधितनय मन चिंता ब्यापी। हरि बिनु मरहिं न निसिचर पापी।।

तब मुनिबर मन कीन्ह बिचारा। प्रभु अवतरेउ हरन महि भारा।।

एहूँ मिस देखौं पद जाई। करि बिनती आनौं दोउ भाई।।

ग्यान बिराग सकल गुन अयना। सो प्रभु मैं देखब भरि नयना।।

दोहा-बहुबिधि करत मनोरथ जात लागि नहिं बार।

करि मज्जन सरऊ जल गए भूप दरबार।।206।।

मुनि आगमन सुना जब राजा। मिलन गयउ लै विप्र समाजा।।

करि दंडवत मुनिहि सनमानी। निज आसन बैठारेन्हि आनी।।

चरन पखारि कीन्हि अति पूजा। मो सम आजु धन्य नहिं दूजा।।

बिबिध भाँति भोजन करवावा। मुनिबर हृदयँ हरष अति पावा।।

पुनि चरननि मेले सुत चारी। राम देखि मुनि देह बिसारी।।

भए मगन देखत मुख सोभा। जनु चकोर पूरन ससि लोभा।।

तब मन हरषि बचन कह राऊ। मुनि अस कृपा न कीन्हिहु काऊ।।

केहि कारन आगमन तुम्हारा। कहहु सो करत न लावउँ बारा।।

असुर समूह सताबहिं मोही। मैं जाचन आयउँ नृप तोही।।

                                      

अनुज समेत देहु रघुनाथा। निसिचर बध मैं होब सनाथा।।

दोहा-देहु भूप मन हरषित तजहु मोह अग्यान।

धर्म सुजस प्रभु तुम्ह कौं इन्ह कहँ अति कल्यान।।207।।

सुनि राजा अति अप्रिय बानी। हृदय कंप मुख दुति कुमुलानी।।

चौथेंपन पायउँ सुत चारी। बिप्र बचन नहिं कहेहु बिचारी।।

मागहु भूमि धेनु धन कोसा। सर्बस देउँ आजु सहरोसा।।

देह प्रान तें प्रिय कछु नाहीं। सोउ मुनि देउँ निमिष एक माहीं।।

सब सुत प्रिय मोहि प्रान कि नाईं। राम देत नहिं बनइ गोसाईं।।

कहँ निसिचर अति घोर कठोरा। कहँ सुंदर सुत परम किसोरा।।

सुनि नृप गिरा प्रेम रस सानी।। हृदयँ हरष माना मुनि ग्यानी।।

तब बसिष्ट बहुबिधि समुझावा। नृप संदेह नास कहँ पावा।।

अति आदर दोउ तनय बोलाए। हृदयँ लाइ बहु भाँति सिखाए।।

मेरे प्रान नाथ सुत दोऊ। तुम्ह मुनि पिता आन नहिं कोऊ।।

दोहा-सौंपे भूप रिषिहि सुत बहुबिधि देइ असीस।

जननी भवन गए प्रभु चले नाइ पद सीस।।208क।।

सोरठा-पुरुषसिंह दोउ बीर हरषि चले मुनि बय हरन।

                                      

कृपासिंधु मतिधीर अखिल बिस्व कारन करन।।208ख।।

अरुन नयन उर बाहु बिसाला। नील जलज तनु स्याम तमाला।।

कटि पट पीत कसें बर भाथा। रुचिर चाप सायक दुहुँ हाथा।।

स्याम गौर सुंदर दोउ भाई। बिस्वामित्र महानिधि पाई।।

प्रभु ब्रह्मन्यदेव मैं जाना। मोहि निति पिता तजेउ भगवाना।।

चले जात मुनि दीन्हि देखाई। सुनि ताड़का क्रोध करि धाई।।

एकहिं बान प्रान हरि लीन्हा। दीन जानि तेहि निज पद दीन्हा।।

तब रिषि निज नाथहि जियँ चीनिही। बिद्यानिधि कहुँ बिद्या दीन्ही।।

जाते लाग न क्षुधा पिपासा। अतुलित बल तनु तेज प्रकासा।।

दोहा-आयुध सर्ब समर्पि कै प्रभु निज आश्रम आनि।

कंद मूल फल भोजन दीन्ह भगति हित जानि।।209।।

प्रात कहा मुनि सन रघुराई। निर्भय जग्य करहु तुम्ह जाई।।
होम करन लागे मुनि झारी। आपु रहे मख कीं रखवारी।।

सुनि मारीच निसाचर क्रोही। लै सहाय धावा मुनिद्रोही।।

बिनु फर बान राम तेहि मारा। सत जोजन गा सागर पारा।।

पावक सर सुबाहु पुनि मारा। अनुज निसाचर कटकु सँगारा।।

मारि असुर द्विज निर्भयकारी। अस्तुति करहिं देव मुनि झारी।।

                                      

तहँ पुनि कछुक दिवस रघुराया। रहे कीन्हि बिप्रन्ह पर दाया।।

भगति हेतु बहु कथा पुराना। कहे बिप्र जद्यपि प्रभु जाना।।

तब मुनि सादर कहा बुझाई। चरित एक प्रभु देखिअ जाई।।

धनुषजग्य सुनि रघुकुल नाथा। हरषि चले मुनिबर के साथा।।

आश्रम एक दीख मग माहीं। खग मृग जीव जंतु तहँ नाहीं।।

पूछा मुनिहि सिला प्रभु देखी। सकल कथा मुनि कहा बिसेषी।।

दोहा-गौतम नारि श्राप बस उपल देह धरि धीर।

चरन कमल रज चाहति कृपा करहु रघुबीर।।210।।

छन्द-परसत पद पावन सोक नसावन प्रगट भई तपपुंज सही।

देखत रघुनायक जन सुखदायक सनमुख होइ कर जोरि रही।।

अति प्रेम अधीरा पुलक सरीरा मुख नहिं आवइ बचन कही।

अतिसय बड़भागी चरनन्हि लागी जुगल नयन जलधार बही।।

धीरजु मन कीन्हा प्रभु कहुँ चीन्हा रघुपति कृपाँ भगति पाई।

अति निर्मल बानीं अस्तुति ठानी ग्यानगम्य जय रघुराई।।

मैं नारि अपावन प्रभु जग पावन रावन रिपु जन सुखदाई।

राजीव बिलोचन भव भय मोचन पाहि पाहि सरनहिं आई।।

                                      

मुनि श्राप जो दीन्हा अति बल कीन्हा परम अनुग्रह मैं माना।।

देखेउँ भरि लोचन हरि भवमोचन इहइ लाभ संकर जाना।।

बिनती प्रभु मोरी मैं मति भोरी नाथ न मागउँ बर आना।

पद कमल परागा रस अनुरागा मम मन मधुप करै पाना।।

जेहिं पद सुरसरिता परम पुनीता प्रगट भई सिव सीस धरी।

सोई पद पंकज जेहि पूजत अज मम सिर धरेउ कृपाल हरी।।

एहि भाँति सिधारी गौतम नारी बार बार हरि चरन परी।

जो अति मन बाव सो बरु पावा गै पतिलोक अनंद भरी।।

दोहा-अस प्रभु दीनबंधु हरि कारन रहित दयाल।

तुलसिदास सठ तेहि भजु छाड़ि कपट जंजाल।।211।।

चले राम लछिमन मुनि संगा। गए जहाँ जग पावनि गंगा।।

गाधिसूनु सब कथा सुनाई। जेहि प्रकार सुरसिर महि आई।।

तब प्रभु रिषिन्ह समेत नहाए। बिबिध दान महिदेवन्हि पाए।।

हरषि चले मुनि बृंद सहाया। बेगि बिदेह नगर निअराया।।

पुर रम्यता राम जब देखी। हरषे अनुज समेत बिसेषी।।

बापीं कूप सरित सर नाना। सलिल सुधसम मनि सोपाना।।

                                      

गुंजत मंजु मत्त रस भृंगा। कूजत कल बहुबरन बिहंगा।।

बरन बरन बिकसे बन जाता। त्रिबिध समीर सदा सुखदाता।।

दोहा-सुमन बाटिका बाग बन बिपुल बिहंग निवास।

फूलत फलत सुपल्लवत सोहत पुर चहुँ पास।।212।।

बनइ न बरनत नगर निकाई। जहाँ जाइ मन तहँइँ लोभाई।।

चारु बजारु बिचित्र अँबारी। मनिमय बिधि जनु स्वकर सँवारी।।

धनिक बनिक बर धनद समाना।बैठे सकल बस्तु लै नाना।।

चौहट सुंदर गलीं सुहाई। संतत रहहिं सुगंध सिंचाई।।

मंगलमय मंदिर सब केरें। चित्रित जनु रतिनाथ चितेरें।।

पुर नर नारि सुभग सुचि संता। धरमसील ग्यानी गुनवंता।।

अति अनूप जहँ जनक निवासू। बिथकहिं बिबुध बिलोकि बिलासू।।

होत चकित चित कोट बोलोकी। सकल भुवन सोभा चनु रोकी।।

दोहा-धवल धाम मनि पुरट पट सुघटित नाना भाँति।

सिय निवास सुंदर सदन सोभा किमि कहि जाति।।213।।

सुभग द्वार सब कुलिस कपाटा। भूप भीर नट मागध भाटा।।

बनी बिसाल बाजि गज साला। हय गय रथ संकुल सब काला।।

                                      

सूर सचिव सेनप बहुतेरे। नृपगृह सरिस सदन सब केरे।।

पुर बाहेर सर सरित समीपा। उतरे जहँ तहँ बिपुल महीपा।।

देखि अनूप एक अँवराई। सब सुपास सब भाँति सुहाई।।

कौसिक कहेउ मोर मनु माना। इहाँ रहिअ रघुबीर सुजाना।।

भलेहिं नाथ कहि कृपानकेता। उतरे तहँ मुनिबृंद समेता।।

बिस्वामित्र महामुनि आए। समाचार मिथिलापित पाए।।

दोहा-संग सचिव सुचि भीरि भट भूसुर बर गुर ग्याति।

चले मिलन मुनिनायकहि मुदित राउ एहि भाँति।।214।।

कीन्ह प्रनामु चरन धरि माथा। दीन्हि असीस मुदित मुनिनाथा।।

बिप्रबृंद सब सादर बंदे। जानि भाग्य बड़ राउ अनंदे।।

कुसल प्रस्न कहि बारहिं बारा। बिस्वामित्र नृपहि बैठारा।।

तेहि अवसर आए देउ भाई। गए रहे देखन फुलवाई।।

स्याम गौर मृदु बयस किसोरा। लोचन सुखद बिस्व चित चोरा।।

उठे सकल जब रघुपति आए। बिस्वामित्र निकट बैठाए।।

भए सब सुखी देखि दोउ भ्राता। बारि बिलोचन पुलकित गाता।।

मूरति मधुर मनोहर देखी। भयउ बिदेहु बिदेहु बिसेषी।।

                                      

दोहा-प्रेम मगन मनु जानि नृपु करि बिबेकु धरि धीर।

बोलेउ मुनि पद नाइ सिरु गदगद गिरा गभीरा।।215।।

कहहु नाथ सुंदर दोउ बालक। मुनिकुल तिलक कि नृप कुल पालक।।

ब्रह्म जो निगम नेति कहि गावा। उभय बेष धरि की सोइ आवा।।

सहज बिरागरूप मनु मोरा। थकित होत जिमि चंद चकोरा।।

ताते प्रभु पूछउँ सतिभाऊ। कहहु नाथ जनि करहु दुराऊ।।

इन्हहि बिलोकत अति अनुरागा। बरबस ब्रह्मसुखहि मन त्यागा।।

कह मुनि बिहसि कहेहु नृप नीका। बचन तुम्हार न होइ अलीका।।

ए प्रिय सबहि जहाँ लगि प्रानी। मन मुसुकाहिं रामु सुनि बानी।।

रघुकुल मनि दसरथ के जाए। मम हित लागि नरेस पठाए।।
दोहा-रामु लखनु दोउ बंधुबर रूप सील बल धाम।

मख राखेउ सबु साखि जगु जिते असुर संग्राम।।216।।

मुनि तब चरन देखि कह राऊ। कहि न सकउँ निज पुन्य प्रभाऊ।।

सुंदर स्याम गौर दोउ भ्राता। आनँदहू के आनँद दाता।।

इन्ह कै प्रीति परसपर पावनि। कहि न जाइ मन भाव सुहावनि।।

सुनहु नाथ कह मुदित बिदेहू। ब्रह्म जीव इव सहज सनेहू।।

                                      

पुनि पुनि प्रभुहि चितव नरनाहू। पुलक गात उर अधइक उछाहू।।

मुनिहि प्रसंसि नाइ पद सीसू। चलेउ लवाइ नगर अवनीसू।।

सुंदर सदनु सुखद सब काला। तहाँ बासु लै दीन्ह भुआला।।

करि पूजा सब बिधि सेवकाई। गयउ राउ गृह बिदा कराई।।

दोहा-रिषय संग रघुबंस मनि करि भोजनु बिश्रामु।

बैठे प्रभु भ्राता सहित दिवसु रहा भरि जामु।।217।।

लखन हृदयँ लालसा बिसेषी। जाइ जनकपुर आइअ देखी।

प्रभु भय बहुरि मुनिहि सकुचाहीं। प्रगट न कहहिं मनहिं मुसुकाहीं।।

राम अनुज मन की गति जानी। भगत बछलताहियँ हुलसानी।।

परम बिनीत सकुचि मुसुकाई। बोले गुर अनुसासन पाई।।

नाथ लखनु पुरु देखन चहहीं। प्रभु सकोच डर प्रगट न कहहीं।।

जौं राउर आयसु मैं पावौं। नगर देखाइ तुरत लै आवौं।।

सुनि मुनीसु कह बचन सप्रीती। कस न राम तुम्ह राखहु नीती।।

धरम सेतु पालक तुम्ह ताता। प्रेम बिबस सेवक सुखदाता।।

दोहा-जाइ देखि आवहु नगरु सुख निधान दोउ भाइ।

करहु सुफल सब के नयन सुंदर बदन देखाइ।।218।।

                                      

मुनि पद कमल बंदि दोउ भ्राता। चले लोक लोचन सुख दाता।।

बालक बृंद देखि अति सोभा। लगे संग लोचन मनु लोभा।।

पीत बसन परिकर कटि भाथा। चारु चाप सर सोहत हाथा।।

तन अनुहरत सुचंदन खोरी। स्यामल गौर मनोहर जोरी।।

केहरि कंधर बाहु बिसाला। उर अति रुचिर नागमनि माला।।

सुभग सोन सरसीरुह लोचन। बदन मयंक तापत्रय मोचन।।

कानन्हि कनक फूल छबि देहीं। चितवत चितहिं चोरि जनु लेहीं।।

चितवनि चारु भृकुटि बर बाँकी। तिलक रेख सोभा जनु चाँकी।।

दोहा-रुचिर चौतनीं सुभग सिर मेचक कुंचित केस।

नख सिख सुंदर बंधु दोउ सोभा सकल सुदेस।।219।।

देखन नगरु भूपसुत आए। समाचार पुरबासिन्ह पाए।।

धाए धाम काम सब त्यागी। मनहुँ रंक निधि लूटन लागी।।

निरखि सहज सुंदर दोउ भाई। होहिं सुखी लोचन फल पाई।।

जुबतीं भवन झरोखन्हि लागीं। निरखहिं राम रूप अनुरागीं।।

कहहिं परसपर बचन सप्रीती। सखि इन्ह कोटि काम छबि जीती।।

सुर नर असुर नाग मुनि माहीं। सोभा असि कहुँ सुनिअति नाहीं।।

                                      

बिष्नु चारि भुज बिधि मुख चारी। बिकट बेष मुख पंच पुरारी।।

अपर देउ अस कोउ न आही। यह छबि सखी पटतरिअ जाही।।

दोहा-बय किसोर सुषमा सदल स्याम गौर सुख धाम।

अंग अंग पर वारिअहिं कोटि कोटि सत काम।।220।।

कहहु सखी अस को तनुधारी। जो न मोह यह रूप निहारी।।

कोउ सप्रेम बोली मृदु बानी। जो मैं सुना सो सुनहु सयानी।।

ए दोऊ दसरथ के ढोटा। बाल मरालन्हि के कल जोटा।।

मुनि कौसिक मख के रखवारे। जिन्ह रन अजिर निसाचर मारे।।

स्याम गात कल कंज बिलोचन। जो मारीच सुभुज मदु मोचन।।

कौसल्या सुत सो सुख खानी। मामु रामु धनु सायक पानी।।

गोर किसोर बेषु बर काछें। कर सर चाप राम के पाछें।।

लछिमनु नामु राम लघु भ्राता। सुनु सखि तासु सुमित्रा माता।।

दोहा-बिप्रकाजु करि बंधु दोउ मग मुनिबधू उधारि।।

आए देखन चापमख सुनि हरषीं सब नारि।221।।

देखी राम छबि कोउ एक कहई। जोगु जानकिहि यह बरु अहई।।

जौं सखि इन्हहि देख नरनाहू। पन परिहरि हठि करइ बिबाहू।।

                                      

कोउ कह ए भूपति पहिचाने। मुनि समेत सादर सनमाने।।

सखि परंतु पनु राउ न तजई। बिधि बस हठि अबिबेकहि भजई।।

कोउ कह जौं भल अहइ बिधाता। सब कहँ सुनिअ उचित फलदाता।।

तौ जानकिहि मिलिहि बरु एहू। नाहिन आलि इहाँ संदेहू।।

जौं बिधि बस अस बनै सँजोगू। तौ कृतकृत्य होइ सब लोगू।।

सखि हमरें आरति अति तातें। कबहुँक ए आवहिं एहि नातें।।

दोहा-नाहिं त हम कहुँ सुनहु सखि इन्ह कर दरसनु दूरि।

यह संघटु तब होइ चब पुन्य पुराकृत भूरि।।222।।

बोली अपर कहेहु सखि नीका। एहिं बिआह अति हित सबही का।।

कोउ कह संकर चाप कठोरा। ए स्यामल मृदुगात किसोरा।।

सबु असमंजस अहइ सयानी। यह सुनि अपर कहइ मृदु बानी।।

सखि इन्ह कहँ कोउ कोउ अस कहहीं। बड़ प्रभाउ देखत लघु अहहीं।।

परसि जासु पद पंकज धूरी। तरी अहल्या कृत अघ भूरी।।

सो कि रहिहि बिनु सिवधनु तोरें। यह प्रतीति परिहरिअ न भोरें।।

जेहिं बिरंचि रचि सीय सँबारी। तेहिं स्यामल बरु रचेउ बिचारी।।

तासु बचन सुनि सब हरषानीं। एसेइ होउ कहहिं मृदु बानीं।।

                                      

दोहा-हियँ हरषहिं बरषहिं सुमन सुमुखि सुलोचनि बृंद।

जाहिं जहाँ जहँ बंधु दोउ तहँ तहँ परमानंद।।223।।

पुर पूरब दिसि गे दोउ भाई। जहँ धनुमख हित भूमि बनाई।।

अति बिस्तार चारु गच ढारी। बिमल बेदिका रुचिर सँवारी।।

चहुँ दिसि कंचन मंच बिसाला। रचे जहाँ बैठहिं महिपाला।।

तेहि पाछें समीप चहुँ पासा। अपर मंच मंडली बिलासा।।

कछुक ऊँचि सब भाँति सुहाई। बैठहिं नगर लोग जहँ जाई।।

तिन्ह के निकट बिसाल सुहाए। धवल धाम बहुबरन बनाए।।

जहाँ बैठें देखहिं सब नारी। जथा जोगु निज कुल अनुहारी।।

पुर बालक कहि कहि मृदु बचना। सादर प्रभुहि देखावहिं रचना।।

दोहा-सब सिसु एहि मिस प्रेमबस परसि मनोहर गात।

तन पुलकहिं अति हरषु हियँ देखि देखि दोउ भ्रात।।224।।

सिसु सब राम प्रेमबस जाने। प्रीति समेत निकेत बखाने।।

निज निज रुचि सब लेहिं बोलाई। सहित सेनह जाहिं दोउ भाई।।

राम देखावहिं अनुजहि रचना। कहि मृदु मधुर मनोहर बचना।।

लव निमेष महुँ भुवन निकाया। रचइ जासु अनुसासन माया।।

                                      

भगति हेतु सोइ दीनदयाला। चितवत चकित धनुष मखसाला।।

कौतुक देखि चले गुरु पाहीं। जानि बिलंबु त्रास मन माहीं।।

जासु त्रास डर कहुँ डर होई। भजन प्रभाउ देखावत सोई।।

कहि बातें मृदु मधुर सुहाईं। किए बिदा बालक बरिआईं।।

दोहा-सभय सप्रेम बिनीत अति सकुच सहित दोउ भाइ।

गुर पद पंकज नाइ सिर बैठे आयसु पाइ।।225।।

निसि प्रबेस मुनि आयसु दीन्हा। सबहीं संध्याबंदनु कीन्हा।।

कहत कथा इतिहास पुरानी। रुचिर रजनि जुग जाम सिरानी।।

मुनिबर सयन कीन्हि तब जाई। लगे चरन चापन दोउ भाई।।

जिन्ह के चरन सरोरुह लागी। करत बिबिध जप जोग बिरागी।।

तेइ दोउ बंधु प्रेम जनु जीते। गुर पद कमल पलोटत प्रीते।।

बार बार मुनि अग्या दीन्ही। रघुबर जाइ सयन तब कीन्ही।।

चापत चरन लखनु उर लाएँ। सभय सप्रेम परम सचु पाएँ।।

पुनि पुनि प्रभु कह सोवहु ताता। पौढ़ि धरि उर पद जलजाता।।

दोहा-उठे लखनु निसि बिगत सुनि अरुनसिखा धुनि कान।

गुर तें पहिलेहिं जगतपति जागे रामु सुजान।।226।।

                                      

सकल सोच करि जाइ नहाए। नित्य निबाहि मुनिहि सिर नाए।।

समय जानि गुर आयसु पाइ। लेन प्रसून चले दोउ भाई।।

भूप बागु बर देखेउ जाई। जहँ बसंत रितु रही लोभाई।।

लागे बिटप मनोहर नाना। बरन बरन बर बेलि बिताना।।

नव पल्लव फल सुमन सुहाए। निज संपति सुर रूख लजाए।।

चातक कोकिल कीर चकोरा। कूजत बिहग नटत कल मोरा।।

मध्य बाग सरु मोह सुहावा। मनि सोपान बिचित्र बनावा।।

बिमल सलिलु सरसिज बहुरंगा। जलखग कूजत गुंजत भृंगा।।

दोहा-बागु तड़ागु बिलोकि प्रभु हरषे बंधु समेत।

परम रम्य आरामु यहु जो रामहि सुख देत।।227।।

चहुँ दिसि चितइ पूँछि मालीगन। लगे लेन दल फूल मुदित मन।।

तेहि अवसर सीता तहँ आई। गिरिजा पूजन जननि पठाई।।

संग सखीं सब सुभग सयानीं। गावहिं गीत मनोहर बानीं।।

सर समीप गिरिजा गृह सोहा। बरनि न जाइ देखि मनु मोहा।

मज्जनु करि सर सखिन्ह समेता। गई मुदित मन गौरि निकेता।।

पूजा कीन्हि अधिक अनुरागा। निज अनुरूप सुभग बरु मागा।।

                                      

एक सखी सिय संगु बिहाई। गई रही देखन फुलवाई।।

तेहिं तोउ बंधु बिलोके जाई। प्रेम बिबस सीता पहिं आई।।

दोहा-तासु दसा देखी सखिन्ह पुलक गात जलु नैन।

कहु कारनु निज हरष कर पूछहिं सब मृदु बैन।।228।।

देखन बागु कुअँर दुइ आए। बय किसोर सब भाँति सुहाए।।

स्याम गौर किमि कहौं बखानी। गिरा अनयन नयन बिनु बानी।।

सुनि हरषीं सब सखीं सयानी। सिय हियँ अति उतकंठा जानी।।

एक कहइ नृपसुत तेइ आली। सुने जे मुनि सँग आए काली।।

जिन्ह निज रूप मोहनी डारी। कीन्हे स्वबस नगर नर नारी।।

एक कहइ नृपसुत तेइ आली। सुने जे मुनि सँग आए काली।।

जिन्ह निज रूप मोहनी जारी। कीन्हे स्वबस नगर नर नारी।।

बरनत छबि जहँतहँ सब लोगू। अवसि देखिअहिं देखन जोगू।।

तासु बचन अति सियहि सोहाने। दरस लागि लोचन अकुलाने।।

चली अग्र करि प्रिय सखि सोई। प्रीति पुरातन लखइ न कोई।।

दोहा-सुमिरि सीय नारद बचन उपजी प्रीति पुनीत।

चकित बिलोकति सकल दिसि जनु सिसु मृगी सभीत।।229।।

कंकन किंकिनि नूपुर धुनि सुनि। कहत लखन सन रामु हृदयँ गुनि।।

मानहुँ मदन दुंदुभी दीन्ही। मनसा बिस्व बिजय कहँ कीन्ही।

                                      

अस कहि फिरि चितए तेहि ओरा। सिय मुख ससि भए नयन चकोरा।।

भए बिलोचन चारु अचंचल। मनहुँ सकुचि निमि तजे दिगंचल।।

देखि सीय सोभा सुखु पावा। हृदयँ सराहत बचनु न आवा।।

जनु बिरंचि सब निज निपुनाई। बिरचि बिस्व कहँ प्रगटि देखाई।।

सुंदरता कहुँ सुंदर करई। छबिगृहँ दीपसिखा जनु बरई।।

सब उपमा कबि रहे जुठारी। केहिं पटतरौं बिदेहकुमारी।।

दोहा-सिय सोभा हियँ बरनि प्रभु आपनि दसा बिचारि।

बोले सुचि मन अनुज सन बचन समय अनुहारि।।230।।

तात जनकतनया यह सोई। धनुषजग्य जेहि कारन होई।।

पूजन गौरि सखीं लै आईं। करत प्रकासु फिरइ फुलवाईं।।

जासु बिलोकि अलौकिक सोभा। सहज पुनीत मोर मनु छोभा।।

सो सबु कारन जान बिधाता। फरकहिं सुभद अंग सुनु भ्राता।।

रघुबंसिन्ह कर सहज सुभाऊ। मनु कुपंथ पगु धरइ न काऊ।।

मोहि अति सय प्रतीति मन केरी। जेहिं सपनेहूँ परनारि न हेरी।।

जिन्ह कै लहहिं न रिपु रन पीठी। नहिं पावहिं परतिय मनु डीठी।।

मंगन लहहिं न जिन्ह कै नाहीं। ते नरबर थोरे जग माहीं।।

                                      

दोहा-करत बतकही अनुज सन मन सिय रूप लोभान।

मुख सरोज मकरंद छबि करइ मधुप इव पान।।231।।

चितवति चकित चहूँ दिसि सीता। कहँ गए नृपकिसोर मनु चिंता।।

जहँ बिलोक मृग सावक नैनी। जनु तहँ बरिस कमल सित श्रेनी।।

लता ओट  तब सखिन्ह लखाए। स्यामल गौर किसोर सुहाए।।

देखि रूप लोचन ललचाने। हरषे जनु निज निधि पहिचाने।।

थके नयन रघुपति छबि देखें। पलकन्हिहुँ परिहरीं निमेषें।।

अधिक सनेहँ देह भै भोरी। सरद ससिहि जनु चितव चकोरी।।

लोचन मग रामहि उर आनी। दीन्हे पलक कपाट सयानी।।

जब सिय सखिन्ह प्रेमबस जानी। कहि न सकहिं कछु मन सकुचानी।।

दोहा-लताभवन तें प्रगट भे तेहि अवसर दोउ भाइ।

निकसे जनु जुग बिमल बिधु जलद पटल बिलगाइ।।232।।

सोभा सीवँ सुभग दोउ बीरा। नील पीत जलजाभ सरीरा।।

मोरपंख सिर सोहत नीके। गुच्छ बीच बिच कुसुम कली के।।

भाल तिलक श्रमबिंदु सुहाए। श्रवन सुभग भूषन छवि छाए।।

बिकट भृकुटि कच घूघरवारे। नव सरोज लोचन रतनारे।।

                                      

चारु चिबुक नासिका कपोला। हास बिलास लेत मनु मोला।।

मुखछबि कहि न जाइ मोहि पाहीं। जो बिलोकि बहु काम लजाहीं।।

उर मनि माल कंबु कल गीवा। गाम कलभ कर भुज बलसींवा।।

सुमन समेत बाम कर दोना। सावँर कुअँर सखी सुठी लोना।।

दोहा-केहरि कटि पट पीत धर सुषमा सील निधान।

देखि भानुकूलभूषनहि बिसरा सखिन्ह अपान।।233।।

धरि धीरजु एक आलि सयानी। सीता सन बोली गहि पानी।।

बहुरि गौरि कर ध्यान करेहू। भूपकिसोर देखि किन लेहू।।

सकुचि सीयँ तब नयन उघारे। सनमुख दोउ रघुसिंघ निहारे।।

नख सिख देखि राम कै सोभा। सुमिरि पिता पनु मनु अति छोभा।।

परबस सखिन्ह लखी जब सीता। भयउ गहरु सब कहहिं सभीता।।

पुनि आउब एहि बेरिआँ काली। अस कहि मन बिहसी एख आली।।

गूढ़ गिरा सुनि सिय सकुचानी। भयउ बिलंबु मातु भय मानी।।

धरि बड़ि धीर रामु उर आने। फिरी अपनपउ पितुबस जाने।।

दोहा-देखन मिस मृग बिहग तरु फिरइ बहोरि बहोरि।

निरखि निरखि रघुबीर छबि बाढ़इ प्रीति न थोरि।।234।।

                                      

जानि कठिन सिवचाप बिसूरति। चली राखि उर स्यामल मूरति।।

प्रभु जब जात जानकी जानी। सुख सनेह सोभा गुन खानी।।

परम प्रेममय मृदु मसि कीन्ही। चारु चित्त भीतीं लिखि लीन्ही।।

गई भवानी भवन बहोरी। बंदि चरन बोली कर जोरी।।

जय जय गिरबरराज किसोरी। जय महेस मुख चंद चकोरी।।

जय गजबदन षडानन माता। जगत जननि दामिनि दुति गाता।।

नहिं तब आदि मध्य अवसाना। अमित प्रभाउ बेदु नहिं जाना।।

भव भव बिभव पराभव कारिनि। बिस्व बिमोहनि स्वबस बिहारिनि।।

दोहा-पतिदेवता सुतीय महुँ मातु प्रथम तव रेख।

महिमा अमित न सकहिं कहि सहस सारदा सेष।।235।।

सेवत तोहि सुलभ फल चारी। बरदायनी पुरारि पिआरी।।

देबि पूजि पद कमल तुम्हारे। सुर नर मुनि सब होहिं सुखारे।।

मोर मनोरथु जानहु नीकें। बसहु सदा उर पुर सबही कें।।

कीन्हेउँ प्रगट न कारन तेहीं। अस कहि चरन गहे बैदेहीं।।

बिनय प्रेम बस भई भवानी। खसी माल मूरति मुसुकानी।।

सादर सियँ प्रसादु सिर धरेऊ। बोली गौरि हरषु हियँ भरेऊ।।

                                      

सुनि सिय सत्य असीस हमारी। पूजिहि मन कामना तुम्हारी।।

नारद बचन सदा सुचि साचा। सो बरु मिलिहि जाहिं मनु राचा।।

छन्द-मनु जाहिं राचेउ मिलिहि सो बरु सहज सुंदर साँवरो।

करुना निधान सुजान सीलु सनेहु जानत रावरो।।

एहि भाँति गौरि असीस सुनि सिय सहित हियँ हरषीं अली।

तुलसी भवानिहि पूजि पुनि पुनि मुदित मन मंदिर चली।।

सोरठा-जानि गौरि अनुकूल सिय हिय हरषु न जाइ कहि।

मंजुल मंगल मूल बाम अंग फरकन लगे।।236।।

हृदयँ सराहत सीय लोनाई। गुर समीप गवने दोउ भाइ।।

रामु कहा सबु कौसिक पाहीं सरल सुभाउ छुअत छल नाहीं।।

सुमन पाइ मुनि पूजा कीन्ही। पुनि असीस दुहु भाइन्ह दीन्ही।।

सुफल मनोरथ होहुँ तुम्हारे। रामु लखनु सुनि भए सुखारे।।

करि भोजनु मुनिबर बिग्यानी। लगे कहन कछु कथा पुरानी।।

बिगत दिवसु गुरु आयसु पाई। संध्या करन चले दोउ भाई।।

प्राची दिसि ससि उयउ सुहावा। सिय मुख सरिस देखि सुखु पावा।।

बहुरि बिचारु कीन्ह मन माहीं। सीय बदन सम हिमकर नाहीं।।

                                      

दोहा-जनमु सिंधु पुनि बंधु बिषु दिन मलीन सकलंक।

सिय मुख समता पाव किमि चंदु बापुरो रंक।।237।।

घटइ बढ़इ बिरहनि दुखदाई। ग्रसई राहु निज संधिहिं पाई।।

कोक सोकप्रद पंकज द्रोही। अवगुन बहुत चंद्रमा तोही।।

बैदेही मुख पटतर दीन्हे। होइ दोषु बड़ अनुचित कीन्हे।।

सिय मुख छबि बिधु ब्याज बखानी।गुर पहिं चले निसा बड़ि जानी।।

करि मुनि चरन सरोज प्रनामा। आयसु पाइ कीन्ह बिश्रामा।।

बिगत निसा रघुनायक जागे। बंधु बिलोकि कहन अस लागे।।

उयउ अरुन अवलोकहु ताता। पंकज कोक लोक सुखदाता।।

बोले लखनु जोरि जुग पानी। प्रभु प्रभाउ सूचक मृदु बानी।।

दोहा-अरुनोदयँ सकुचे कुमुद उडगन जोति मलीन।

जिमि तुम्हार आगमन सुनि भए नृपति बलहीन।।238।।

नृप सब नखत करहिं उजिआरी। टारि न सकहिं चाप तम भारी।।

कमल कोक मधुकर खग नाना। हरषे सकल निसा अवसाना।।

एसेहिं प्रभु सब भगत तुम्हारे। होइहहिं टूटें धनुष सुखारे।।

उयउ भानु बिनु श्रम तम नासा। दुरे नखत जग तेजु प्रकासा।।

                                      

रबि निज उदय ब्याज रघुराया। प्रभु प्रतापु सब नृपन्ह दिखाया।।

तब भुज बल महिमा उदघाटी। प्रगटी धनु बिघटन परिपाटी।।

बंधु बचन सुनि प्रभु मुसुकाने। होइ सुचि सहज पुनीत नहाने।।

नित्यक्रिया करि गुरु पहिं आए। चरन सरोज सुभग सिर नाए।।

सतानंदु तब जनक बोलाए। कौसिक मुनि पहिं तुरत पठाए।।

जनक बिनय तिन्ह आइ सुनाई। हरषे बोलि लिए दोउ भाई।।

दोहा-सतानंद पद बंदि प्रभु बैठे गुर पहिं जाइ।

चलहु तात मुनि कहेउ तब पठवा जनक बोलाइ।।239।।

सीय स्वयबरु देखिअ जाई। ईसु काहि धौं देह बड़ाई।।

लखन कहा जस भाजनु सोई। नाथ कृपा तब जापर होई।।

हरषे मुनि सब सुनि बर बानी। दीन्हि असीस सबहिं सुखु मानी।।

पुनि मुनिबृंद समेत कृपाला। देखन चले धनुषमख साला।।

रंगभूमि आए दोउ भाई। असि सुधि सब पुरबासिन्ह पाई।।

चले सकल गृह काज बिसारी। बाल जुबान जरठ नर नारी।।

देखी जनक भीर भै भारी। सुचि सेवक सब लिए हँकारी।।

तुरत सकल लोगन्ह पहिं जाहू। आसन उचित देहु सब काहू।।

                                      

दोहा-कहि मृदु बचन बिनीत तिन्ह बैठारे नर नारि।

उत्तम मध्यम नीच लघु निज निज थल अनुहारि।।240।।

राजकुअँर तेहि अवसर आए। मनहुँ मनोहरता तन छाए।।

गुन सागर नागर बर बीरा। सुंदर स्यामल गौर सरीरा।।

राज समाज बिराजत रूरे। उडगन महुँ तनु जुग बिधु पूरे।।

जिन्ह कें रही भावना जैसी। प्रभु मूरति तिन्ह देखी तैसी।।

देखहिं रूप महा रनधीरा। मनहुँ बीर रसु धरें सरीरा।।

डरे कुटिल नृप प्रभुहि निहारी। मनहुँ भयानक मूरति भारी।।

रहे असुर झल छोनिप बेषा। तिन्ह प्रभु प्रगट कालसम देखा।।

पुरबासिन्ह देखे दोउ भाई। नरभूषन लोचन सुखदाई।।

दोहा-नारि बिलोकहिं हरषि हियँ निज निज रुचि अनुरूप।

जनु सोहत सिंगार धरि मूरति परम अनूप।।241।।

बिदुषन्ह प्रभु बिराटमय दीसा। बहु मुख कर पग लोचन सीसा।।

जनक जाति अवलोकहिं कैसें। सजन सगे प्रिय लागहिं जैसें।।

सहित बिदेह बिलोकहिं रानी। सिसु सम प्रीति न जाति बखानी।।

जोगिन्ह परम तत्त्वमय भासा। सांत सुद्ध सम सहज प्रकासा।।

                                      

हरिभगतन्ह देखे दोउ भ्राता। इष्टदेव इव सब सुख दाता।।

रामहि चितव भायँ जेहि सीया। सो सनेहु सुखु नहिं कथनीया।।

उर अनुभवति न कहि सक सोऊ। कवन प्रकार कहै कबि कोऊ।।

एहि बिधि रहा जाहि जस भाऊ। तेहिं तस देखेउ कोसलराऊ।।

दोहा-राजत राज समाज महुँ कोसलराज किसोर।

सुंदर स्यामल गौर दन बिस्व बिलोचन चोर।।242।।

सहज मनोहर मूरित दोऊ। कोटि काम उपमा लघु सोऊ।।

सरद चंद निंदक मुख नीके। नीरज नयन भावते जी के।।

चितवनि चारु मार मनु हरनी। भावति हृदय जाति नहिं बरनी।।

कल कपोल श्रुति कुंडल लोला। चिबुक अधर सुंदर मृदु बोला।।

कुमुदबंधु कर निंदक हाँसा। भृकुटी बिकट मनोहरनासा।।

भाल बिसाल तिलक झलकासीं। कच बिलोकि अलि अवलि लजाहीं।।

पीत चौतनीं सिरन्हि सुहाईं। कुसुम कलीं बिच बीच बनाईं।।

रेखें रुचिर कंबु कल गीवाँ। जनु त्रिभुवन सुषमा की सीवाँ।।

दोहा-कुंजर मनि कंठा कलित उरन्हि तुलसिका माल।

बृषभ कंध केहरि ठवनि बल निधि बाहू बिसाल।।243।।

                                      

कटि तूनीर पीत पट बाँधें। कर सर धनुष बाम बर काँधें।।

पीत जग्य उपबीत सुहाए। नख सिख मंजु महाछबि छाए।।

देखि लोग सब भए सुखारे। एक टक लोचन चलत न तारे।।

हरषे जनकु देखि दोउ भाई। मनु पद कमल गहे तब जाई।।

करि बिनती निज कथा सुनाई। रंग अवनि सब मुनिहि देखाई।।

जहँ जहँ जाहिं कुअँर बर दोऊ। तहँ तहँ चकित चितब सबु कोऊ।।

निज निज रुख रामहि सबु देखा। कोउ न जान कछु मरमु बिसेषा।।

भलि रचना मुनि नृप सन कहेऊ। राजाँ मुदित महासुख लहेऊ।।

दोहा-सब मंचन्ह तें मंचु एक सुंदर बिसद बिसाल।

मुनि समेत दोउ बंधु तहँ बैठारे महिपाल।।244।।

प्रभुहि देखि सब नृप हियँ हारे। जनु राकेस उदय भएँ तारे।।

असि प्रतीति सब के मन माहीं। राम चाप तोरब सक नाहीं।।

बिनु भंजेहुँ भव धनुषु बिसाला। मेलिहि सीय राम उर माला।।

अस बिचारि गवनहु घर भाई। जसु प्रतापु बलु तेजु गवाँई।।

बिहसे अपर भूप सुनि बानी। जे अबिबेक अंध अभिमानी।।

तोरेहुँ धनुषु ब्याहु अवगाहा। बिनु तोरें को कुअँरि बिआहा।।

                                      

एक बार कालउ किन होऊ। सिय हित समर जितब हम सोऊ।।

यह सुनि अवर महिप मुसुकाने। धरमसील हरिभगत सयाने।।

सोरठा-सीय बिआहबि राम गरब दूरि करि नृपन्ह के।

जीति को सक संग्राम दसरथ के रन बाँकुरे।।245।।

ब्यर्थ मरहु जनि गाल बजाई। मन मोदकन्हि कि भूख बुताई।।

सिख हमारि सुनि परम पुनीता। जगदंबा जानहु जियँ सीता।।

जगत पिता रघुपतिहि बिचारी। भरि लोचन छबि लेहु निहारी।।

सुंदर सुखद सकल गुन रासी। ए दोउ बंधु संभु उर बासी।।

सुधा समुद्र समीप बिहाई। मृगजलु निरखि मरहु कत धाई।।

करहु जाइ जा कहुँ जोइ भावा। हम चौ आजु जनम फलु पावा।।

अस कहि भले भूप अनुरागे। रूप अनूप बिलोकन लागे।।

देखन्हि सुर नभ चढ़े बिमाना। बरषहिं सुमन करहिं कल गाना।।

दोहा-जानि सुअवसरु सीय तब पठई जनक बोलाइ।

चतुर सखीं सुंदर सकल सादर चलीं लवाइ।।246।।

सिय सोभा नहिं जाइ बखानी। जगदंबिका रूप गुन खानी।।

उपमा सकल मोहि लघु लागीं। प्राकृत नारि अंग अनुरागीं।।

                                      

सिय बरनिअ तेइ उपमा देई। कुकबि कहाइ अजसु को लेई।।

जौं पटतरिअ तीय सम सीया। जग असि जुबति कहाँ कमनीया।।

गिरा मुखर तन अरध भवानी। रति अति दुखित अतनु पति जानी।।

बिष बारुनी बंधु प्रिय जेही। कहिअ रमासम किमि बैदेही।।

जौं छबि सुधा पोयनिधि होई। परम रूपमय कच्छपु सोई।।

सोभा रजु मंदरु सिंगारू। मथै पानि पंकज निज मारू।।

दोहा-एहि बिधि उपजै लच्छि जब सुंतरता सुख मूल।

तदपि सकोच समेत कबि कहहिं सीय समतूल।।247।।

चलीं संग लै सखीं सयानी। गावत गीत मनोहर बानी।।

सोह नवल तनु सुंदर सारी। जगत जननि अतुलित छबि भारी।।

भूषन सकल सुदेस सुहाए। अंग अंग रचि सखिन्ह बनाए।।

रंगभूमि जब सिय पगु धारी। देखि रूप मोहे नर नारी।।

हरषि सुरन्ह दुंदुभीं बजाईं। बरषि प्रसून अपछरा गाईं।।

पानि सरोज सोह जयमाला। अवचट चितए सकल भुआला।।

सीय चकित चित रामहि चाहा। भए मोहबस सब नरनाहा।।

मुनि समीप देखे दोउ भाई। लगे ललकि लोचन निधि पाई।।

                                      

दोहा-गुरजन लाज समाजु बड़ देखइ सीय सकुचानि।

लागि बिलोकन सखिन्ह तन रघुबीरहि उर आनि।।248।।

राम रूपु अरु सिय छबि देखें। नर नारिन्ह परिहरीं निमेषें।।

सोचहिं सकल कहत सकुचाहीं। बिधि सन बिनय करहिं मन माहीं।।

हरु बिधि बेगि जनक जड़ताई। मति हमारि असि देहि सुहाई।।

बिनु बिचार पनु तजि नरनाहू। सीय राम कर करै बिबाहू।।

जगु भल कहिहि भाव सब काहू। हठ कीन्हें अंतहुँ उर दाहू।।

एहिं लालसाँ मगन सब लोगू। बरु साँवरो जानकी जोगू।।

तब बंदीजन जनक बोलाए। बिरिदावली कहत चलि आए।।

कह नृपु जाइ कहहु पन मोरा। चले भाट हियँ हरषु न थोरा।।

दोहा-बोले बंदी बचन बर सुनहु सकल महिपाल।

पन बिदेह कर कहहिं हम भुजा उठाइ बिसाल।।249।।

नृप भुजबलु बिधु सिवधनु राहू। गरुअ कठोर बिदित सब काहू।।

रावनु बानु महाभट भारे। देखि सरासन गवँहिं सिधारे।।

सोइ पुरारि कोदंडु कठोरा। राज समाज आजु जोइ तोरा।।

त्रिभुवन जय समेत बैदेही। बिनहिं बिचार बरइ हठि तेही।।

                                      

सुनि पन सकल भूप अभिलाषे। भटमानी अति सय मन माखे।।

परिकर बाँधि उठे अकुलाई। चले इष्टदेवन्ह सिर नाई।।

तमकि ताकि तकि सिवधनु धरहीं। उठइ न कोटि भाँति बलु करहीं।।

जिन्ह के कछु बिचारु मन माहीं। चाप समीप महीप न जाहीं।।

दोहा-तमकि धरहिं धनु मूढ़ नृप उठइ न चलहिं लजाइ।

मनहुँ पाइ भट बाहुबलु अधिकु अधिकु गरुआइ।।250।।

भूप सहस दस  एकहि बारा। लगे उठावन टरइ न टारा।।

डगइ न संभु सरासनु कैसें। कामी बचन सती मनु जैसें।।

सब नृप भए जोगू उपहासी। जैसें बिनु बिराग संन्यासी।।

कीरति बिजय बीरता भारी। चले चाप कर बरबस हारी।।

श्रीहत भए हारि हियँ राजा। बैठे निज निज जाइ समाजा।।

नृपन्ह बिलोकि जनकु अकुलाने। बोले बचन रोष जनु साने।।

दीप दीप के भूपति नाना। आए सुनि हम जो पनु ठाना।

देव दनुज धरि मनुज सरीरा। बिपुल बीर आए रनधीरा।।

दोहा-कुअँरि मनोहर बिजय बड़ि कीरति अति कमनीय।

पावनिहार बिरंचि जनु रचेउ न धनु दमनीय।।251।।

                                      

कहहु काहि यहु लाभु न भावा। काहुँ न संकर चाप चढ़ावा।।

रहउ चढ़ाउब तोरब भाई। तिलु भरि भूमि न सके छड़ाई।।

अब जनि कोउ माखै भट मानी। बीर बिहीन मही मैं जानी।।

तजहु आस निज निज गृह जाहू। लिखा न बिधि बैदेहि बिबाहू।।

सुकृत जाइ जौं पनु परिहरऊँ। कुअँरि कुआरि रहउ का करऊँ।।

जौं जनतेउँ बिनु भट भुबि भाई। तौ पनु करि होतेउँ न हँसाई।।

जनक बचन सुनि सब नर नारी। देखि जानकिहि भए दुखारी।।

माखे लखनु कुटिल भइँ भौहें। रदपट फरकत नयन रिसौंहें।।

दोहा-कहि न सकत रघुबीर डर लगे बचन जनु बान।

नाइ राम पद कमल सिरु बोले गिरा प्रमान।।252।।

रघुबंसिन्ह महुँ जहँ कोउ होई। तेहिं समाज अस कहइ न कोई।।

कहि जनक जसि अनुचित बानी। बिद्यामान रघुकुल मनि जानी।।

सुनहु भानुकुल पंकज भानू। कहउँ सुभाउ न कछु अभिमानू।।

जौं तुम्हारि अनुसासन पावौं। कंदुक इव ब्रह्मांड उठावौं।।

काचे घट जिमि डारौं फौरी। सकउँ मेरु मूलक जिमि तोरी।।

तव प्रताप महिमा भगवाना। को पापुरो पिनाक पुराना।।

                                      

नाथ जानि अस आयसु होऊ। कौतुकु करौं बिलोकिअ सोऊ।।

कमल नाल जिमि चाप चढ़ावौं जोजन सत प्रमान लै धावौं।।

दोहा-तोरौं छत्रक दंड जिमि तव प्रताप बल नाथ।

जौं न करौं प्रभु पद सपथ कर न धरौं धनु भाथ।।253।।

लखन सकोप बचन जे बोले। डगमगानि महि दिग्गज डोले।।

सकल लोग सब भूप डेराने। सिय हियं हरषु जनकु सकुचाने।।

गुर रघुपति सब मुनि मन माहीं। मुदित भए पुनि पुनि पुलकाहीं।।

सयनहिं रघुपति लखनु नेवारे। प्रेम समेत निकट बैठारे।।

बिस्वामित्र समय सुभ जानी। बोले अति सनेहमय बानी।।

उठहु राम भंजहु भवचापा। मेटहु तात जनक परितापा।।

सुनि गुरु बचन चरन सिरु नावा। हरषु बिषादु न कछु उर आवा।।

ठाढ़े भए उठि सहज सुभाएँ। ठवनि जुबा मृगराजु लजाएँ।।

दोहा-उदित उदयगिरि मंच पर रघुबर बालपतंग।

बिकसे संत सरोज सब हरषे लोचन भृंग।।254।।

नृपन्ह केरि आसा निसि नासी। बचन नखत अवली न प्रकासी।।

मानी महिप कुमुद सकुचाने। कपटी भूप उलूक लुकाने।।

                                      

भए बिसोक कोक मुनि देवा। बरिसहिं सुमन जनावहिं सेवा।।

गुर पद बंदि सहित अनुरागा। राम मुनिन्ह सन आयसु मागा।।

सहजहिं चल सकल जग स्वामी। मत्त मंजु बर कुंजर गामी।।

चलत राम सब पुर नर नारी। पुलक पूरि तन भए सुखारी।।

बंदि पितर सुर सुकृत सँभारे। जौं कछु पुन्य प्रभाउ हमारे।।

तौ सिवधनु मृनाल की नाईं। तोरहुँ रामु गनेस गोसाईं।।

दोहा-रामहि प्रेम समेत लखि सखिन्ह समीप बोलाइ।

सीता मातु सनेह बस बचन कहइ बिलखाइ।।255।।

सखि सब कौतुकु देखनिहारे। जेउ कहावत हितू हमारे।।

कोउ न बुझाइ कहइ गुर पाहीं। ए बालक असि हठ भलि नाहीं।।

रावन बान छुआ नहिं चापा। हारे सकल भूप करि दापा।।

सो धनु राजकुअँर कर देहीं। बाल मराल कि मंदर लेहीं।।

भूप सयानप सकल सिरानी। सखि बिधि गति कछु जाति न जानी।।

बोली चतुर सखी मृदु बानी। तेजवंत लघु गनिअ न रानी।।

कहँ कुंभज कहँ सिंधु अपारा। सोषेउ सुजसु सकल संसारा।।

रबि मंडल देखत लघु लागा। उदयँ तासु तिभुवन तम भागा।।

दोहा-मंत्र परम लघु जासु बस बिधि हरि हर सुर सर्ब।

                                      

महामत्त गजराज कहुँ बस कर अंकुस खर्ब।।256।।

काम कुसुम धनु सायक लीन्हे। सकल भुवन अपनें बस कीन्हे।।

देबि तजिअ संसउ अस जानी। भंजब धनुषु राम सुनु रानी।।

सखी बचन सुनि भै परतीती। मिटा बिषादु बढ़ी अति प्रीती।।

तब रामहि बिलोकि बैदेही। सभय हृदयँ बिनवति जेहि तेही।।

मनहीं मन मनाव अकुलानी। होहु प्रसन्न महेस भवानी।।

करहु सफल आपनि सेवकाई। करि हितु हरहु चाप गरुआई।।

गननायक बरदायक देवा। आजु लगें कीन्हिउँ तुअ सेवा।।

बार बार बिनती सुनि मोरी। करहु चाप गुरुता अति थोरी।।

दोहा-देखि देखि रघुबीर तन सुर मनाव धरि धीर।

भरे बिलोचन प्रेम जल पुलकावली सरीर।।257।।

नीकें निरखि नयन भरि सोभा। पितु पनु सुमिरि बहुरि मनु छोभा।।

अहह तात दारुनि हठ ठानी। समुझत नहिं कछु लाभु न हानी।।

सचिव सभय सिख देह न कोई। बुध समाज बड़ अनुचित होई।।

कहँ धनु कुलिसहु चाहि कठोरा। कहँ स्यामल मृदुगात किसोरा।।

बिधि केहि भाँति धरौं उर धीरा। सिरस सुमन कन बेधिअ हीरा।।

                                      

सकल सभा कै मति भै भोरी। अब मोहि संभुचाप गति तोरी।।

निज जड़ता लोगन्ह पर डारी। होहि हरुअ रघुपतिहि निहारी।।

अति परिताप सीय मन माहीं। लव निमेष जुग सय सम जाहीं।।

दोहा-प्रभुहि चितइ पुनि चितव महि राजत लोचन लोल।

खेलत मनसिज मीन जुग जनु बिधु मंडल डोल।।258।।

गिरा अलिनि मुख पंकज रोकी। प्रगट न लाज निसा अवलोकी।।

लोचन जलु रह लोचन कोना। जैसें परम कृपन कर सोना।।

सकुची ब्याकुलता बड़ि जानी। धरि धीरजु प्रतीति उर आनी।।

तन मन बचन मोर पनु साचा। रघुपति पद सरोज चितु राचा।।

तौ भगवानु सकल उर बासी। करिहि मोहि रघुबर कै दासी।।

जेहि कें जेहि पर सत्य सनेहू। सो तेहि मिलइ न कछु संदेहू।।

प्रभु तन चितइ प्रेम तन ठानी। कृपानिधान राम सबु जाना।।

सियहि बिलोकि तकेउ धनु कैसें। चितव गरुरु लघु ब्यालहि जैसें।।

दोहा-लखन लखेउ रघुबंसमनि ताकेउ हर कोदंडु।

पुलकि गात बोले बचन चरन चापि ब्रह्मांडु।।259।।

दिसिकुंजरहु कमठ अहि कोला। धरहु धरनि धरि धीर न डोला।।

                                      

रामु जहहिं संकर धनु तोरा। होहु सजग सुनि आयसु मोरा।।

चाप समीप रामु जब आए। नर नारिन्ह सुर सुकृत मनाए।।

सब कर संसउ अरु अग्यानू। मंद महीपन्ह कर अभिमानू।।

भृगुपति केरि गरब गरुआइ। सुर मुनिबरन्ह केरि कदराई।।

सिय कर सोचु जनक पछितावा। रानिन्ह कर दारुन दुख दावा।।

संभुचाप बड़ बोहितु पाई। चढ़े जाइ सब संगु बनाई।।

राम बाहुबल सिंधु अपारू। चहत पारु नहिं कोउ कड़हारू।।

दोहा-राम बिलोके लोग सब चित्र लिखे से देखि।

चितई सीय कृपायतन जानी बिकल बिसेषि।।260।।

देखी बिपुल बिकल बैदेही। निमिष बिहात कलप सम तेही।।

तृषित बारि बिनु जो तनु त्यागा। मुएँ करइ का सुधा तड़ागा।।

का बरषा सब कृषी सुखानें। समय चुकें पुनि का पछिताने।।

अस जियँ जानि जानकी देखी। प्रभु पुलके लखि प्रीति बिसेषी।।

गुरहि प्रनामु मनहिं मन कीन्हा। अति लाघवँ उठाइ धनु लीन्हा।।

दमकेउ दामिनि जिमि जब लयऊ। पुनि नभ धनु मंडल सम भयउ।।

लेत चढ़ावत खैंचत गाढ़ें। काहुँ न लखा देख सबु ठाढ़ें।।

                                      

तेहि छन राम मध्य धनु तोरा। भरे भुवन धुनि घोर कठोरा।।

छन्द-भरे भुवन घोर कठोर रव रबि बाजि तजि मारगु चले।

चिक्करहिं दिग्गज जोल महि अहि कोल कूरुम कलमले।।

सुर असुर मुनि कर कान दीन्हें सकल बिकल बिचारहीं।।

कोदंड खंडेउ राम तुलसी जयति बचन उचारहीं।।

सोरठा-संकर चापु जहाजु सागरु रघुबर बाहुबलु।

बूड़ सो सकल समाजु चढ़ा जो प्रथमहिं मोह बस।।261।।

प्रभु दोउ चापखंड महि डारे। देखि लोग सब भए सुखारे।।

कौसिकरूप पयोनिधि पावन। प्रेम बारि अवगाहु सुहावन।।

रामरूप राकेसु निहारी। बढ़त बीचि पुलकावलि भारी।।

बाजे नभ गहगहे निसाना। देवबधु नाचहिं करि गाना।।

ब्रह्मादिक सुर सिद्ध मुनीसा। प्रभुहि प्रसंसहिं देहिं असीसा।।

बरिसहिं सुमन रंग बहु माला। गावहिं किंनर गीत रसाला।।

रहि भुवन भरि जय जय बानी। धनुषभंग धुनि जात न जानी।।

मुदित कहहिं जहँ तहँ नर नारी। भंजेउ राम संभुधनु भारी।।

दोहा-बंदी मागध सूतगन बिरुद बदहिं मतिधीर।

                                      

करहिं निछावर लोग सब हय गय धन मनि चीर।।262।।

झाँझि मृदंग संख सहनाई। भेरि ढोल दुंदुभी सुहाई।।

बाजहिं बहु बाजने सुहाए। जहँ तहँ जुबतिन्ह मंगल गाए।।

सखिन्ह सहित हरषी अति रानी। सूखत धान पर जनु पानी।।

जनक लहेउ सुखु सोचु बिहाई। पैरत थकें थाह जनु पाई।।

श्रीहत भए भूप धनु टूटे। जैसें दिवस दीप छबि छूटे।।

सीय सुखहि बरनिअ केहि भाँती। जनु चातकी पाइ जलु स्वाती।।

रामहि लखनु बिलोकत कैसें। ससिहि चकोर किसोरकु जैसें।।

सतानंद तब आयसु दीन्हा। सीताँ गमनु राम पहिं कीन्हा।।

दोहा-संग सखीं सुंदर चतुर गावहिं मंगलचार।

गवनी बाल मराल गति सुषमा अंग अपार।।263।।

सखिन्ह मध्य सिय सोहति कैसें। छबिगन मध्य महाछबि जैसें।।

कर सरोज जयमाल सुहाई। बिस्व बिजय सोभा जेहिं छाई।।

तन सकोचु मन परम उछाहू। गूढ़ प्रेमु लखि परइ न काहू।।

जाइ समीप राम छबि देखी। रहि जनु कुअँरि चित्र अवरेखी।।

चतुर सखीं लखि कहा बुझाई। पहिरावहु जयमाल सुहाई।।

                                      

सुनत जुगल कर माल उठाई। प्रेम बिबस पहिराइ न जाई।।

सोहत जनु जुग जलज सनाला। ससिहि सभीत देत जयमाला।।

गावहिं छबि अवलोकि सहेली। सियँ जयमाला राम उर मेली।।

सोरठा-रघुबर उर जयमाल देखि देव बरिसहिं सुमन।

सकुचे सकल भुआल जनु बिलोकि रबि कुमुदगन।।264।।

पुर अरु ब्योम बाजने बाजे। खल भए मलिन साधु सब राजे।।

सुर किंनर नर नाग मुनीसा। जय जय जय कहि देहिं असीसा।।

नाचहिं गावहिं बिबुध बधूटीं। बार बार कुसुमांजलि छूटीं।।

जहँ तहँ बिप्र बेदधुनि करहीं। बंदी बिरिदावलि उच्चरहीं।।

महि पाताल नाक जसु ब्यापा। राम बरी सिय भंजेउ चापा।।

करहिं आरती पुर नर नारी। देहिं निछावरि बित्त बिसारी।।

सोहति सीय राम कै जोरी। छबि सिंगारु मनहुँ एक ठोरी।।

सखीं कहहिं प्रभुपद गहु सीता। करति न चरन परस अति भीता।।

गौतम तिय गति सुरति करि नहिं परसतिपग पानि।

मन बिहसे रघुबंसमनि प्रीति अलौकिक जानि।।265।।

तब सिय देखि भूप अभिलाषे। क्रूर कपूत मूढ़ मन माखे।।

                                      

उठि उठि पहिरि सनाह अभागे। जहँ तहँ गाल बजावन लागे।।

लेहु छड़ाइ सीय कह कोऊ। धरि बाँधहु नृप बालक दोऊ।।

तोरें धनुषु चाड़ नहिं सरई। जीवत हमहि कुआँरि को बरई।।

जौं बिदेहु कछु  करै सहाई। जीतहु समर सहित दोउ भाई।।

साधु भूप बोले सुनि बानी। राजसमाजहि लाज लजानी।।

बलु प्रतापु बीरता बड़ाई। नाक पिनाकहि संग सिधाई।।

सोइ सूरता कि अब कहुँ पाई। असि बुधि तौ बिधि मुहँ मसि लाई।।

दोहा-देखहु रामहि नयन भरि तजि इरिषा मदु कोहु।

लखन रोषु पावकु प्रबल जानि सलभ जनि होहु।।266।।

बैनतेय बलि जिमि चह कागू। जिमि ससु चहै नाग अरि भागू।।

जिमि जह कुसल अकारन कोही। सब संपदा चहै सिवद्रोही।।

लोभी लोलुप कल कीरति चहई। अकलंकता कि कामी लहई।।

रि पद बिमुख परम गति चाहा। तस तुम्हार लालचु नरनाहा।।

कोलाहलु सुनि सीय सकानी। सखीं लबाइ गईं जहँ रानी।।

रामु सुभायँ चले गुरु पाहीं। सिय सनेहु बरनत मन माहीं।।

रानिन्ह सहित सोचबस सीया। अब धौं बिधिहि काह करनीया।।

                                      

भूप बचन सुनि इत उत तकहीं। लखनु राम डर बोलि न सकहीं।।

दोहा-अरुन नयन भृकुटी कुटिल चितवत नृपन्ह सकोप।

मनहुँ मत्त गजगन निरखि सिंघकिसोरहि चोप।।267।।

खरभरु देखि बिकल पुर नारीं। सब मिलि देहिं महीपन्ह गारीं।।

तेहिं अवसर सुनि सिव धनु भंगा। आयउ भृगुकुल कमल पतंगा।।

देखि महीप सकल सकुचाने। बाज झपट जनु लवा लुकाने।।

गौरि सरीर भूति भल भ्राजा। भाल बिसाल त्रिपुंड बिराजा।।

सीस जटा ससिबदनु सुहावा। रिसबस कछुक अरुन होइ आवा।।

भृकुटी कुटिल नयन रिस राते। सहजहुँ चितवत मनहुँ रिसाते।।

बृषभ कंध उर बाहु बिसाला। चारु जनेउ माल मृगछाला।।

कटि मुनिबसन तून दुइ बाँधें। धनु सर कर कुठारु कल काँधें।।

दोहा-सांत बेषु करनी कठिन बरनि न जाइ सरूप।

धरि मुनितनु जनु बीर रसु आयउ जहँ सब भूप।।268।।

देखत भृगुपति बेषु कराला। उठे सकल भय बिकलभुआला।।

पितु समेत कहि कहि निज नामा। लगे करन सब दंड प्रनामा।।

जेहि सुभायँ चितवहिं हितु जानी। सो जानइ जनु आइ खुटानी।।

                                      

जनक बहोरि आइ सिरु नावा। सीय बोलाइ प्रनामु करावा।।

आसिष दीन्हि सखीं हरषानीं। निज समाज लै गईं सयानीं।।

बिस्वामित्रु मिल पुनि आई। पद सरोज मेले दोउ भाई।।

रामु लखनु दसरथ के ढोटा। दीन्हि असीस देखइ भल जोटा।।

रामहि चितइ रहे थकि लोचन। रूप अपार मार मद मोचन।।

दोहा-बहुरि बिलोकि बिदेह सन कहहु काह अति भीर।

पूछत जानि अजान जिमि ब्यापेउ कोपु सरीर।।269।।

समाचार कहि जनक सुनाए। जेहि कारन महिप सब आए।।

सुनत बचन फिरि अनत निहारे। देखे चापखंड महि डारे।।

अति रिस बोले बचन कठोरा। कहु जड़ जनक धनुष कै तोरा।।

बेगि देखाउ मूढ़ न त आजू। उलटउँ महि जहँ लहि तव राजू।।

अति डरु उतरु देत नृपु नाहीं। कुटिल भूप हरषे मन माहीं।।

सुर मुनि नाग नगर नर नारी। सोचहिं सकल त्रास उर भारी।।

मन पछिताति सीय महतारी। बिधि अब सँवरी बात बिगारी।।

भृगुपति कर सुभाउ सुनि सीता। अरध निमेष कलप सम बीता।।

दोहा-सभय बिलोके लोग सब जानि जानकी भीरु।

                                      

हृदयँ न हरषु बिषादु कछु बोले श्रीरघुबीरु।।270।।

नाथ संभुधनु भंजनिहारा। होइहि केउ एक दास तुम्हारा।।

आयसु काह कहिअ किन मोही। सुनि रिसाइ बोले मुनि कोही।।

सेवकु सो जो करै सेवकाई। अरि करनी करि अरिअ लराई।।

सुनहु राम जेहिं सिवधनु तोरा। सहसबाहु सम सो रिपु मोरा।।

सो बिलगाउ बिहाइ समाजा। न त मारे जैहहिं सब राजा।।

सुनि मुनि बचन लखन मुसुकाने। बोले परसुधरहि अपमाने।।

हु धनुहीं तोरीं लरिकाईं। कबहुँ न असि रिस कीन्हि गोसाईं।।

एहि धनु पर ममता केहि हेतू। सुनि रिसाइ कह भृगुकुलकेतु।।

दोहा-रे नृपबालक काल बस बोलत तोहि न सँभार।

धनुही सम तिपुरारि धनु बिदित सकल संसार।।271।।

लखन कहा हँसि हमरें जाना। सुनहु देव सब धनुष समाना।।

का छति लाभु जून धनु तोरें। देखा राम नयन के भोरें।।

छुअत टूट रघुपतिहु न दोसू। मुनि बिनु काज करिअ कत रोसू।।

बोले चितइ परसु की ओरा। रे सठ सुनेहि सुबाउ न मोरा।।

बालकु बोलि बधउँ नहिं तोहि। केवल मुनि जड़ जानहि मोहि।।

                                      

बाल ब्रह्मचारी अति कोही। बिस्व बिदित छत्रियकुल द्रोही।।

भुजबल भूमि भूप बिनु कीन्ही। बिपुल बार महिदेवन्ह दीन्ही।।

सहसबाहु भज छेदनिहारा। परसु बिलोकु महीपकुमारा।।

दोहा-मातु पितहि जनि सोचबस करसि महीसकिसोर।

गर्भन्ह के अर्भक दलन परसु मोर अति घोर।।272।।

बिहसि लखनु बोले मृदु बानी। अहो मुनीसु महा भटमानी।।

पुनि पुनि मोहि देखाव कुठारू। चहत उड़ावन फूँकि पहारू।।

इहाँ कुम्हड़बतिया कोउ नाहीं। जे तरजनी देखि मरि जाहीं।।

दखि कुठारु सरासन बाना। मैं कछु कहा सहित अभिमाना।।

भृगुसुत समुझि जनेउ बिलोकी। जो कछु कहहु सहउँ रिस रोकी।।

सुर महिसुर हरिजन अरु गाई। हमरें कुल इन्ह पर न सुराई।।

बधें पापु अपकीरति हारें। मारतहूँ पा परिअ तुम्हारें।।

कोटि कुलिस सम बचनु तुम्हारा। ब्यर्थ धरहु धनु बान कुठारा।।

दोहा-जो बिलोकि अनुचित कहेउँ छमहु महामुनि धीर।

सुनि सरोष भृगुबंसमनि बोले गिरा गभीर।।273।।

कौसिक सुनहु मंद यहु बालकु। कुटिल कालबस निज कुल घालकु।।

                                      

भानु बंस राकेस कलंकू। निपट निरंकुस अबुध असंकू।।

काल कवलु होइहि छन माहीं। कहउँ पुकारि खोरि मोहि नाहीं।।

तुम्ह हटकहु जौं चहहु उबारा। कहि प्रतापु बलु रोषु हमारा।।

लखन कहेउ मुनि सुजसु तुम्हारा। तुम्हहि अछत को बरनै पारा।।

अपने मुँह तुम्ह आपनि करनी। बार अनेक भाँति बहु बरनी।।

नहिं संतोषु त पुनि कछु कहहू। जनि रिस रोकि दुसह दुख सहहू।।

बीरब्रती तुम्ह धीर अछोभा। गारी देत न पावहु सोभा।।

दोहा-सूर समर करनी करहिं कहि न जनावहिं आपु।

बिद्यामान रन पाइ रिपु कायर कथहिं प्रतापु।।274।।

तुम्ह तौ कालु हाँक जनु लावा। बार बार मोहि लागि बोलावा।।

सुनत लखन के बचन कठोरा। परसु सुधारि धरेउ कर घोरा।।

अब जनि  देइ दोसु मोहि लोगू। कटुबादी बालकु बधजोगू।।

बाल बिलोकि बहुत मैं बाँचा। अब यहु मरनिहार भा साँचा।।

कौसिक कहा छमिअ अपराधू। बाल दोष गुन गनहिं न साधू।।

खर कुठार मैं अकरुन कोही। आगें अपराधी गुरुद्रोही।।

उतर देत छोड़उँ बिनु मारें। केवल कौसिक सील तुम्हारें।।

                                      

न त एहि काटि कुठार कठोरें। गुरहि उरिन होतेउँ श्रम थोरें।।

दोहा-गाधिसूनु कह हृदयँ हँसि मुनिहि हरिअरइ सूझ।

अयमय खाँड़ नऊखमय अजहुँ न बूझ अबूझ।।275।।

कहेउ लखन मुनि सीलु तुम्हारा। को नहिं जान बिदित संसारा।।।

माता पितहि उरिन भए नीकें। गुर रिनु रहा सोचु बड़ जीकें।।

सो जनु हमरेहि माथे काढ़ा। दिन चलि गए ब्याज बड़ बाढ़ा।।

अब आनिअ ब्यवहरिआ बोली। दुरत देउँ मैं थैली खोली।।

सुनि कटु बचन कुठार सुधार। हाय हाय सब सभा पुकारा।।

भृगुबर परसु देखावहु मोही। बिप्र बिचारि बचउँ नृपद्रोही।।

मिले न कबहुँ सुभट रन गाढ़े। द्विज देवता घरहि के बाढ़े।।

अनुचित कहि सब लोग पुकारे। रघुपति सयनहिं लखनु नेवारे।।

दोहा- लखन उतर आहुति सरिस भृगुबर कोपु कृसानु।

बढ़त देखि जल सम बचन बोले रघुकुलभानु।।276।।

नाथ करहु बालक पर छोहू। सूध दूधमुख करिअ न कोहू।।

जों पै प्रभु प्रभाउ कछु जाना। तौ कि बराबरि करत अयाना।।

जौं लरिका कछु अचगरि करहीं। गुर पितु मातु मोद मन भरहीं।।

                                      

करिअ कृपा सिसु सेवक जानी। तुम्ह सम सील धीर मुनि ग्यानी।।

राम बचन सुनि कछुक जुड़ाने। कहि कछु लखनु बहुरि मुसुकाने।।

हँसत देखि नख सिख रिस ब्यापी। राम तोर भ्राता बड़ पापी।।

गौर सरीर स्याम मन माहीं। कालकूटमुख पयमुख नाहीं।।

सहज टेढ़ अनुहरइ न तोही। नीचु मीचु सम देख न मोही।।

दोहा-लखन कहेउ हँसि सुनहु मुनि क्रोधु पाप कर मूल।

जेहि बस जन अनुचित करहिं चरहिं बिस्व प्रतिकूल।।277।।

मैं तुम्हार अनुचर मुनिराया। परिहरि कोपु करिअ अब दाया।

टूट चाप नहिं जुरिहि रिसाने। बैठिअ होइहिं पाय पिराने।।

जौं अति प्रिय तौ करिअ उपाई। जोरिअ कोउ बड़ गुनी बोलाई।।

बोलत लखनहिं जनकु डेराहीं। मष्ट करहु अनुचित भल नाहीं।।

थर थर काँपहिं पुर नर नारी। छोट कुमार खोट बड़ भारी।।

भृगुपति सुनि सुनि निरभय बानी। रिस तन जरइ होइ बल हानी।।

बोले रामहि देइ निहोरा। बचउँ बिचारी बंधु लघु तोरा।।

मनु मलीन तनु संदर कैसें। बिष रस भरा कनक घटु जैसें।।

दोहा-सुनि लछिमन बिहसे बहुरि नयन तरेरे राम।

                                      

गुर समीप गवने सकुचि परिहरि बानी बाम।।278।।

अति बिनीत मृदु सीतल बानी। बोले रामु जोरि जुग पानी।।

सुनहु नाथ तुम्ह सहज सुजाना। बालक बचनु करिअ नहिं काना।।

बररै बालकु एकु सुभाऊ। इन्हहि न संत बिदूषहिं काऊ।।

तेहिं नाहीं कछु काज बिगारा। अपराधी मैं नाथ तुम्हारा।।

कृपा कोपु बंधु बँधब गोसाईं। मो पर करिअ दास की नाईं।।

कहिअ बेगि जेहि बिधि रिस जाई। मुनिनायक सोइ करौं उपाई।।

कह मुनि राम जाइ रिस कैसें। अजहुँ अनुज तब चितव अनैसें।।

एहि कें कंठ कुठारु न दीन्हा। तौ मैं काह कोपु करि कीन्हा।।

दोहा-गर्भ स्रवहिं अवनिप रवनि सुनि कुठार गति घोर।

परसु अछत देखउँ जिअत बैरी भूपकिसोर।।279।।

बहइ न हाथु दहइ रिस छाती। भा कुठारु कुंठित नृपघाती।।

भयउ बाम बिधि फिरेउ सुभाऊ। मोरे हृदयँ कृपा कसि काऊ।।

आजु दया दुखु दुसह सहावा। सुनि सौमित्र बिहसि सिरु नावा।।

बाउ कृपा मूरति अनुकूला। बोलत बचन झरत जनु फूला।।

जौं पै कृपाँ जरिहिं मुनि गाता। क्रोध भएँ तनु राख बिधाता।।

                                      

देखु जनक हठि बालकु एहू। कीन्ह चहत जड़ जमपुर गेहू।।

बेगि करहु किन आँखिन्ह ओटा। देखत छोट खोट नृप ढोटा।।

बिहसे लखनु कहा मन माहीं। मूदें आँखि कतहुँ कोउ नाही।।

दोहा- परसुरामु तब राम प्रति बोले उर अति क्रोधु।

संभु सरासनु तोरि सठ करसि हमार प्रबोधु।।280।।

बंधु कहइ कटु संमत तोरें। तू छल बिनय करसि कर जोरें।।

करु परितोषु मोर संग्रामा। नाहिं त छाड़ कहाउब रामा।।

छलु तजि करहि समरु सिवद्रोही। बंधु सहित न त मारउँ तोही।।

भृगुपति बकहिं कुठार उठाएँ। मन मुसुकाहिं रामु सिर नाएँ।।
गुनह लखन कर हम पर रोषू। कतहु सुधाइहु ते बड़ दोषू।।

टेढ़ जानि सब बंदइ काहू। बक्र चंद्रमहि ग्रसइ न राहू।।

राम कहेउ रिस तजिअ मुनीसा। कर कुठारु आगें यह सीसा।।

जेहिं रिस जाइ करिअ सोइ स्वामी। मोहि जानिअ आपन अनुगामी।।

दोहा-प्रभुहि सेवकहि समरु कस तजहु बिप्रबर रोसु।

बेषु बिलोकें कहेसि कछु बालकहू नहिं दोसु।।281।।

देखि कुठार बान धनु धारी। भै लरिकहि रिस बीरु बिचारी।।

                                      

नामु जान पै तुम्हहि न चीन्ह। बंस सुभायँ उतरु तेहिं दीन्हा।।

जौं तुम्ह औतेहु मुनि की नाईं। पद रज सिर सिसु धरत गोसाईं।।

छमहु चूक अनजानत केरी। चहिअ बिप्र उर कृपा घनेरी।।

हमहि तुम्हहि सरिबरि कसि नाथा। कहहु न कहाँ चरन कहँ माथा।।

राम मात्र लघु नाम हमारा। परसु सहित बड़ नाम तोहारा।।

देव एकु गुनु धनुष हमारें। नव गुन परम पुनीत तुम्हारें।।

सब प्रकार हम तुम्ह सन हारे। छमहु बिप्र अपराध हमारे।।

दोहा-बार बार मुनि बिप्रबर कहा राम सन राम।

बोले भृगुपति सरुष हसि तहूँ बंधु सम बाम।।282।।

निपटहिं द्विज करि जानहि  मोही। मैं जस बिप्र सुनावउँ तोही।।

चाप स्रुवा सर आहुति जानू। कोपु मोर अति घोर कृसानु।।

समिधि सेन चतुरंग सुहाई। महा महीप भए पसु आई।।
मैं एहिं परसु काटि बलि दीन्हे। समर जग्य जब कोटिन्ह कीन्हे।।

मोर प्रभाउ बिदित नहिं तोरें। बोलसि निदरि बिप्र के भोरें।।

भंजेउ चापु दापु बड़ बाढ़ा। अहमिति मनहुँ जीति जगु ठाढ़ा।।

राम कहा मुनि कहहु बिचारी। रिस अति बड़ि लघु चूक हमारी।

                                      

छुअतहिं टूट पिनाक पुराना। मैं केहि हेतु करौं अभिमाना।।

दोहा-जौं हम निदरहिं बिप्र बदि सत्य सुनहु भृगुनाथ।

तौ अस को जग सुभटु जेहि भय बस नावहिं माथ।।283।।

देव दनुज भूपति भट नाना। समबल अधिक होउ बलवाना।।

जौं रन हमहि पचारै कोऊ। लरहिं सुखेन कालु किन होऊ।।

छत्रिय तनु धरि समर सकाना। कुल कलंकु तेहि पावँर आना।।

कहउँ सुभाउ न कुलहि प्रसंसी। कालहु डरहिं न रन रघुबंसी।।

बिप्रबंस कै असि प्रभुताई। अभय होइ जो तुम्हहि डेराई।।

सुनि मृदु गूढ़ बचन रघुपति के। उघरे पटल परसुधर मति के।।

राम रमापति कर धनु लेहू। खैंचहु मिटै मोर संदेहू।।

देत चापु आपुहिं चलि गयऊ। परसुराम मन बिसमय भयऊ।।

दोहा-जाना राम प्रभाउ तब पुलक प्रफुल्लित गात।

जोरि पानि बोले बचन हृदयँ न प्रेम अमात।।284।।

जय रघुबंस बनज बन भानू। गहन दनुज कुल दहन कृसानू।।

जय सुर बिप्र धेनु हितकारी। जय मद मोह कोह भ्रम हारी।।

बिनय सील करुना गुन सागर। जयति बचन रचना अति नागर।।

                                      

सेवक सुखद सुभग सब अंगा। जय सरीर छबि कोटि अनंगा।।

करौं काह मुख एक प्रसंसा। जय महेस मन मानस हंसा।।

अनुचित बहुत कहेउँ अग्याता। छमहु छमामंदिर दोउ भ्राता।।

कहि जय जय जय रघुकुलकेतू। भृगुपति गए बनहि तप हेतू।।

अपभयँ कुटिल महीप डेराने। जहँ तहँ कायर गवँहिं पराने।।

दोहा-देवन्ह दीन्हीं दुंदुभी प्रभु पर बरषहिं फूल।

हरषे पुर नर नारि सब मिटी मोहमय सूल।।285।।

अति गहगहे बाजने बाजे। सबहिं मनोहर मंगल साजे।।

जुथ जूथ मिलि सुमुखि सुनयनीं। करहिं गान कल कोकिलबयनीं।।

सुखु बिदेह कर बरनि न जाई। जन्मदरिद्र मनहुँ निधि पाई।।

बिगत त्रास भइ सीय सुखारी। जनु बिधु उदयँ चकोरकुमारी।।

जनक कीन्ह कौसिकहि प्रनामा। प्रभु प्रसाद धनु भंजेउ रामा।।

मोहि कृतकृत्य कीन्ह दुहुँ भाईँ। अब जो उचित सो कहिअ गोसाईं।।

कह मुनि सुनि नरनाथ प्रबीना। रहा बिबाहु चाप आधीना।।

टूटतहिं धनु भयउ बिबाहू। सुर नर नाग बिदित सब काहू।।

दोहा-तदपि जाइ तुन्ह करहु अब जथा बंस ब्यवहारु।

                                      

बूझि बिप्र कुलबृद्ध गुर बेद बिदित आचारु।।286।।

दूत अवधपुर पठवहु जाई। आनहिं नृप दसरथहि बोलाई।।

मुदित राउ कहि भलेहिं कृपाला। पठए दूत बोलि तेहि काला।।

बहुरि महाजन सकल बोलाए। आइ सबन्हि सादर सिर नाए।।

हाट बाट मंदिर सुरबासा। नगरु सँवारहु चारिहुँ पासा।।

हरषि चले निज निज गृह आए। पुनि परिचारक बोलि पठाए।।

रचहु बिचित्र बितान बनाई। सिर धरि बचन चले सचु पाई।।

पठए बोलि गुनि तिन्ह नाना। जे बितान बिधि कुसल सुजाना।।

बिधिहि बंदि तिन्ह कीन्ह अरंभा। बिरचे कनक कदलि के खंभा।।

दोहा-हरित मनिन्ह के पत्र फल पदुमराग के फूल।

रचना देखि बिचित्र अति मनु बिरंचि कर भूल।।287।।

बेनु हरित मनिमय सब कीन्हे। सरल सपरब परहिं नहिं चीन्हे।।

कनक कलित अहिबेलि बनाई। लखि नहिं परइ सपरन सुहाई।।

तेहि के रचि पचि बंध बनाए। बिच बिच मुकुता दाम सुहाए।।

मानिक मरकत कुलिस पिरोजा। चीरि कोरि पचि रचे सरोजा।।

किए भृग बहुरंग बिहंगा। गुंजहि कूजहिं पवन प्रसंगा।।

                                      

सुर प्रतिमा खंभन गढ़ि काढ़ीं। मंगल द्रब्य लिएँ सब ठाढ़ीं।।

चौकें भाँति अनेक पुराईं। सिंधुर मनिमय सहज सुहाईं।।

दोहा-सौरभ पल्लव सुभग सुठि किए नीलमनि कोरि।

हेम बौर मरकत घवरि लसत पाटमय डोरि।।288।।।

रचे रुचिर बर बंदनिवारे। मनहुँ मनोभवँ फंद सँवारे।।

मंगल कलस अनेक बनाए। ध्वज पताक पट चमर सुहाए।।

दीप मनोहर मनिमय नाना। जाइ न बरनि बिचित्र बिताना।।

जेहिं मंडप दुलहिनि बैदेही। सो बरनै असि मति कबि केही।।

दूलहु रामु रूप गुन सागर। सो बितानु तिहुँ लोक उजागर।।

जनक भवन कै सोभा जैसी। गृह गृह प्रति पुर देखिअ तैसी।।

जेहिं तेरहुति तेहि समय निहारी। तेहि लघु लगहिं भुवन दस चारी।।

जो संपदा नीच गृह सोहा। सो बिलोकि सुरनायक मोहा।।

दोहा-बसइ नगर जेहिं लच्छि करि कपट नारि बर बेषु।

तेहि पुर कै सोभा कहत सकुचहिं सारद सेषु।।289।।

पहुँचे दूत राम पुर पावन। हरषे नगर बिलोकि सुहावन।।

भूप द्वार तिन्ह खबरि जनाई। दसरथ नृप सुनि लिए बोलाई।।

                                      

करि प्रनामु तिन्ह पाती दीन्ही। मुदित महीप आपु उठि लीन्ही।।

बारि बिलोचन बाँचत पाती। पुलक गात आई भरि छाती।।

रामु लखनु उर कर बर चीठी। रहि गए कहत न खाटी मीठी।।

पुनि धरि धीर पत्रिका बाँची। हरषी सभा बात सुनि साँची।।

खेलत रहे तहाँ सुधि पाई। आए भरतु सहित हित भाई।।

पूछत अति सनेहँ सकुचाई। तात कहाँ तें पाती आई।।

कुसल प्रानप्रिय बंधु दोउ अहहिं कहहु केहिं देस।

सुनि सनेह साने बचन बाची बहुरि नरेस।।290।।

सुनि पाती पुलके दोउ भ्राता। अधिक सनेहु समात न गाता।।

प्रीति पुनीत भरत कै देखी। सकल सभाँ सुखु लहेउ बिसेषी।।

तब नृप दूत निकट बैठारे। मधुर मनोहर बचन उचारे।।

भैया कहहु कुसल दोउ बारे। तुम्ह नीकें निज नयन निहारे।।

स्यामल गौर धरें धनु भाथा। बय किसोर कौसिक मुनि साथा।।

पहिचानहु तुन्ह कहहु सुबाऊ। प्रेम  बिबस पुनि पुनि कह राऊ।।

जा दिन तें मुनि गए लवाई। तब तें आजु साँचि सुधि पाई।।

कहहु बिदेह कवन बिधि जाने। सुनि प्रिय बचन दूत मुसुकाने।।

                                      

दोहा-सुनहु महीपति मुकुट मनि तुम्ह सम धन्य न कोउ।

रामु लखनु जिन्ह के तनय बिस्व बिभूषन दोउ।।291।।

पूछन जोगु न तनय तुन्हारे। पुरुषसिंघ तिहु पुर उजिआरे।।

जिन्ह के जस प्रताप कें आगे। ससि मलीन रबि सीतल लागे।।

तिन्ह कहँ कहिअ नाथ किमि चीन्हे। देखिअ रबि कि दीप कर लीन्हे।।

सीय स्वयंबर भूप अनेका। समिटे सुभट एक तें एका।।

संभु सरासनु काहुँ न टारा। हारे सकल बीर बरिआरा।।

तीनि लोक महुँ जे भटमानी। सभ कै सकति संभु धनु भानी।।

सकइ उठाइ सरासुर मेरू। सोउ हियँ हारि गयउ करि फेरू।।

जेहिं कौतुक सिवसैलु उठावा। सोउ तेहि सभाँ पराभउ पावा।।

दोहा-तहाँ राम रघुबंस मनि सुनिअ महा पमिपाल।

भंजेउ चाप प्रयास बिनु जिमि गज पंकज नाल।।292।।

सुनि सरोष भृगुनायकु आए। बहुत भाँति तिन्ह आँखि देखाए।।

देखि राम बलु निज धनु दीन्हा। करि बहु बिनय गवनु बन कीन्हा।।

राजनु रामु अतुलबल जैसें। तेज निधान लखनु पुनि तैसें।।

कंपहिं भूप बिलोकत जाकें। जिमि गज हरि किसोर के ताकें।।

                                      

देव देखि तब बालक दोऊ। अब न आँखि तर आवत कोऊ।।

दूत बचन रचना प्रिय लागी। प्रेम प्रताप बीर रस पागी।।

सभा समेत राउ अनुरागे। दूतन्ह देन निछावरि लागे।।

कहि अनीति ते मूदहिं काना। धरमु बिचारि सबहिं सुखु माना।।

दोहा-तब उठि भूप बषिष्ट कहुँ दीन्हि पत्रिकी जाइ।

कथा सुनाई गुरिहि सब सादर दूत बोलाइ।।293।।

सुनि बोले गुर अति सुखु पाई। पुन्य पुरुष कहुँ महि सुख छाई।।

जिमि सरिता सागर महुँ जाहीं। जद्यपि ताहि कामना नाहीं।।

तिमि सुख संपति बिनहिं बोलाएँ। धरमसील पहिं जाहिं सुभाएँ।।

तुम्ह गुर बिप्र धेनु सुर सेबी। तसि पुनीत कौसल्या देबी।।

सुकृती तुम्ह समान जग माहीं। भयउ न है कोउ होनेउ नाही।।

तुम्ह ते अधिक पुन्य बड़ काकें। राजन राम सरिस सुत जाकें।।

बीर बिनीत धरम ब्रत धारी। गुन सागर बर बालक चारी।।

तुम्ह कहुँ सर्ब काल कल्याना। सजहु बरात बजाइ निसाना।।

दोहा-चलहु बेगि सुनि गुर बचन भलेहिं नाथ सिरु नाइ।

भूपति गवने भवन तब दूतन्ह बासु देवाइ।।294।।

                                      

राज सबु रनिवास बोलाई। जनक पत्रिका बाचि सुनाई।।

सुनि संदेसु सकल हरषानीं। अपर कथा सब भूप बखानीं।।

प्रेम प्रफुल्लित राजहिं रानी। मनहुँ सिखिनि सुनि बारिद बानी।।

मुदित असीस देहिं गुर नारीं। अति आनंद मगन महतारीं।।

लेहिं परस्पर अति प्रिय पाती। हृदयँ लगाइ जुड़ावहिं छाती।।

राम लखन कै कीरति करनी। बारहिं बार भूपबर बरनी।।

मुनि प्रसादु कहि द्वार सिधाए। रानिन्ह तब महि देव बोलाए।।

दिए दान आनंद समेता। चल बिप्रबर आसिष देता।।

सोरठा-जाचक लिए हँकारि दीन्हि निछावरि कोटि बिधि ।

चिरु जीवहुँ सुत चारि चक्रबर्ति दसरत्थ के।।295।।

कहत चले पहिरें पट नाना। हरषि हने गहगहे निसाना।।

समाचार सब लोगन्ह पाए। लागे घर घर होन बधाए।।

भुवन चारि दस भरा उछाहू। जनकसुता रघुबीर बिआहू।।

सुनि सुभ कथा लोग अनुरागे। मग गृह गलीं सँवारन लागे।।

जद्यपि अवध सदैव सुहावनि। राम पुरी मंगलमय पावनि।।

तदपि प्रीति कै प्रीति सुहाई। मंगल रचना रची बनाई।।

                                      

ध्वज पताक पट चामर चारू। छावा परम बिचित्र बजारू।।

कनक कलस तोरन मनि जाला। हरद दूब दधि अच्छत माला।।

दोहा-मंगलमय निज निज भवन लोगन्ह रचे बनाइ।

बीथीं सींचीं चतुरसम चौकें चारु पुराइ।।296।।

जहँ तहँ जूथ जूथ मिलि भामिनि। सजि नव सप्त सकल दुति दामिनि।।

बिधुबदनीं मृग सावक लोचनि। निज सरूप रति मानु बिमोचनि।।

गावहिं मंगल मंजुल बानीं। सुनि कल रब कलकंठि लजानी।।

भूप भवन किमि जाइ बखाना। बिस्व बिमोहन रचेउ बिताना।।

मंगल द्रब्यच मनोहर नाना। राजत बाजत बिपुल निसाना।।

कतहुँ बिरिद बंदी उच्चरहीं। कतहुँ बेद धुनि भूसुर करहीं।।

गावहिं सुंदरि मंगल गीता। लै लै नामु रामु अरु सीता।।

बहुत उछाहु भवनु अति थोरा। मानहुँ उमगि चला चहु ओरा।।

दोहा-सोभा दसरथ भवन कइ को कबि बरनै पार।

जहाँ सकल सुर सीस मनि राम लीन्ह अवतार।।297।।

भूप भरत पुनि लिए बोलाई। हय गय स्यंदन साजहु जाई।।

चलहु बेगि रघुबीर बराता। सुनत पुलक पूरे दोउ भ्राता।।

                                      

भरत सकल साहनी बोलाए। आयसु दीन्ह मुदित उठि धाए।।

रचि रुचि जीन तुरग तिन्ह साजे। बरन बरन बर बाजि बिराजे।।

सुभग सकल सुठि चंचल करनी। अय इव जरत धरत पग धरनी।।

नाना जाति न जाहिं बखाने। निदरि पवनु जनु चहत उड़ाने।।

तिन्ह सब छयल भए असवारा। भरत सरिस बय राजकुमारा।।

सब सुंदर सब भूषनधारी। कर सर चाप तून कटि भारी।।

दोहा-छरे छबीले छयल सब सूर सुजान नबीन।

जुग पदचर असवार प्रति जे असिकला प्रबीन।।298।।

बाधें बिरद बीर रन गाढ़े। निकसि भए पुर बाहेर ठाढ़े।।

फेरहिं चतुर तुरग गति नाना। हरषहिं सुनि सुनि पनव निसाना।।

रथ सारथिन्ह बिचित्र बनाए। ध्वज पाताक मनि भूषन लाए।।

चवँर चारु किंकिनि धुनि करहीं। भानु जान सोभा अपहरहीं।।

सावँकरन अगनित हय होते। ते तिन्ह रथन्ह सारथिन्ह जोते।।

सुंदर सकल अलंकृत सोहे। जिन्हहि बिलकत मुनि मन मोहे।।

जे जल चलहिं थलहि की नाईं। टाप न बूड़ बेग अधिकाईं।।

अस्त्र सस्त्र सबु साजु बनाई। रथी सारथिन्ह लिए बोलाई।।

                                      

दोहा-चढ़ि चढ़ि रथ बाहेर नगर लागी जुरन बरात।

होत सगुन सुंदर सबहि जो जेहि कारज जात।।299

कलित करिबरन्हि परीं अँबारीं। कहि न जाहिं जेहि भाँति सँवारीं।।

चल मत्त गज घंट बिराजी। मनहुँ सुभग सावन घन राजी।।

बाहन अपर अनेक बिधाना। सिविका सुभग सुखासन जाना।।

तिन्ह चढ़ि चले बिप्रबर बृंदा। चनु तनु धरें सकल श्रुति छंदा।।

मागध सूत बंदि गुनगायक। चले जान चढ़ि जो जेहि लायक।।

बेसर ऊँट बृषभ बहु जाती। चले बस्तु भरि अगनित भाँती।।

कोटिन्ह काँवरि चले कहारा। बिबिध बस्तु को बरनै पारा।।

चले सकल सेवक समुदाई। निज निज साजु समाजु बनाई।।

दोहा-सब कें उर निर्बर हरषु पूरित पुलक सरीर।

कबहिं देखिबे नयन भरि रामु लखनु दोउ बीर।।300।।

गरजहिं गज घंटा धुनि घोरा। रथ रव बाजि हिंस चहु ओरा।।

निदरि घनहि घुर्म्मरहिं निसाना। निज पराइ कछु सुनिअ न काना।।

महा बीर भूपति के द्वारें। रज होइ जाइ पषान पबारें।।

चढ़ी अटारिन्ह देखहिं नारी। लिएँ आरती मंगल थारीं।।

                                      

गावहिं गीत मनोहर नाना। अति आनंदु न जाइ बखाना।।

तब सुमंत्र दुइ स्यंदन साजी। जोते रबि हय निंदक बाजी।।

दोउ रथ रुचिर भूप पहिं आने। नहिं सारद पहिं जाहिं बखाने।।

राज समाजु एक रथ साजा।। दूसर देज पुंज अति भ्राजा।।

दोहा-तेहिं रथ रुचिर बसिष्ठ कहुँ हरषि चढ़ाइ नरेसु।

आपु चढ़ेउ स्यंदन सुमिरि हर गुर गौरि गनेसु।।301।।

सहित बसिष्ठ सोह नृप कैसें। सुर गुर संग पुरंदर जैसें।।

करि कुल रीति बेद बिधि राऊ। देखइ सबहि सब भाँति बनाऊ।।

सुमिरि रामु गुर आयसु पाई। चले महीपति संख बजाई।।

हरषे बिबुध बिलोकि बराता। बरषहिं सुमन सुमंगल दाता।।

भयउ कोलाहल हय गय गाजे। ब्योम बरात बाजने बाजे।।

सुर नर नारि सुमंगल गाईं। सरस राग बाजहिं सहनाईं।।

घंट घंटि धुनि बरिनि न जाहीं। सरव करहिं पाइक फहराहीं।।

करहिं बिदूषक कौतुक नाना। हास कुसल कल गान सुजाना।।

दोहा-तुरग नचावहिं कुअँर बर अकनि मृदंग निसान।

नागर नट चितबहिं चकित डगहिं न ताल बँधान।।302।।

                                      

बनइ न बरनत बनी बराता। होहिं सगुन सुंदर सुभदाता।।

चारा चाषु बाम दिसि लेई। मनहुँ सकल मंगल कहि देई।।

दाहिन काग सुखेत सुहावा। नकुल दरसु सब काहूँ पावा।।

सानुकूल बह त्रिबिध बयारी। सघट सबाल आव बर नारी।।

लोवा फिरि फिरि दरसु देखावा। सुरभी सनमुख सिसुहि पिआवा।।

मृगमाला फिरि दाहिनि आई। मंगल गन जनु दीन्हि देखाई।।

छेमकरी कह छेम बिसेषी। स्यामा बाम सुतरु पर देखी।।

सनमुख आयउ दधि अरु मीना। कर पुस्तक दुइ बिप्र प्रबीना।।

दोहा-मंगलमय कल्यानमय अभिमत फल दातार।

जनु सब साचे होन हित भए सगुन एक बार।।303।।

मंगल सगुन सुगम सब ताकें। सगुन ब्रह्म सुंदर सुत जाकें।।

राम सरिस बरु दुलहिनि सीता। समधी दसरथु जनकु पुनीता।।

सुनि अस ब्याहु सगुन सब नाचे। अब कीन्हे बिरंचि हम साँचे।।

एहि बिधि कीन्ह बरात पयाना। हय गय गाजहिं हने निसाना।।

आवत जानि भानुकूल केतू। सरितन्हि जनक बँधाए सेतू।।

बीच बीच बर बास बनाए। सुरपुर सरिस संपदा छाए।।

                                      

असन सयन बर बसन सुहाए। पावहिं सब निज निज मन भाए।।

नित नूतन सुख लखि अनुकूले। सकल बरातिन्ह मंदिर भूले।।

दोहा-आवत जानि बरात बर सुनि गहगहे निसान।

सजि गज रथ पदचर तुरग लेन चले अगवान।।304।।

कनक कलस भरि कोपर थार। भाजन ललित अनेक प्रकारा।।

भरे सुधासम सब पकवाने। नाना भाँति न जाहिं बखाने।।

पल अनेक बर बस्तु सुहाईं। हरषि भेंट हित भूप पठाईँ।।

भूषन बसन महामनि नाना। खग मृग हय गय बहुबिधि जान।।

मंगल सगुन सुगंध सुहाए। बहुत भाँति महिपाल पठाए।।

दधि चिउरा उपहार अपारा। भरि भरि काँबरि चले कहारा।।

अगवानन्ह जब दीखि बराता। उर आनंदु पुलक भर गाता।।

देखि बनाव सहित अगवाना। मुदित बरातिन्ह हने निसाना।।

दोहा-हरषि परसपर मिलन हित कछुक चले बगमेल।

जनु आनंद समुद्र दुइ मिलत बिहाइ सुबेल।।305।।

बरषि सुमन सुर सुंदरि गावहिं। मुदित देव दुंदुभी बजावहिं।।

बस्तु सकल राखीं नृप आगें। बिनय कीन्हि तिन्ह अति अनुरागें।।

                                      

प्रेम समेत रायँ सबु लीन्हा। भै बकसीस जाचकन्हि दीन्हा।।

करि पूजा मान्यता बड़ाई। जनवासे कहुँ चले लवाई।।

बसन बिचित्र पाँवड़े परहीं। देखि धनदु धन मदु परिहरहीं।।

अति सुंदर दीन्हेउ जनवासा। जहँ सब कहुँ सब भाँति सुपासा।।

जानी सियँ बरात पुर आई। कछु निज महिमा प्रगटि जनाई।।

हृदयँ सुमिरि सब सिद्धि बोलाईं। भूप पहुनई करन पठाईं।।

दोहा-सिधि सब सिय आयसु अकनि गईं जहाँ जनवास।

लिए संपदा सकल सुख सुरपुर भोग बिलास।।306।।

निज निज बास बिलोकि बराती। सुर सुख सकल सुलभ सब भाँती।।

बिभव भेद कछु कोउ न जाना। सकल जनक कर करहिं बखाना।।

सिय महिमा रघुनायक जानी। हरषे हृदयँ हेतु पहिचानी।।

पितु आगमनु सुनत दोउ भाई। हृदयँ न अति आनंदु अमाई।।

सकुचन्ह कहि न सकत गुरु पाहीं। पितु दरसन लालचु मन माहीं।।

बिस्वामित्र बिनय बड़ि देखी। उपजा उर संतोषु बिसेषी।।

हरषि बंधु दोउ हृदयँ लगाए। पुलक अंग अंबक जल छाए।।

चले जहँ दसरथु जनवासे। मनहु सरोबर तकेउ पिआसे।।

                                      

दोहा-भूप बिलोके जबहि मुनि आवत सुतन्ह समेत।

उठे हरसि सुखसिंधु महुँ चले थाह सी लेत।।307।।

मुनिहि दंडवत कीन्ह महीसा। बार बार पद रज धरि सीसा।।

कौसिक राउ लिए उऱ लाई। कहि असीस पूछी कुसलाई।।

पुनि दंडवत करत दोउ भाई। देखि नृपति उर सुखु न समाई।।

सुत हियँ लाइ दुसह दुख मेटे। मृतक सरीर प्रान जनु भेटे।।

पुनि बसिष्ठ पद सिर तिन्ह नाए। प्रेम मुदित मुनिबर उर लाए।।

बिप्र बृंद बंदे दुहुँ भाईं। मनभावती असीसें पाईं।।

भरत सहानुज कीन्ह प्रनामा। लिए उठाइ लाइ उर रामा।।

हरषे लखन देखि दोउ भ्राता। मिले प्रेम परिपूरित गाता।।

दोहा-पुरजन पिरजन जातिजन जाचक मंत्री मीत।

मिले जथाबिधि सबहि प्रभु परम कृपाल बिनीत।।308।।

रामहि देखि बरात जुड़ानी। प्रीति कि रीति न जाति बखानी।।

नृप समीप सोहहिं सुत चारी। जनु धन धरमादिक तनुधारी।।

सुतन्ह समेत दसरथहि देखी। मुदित नगर नर नारि बिसेषी।।

                                      

सुमन बरिसि सुर हनहिं निसाना। नाककटीं नाचहिं करि गाना।

सतानंद अरु बिप्र सचिव गन। मागध सूत बिदुष बंदीजन।।

सहित बरात राउ सनमाना। आयसु मागि फिरे अगवाना।।

प्रथम बरात लगन तें आई। तातें पुर प्रमोदु अधिकाई।।

ब्रह्मानंदु लोग सब लहहीं। बढ़हुँ दिवस निसि बिधि सन कहहीं।।

दोहा-रामु सीय सोभा अवधि सुकृत अबधि दोउ राज।

जहँ तहँ पुरजन कहहिं अस मिलि नर नारि समाज।।309।।

जनक सुकृत मूरति बैदेही। दसरथ सुकृत रामु धरें देही।।

इन्ह सम काहुँ न सिव अवराधे। काहुँ न इन्ह समान फल लाधे।।

इन्ह सम कोउ न भयउ जग माहीं। है नहिं कतहूँ होनेउ नाहीं।।

हम सब सकल सुकृत कै रासी। भए जग जनमि जनकपुर बासी।।

जिन्ह जानकी राम छबि देखी। को सुकृती हम सरिस बिसेषी।।

पुनि देखब रघुबीर बिआहू। लेब भली बिधि लोचन लाहू।।

कहहिं परसपर कोकिलबयनीं। एहि बिआहँ बड़ लाभु सुनयनीं।।

बड़े भाग बिधि बात बनाई। नयन अतिथि होइहहिं दोउ भाऊ।।

दोहा- बारहिं बार सनेह बस जनक बोलउब सीय।

                                      

लेन आइहहिं बंधु दोउ कोटि काम कमनीय।।310।।

बिबिध भाँति होइहि पहुनाई। प्रिय न काहि अस सासुर माई।।

तब तब राम लखनहि निहारी। होइहहिं सब परु लोग सुखारी।।

सखि जस राम लखन कर जोटा। तैसेइ भूप संग दुइ ढोटा।।

स्याम गौर सब अंग सुहाए। ते सब कहहिं देखि जे आए।।

कहा एक मैं आजु निहारे। जनु बिरंचि निज हाथ सँवारे।।

भरतु रामही की अनुहारी। सहसा लखि न सकहिं नर नारी।।

लखनु सत्रुसूदनु एकरूपा। नख सिख ते सब अंग अनूपा।।

मन भावहिं मुख बरनि न जाहीं। उपमा कहुँ त्रिभुवन कोउ नाहीं।।

छन्द-उपमा न कोउ कह दास तुलसी कतहुँ कबि कोबिद कहैं।

बल बिनय बिद्या सील सोभा सिंधु इन्ह से एइ अहैं।।

पुर नारि सकल पसारि अंचल बिधिहि बचन सुनावहीं।

ब्याहिअहुँ चारिउ भाइ एहिं पुर हम सुमंगल गावहीं।।

सोरठा-कहहिं परस्पर नारि बारि बिलोचन पुलक तन।

सखि सबु करब पुरारि पुन्य पयोनिधि भूप दोउ।।311।।

एहि बिधि सकल मनोरथ करीं। आनंद उमगि उमगि उर भरहीं।।

                                      

जे नृप सीय स्वयंबर आए। देखि बंधु सब तिन्ह सुख पाए।।

कहत राम जसु बिसद बिसाला। निज निज भवन गए महिपाला।।

गए बीति कछु दिन एहि भाँती। प्रमुदित पुरजन सकल बराती।।

मंगल मूल लगन दिनु आवा। हिम रितु अगहनु मासु सुहावा।।

ग्रह तिथि नखतु जोगु बर बारू। लगन सोधि बिधि कीन्ह बिचारू।।

पठै दीन्हि नारद सन सोई। गनी जनक के गनकन्ह जोई।।

सुनी सकल लोगन्ह यह बाता। कहहिं जोतिषी आहिं बिधाता।।

दोहा-धेनुधूरि बेला बिमल सकल सुमंगल मूल।

बिप्रन्ह कहेउ बिदेह सन जानि सगुन अनुकूल।।312।।

उपरोहितहि कहेउ नरनाहा। अब बिलंब कर कारनु काहा।।

सतानंद सब सचिब लोलाए। मंगल सकल साजि सब ल्याए।।

संख निसान पनव बहु बाजे। मंगल कलस सगुन सुभ साजे।।

सुभग सुआसिनि गावहिं गीता। करहिं बेद धुनि बिप्र पुनीता।।

लेन चले सादर एहि भाँती। गए जहाँ जनवास बराती।।

कोसलपति कर देखि समाजू। अति लघु लाग तिन्हहि सुरराजू।।

भयउ समउ अब धारिअ पाऊ। यह सुनि परा निसानहिं घाऊ।।

                                      

गुरहि पूछि करि कुल बिधि राजा। चले संग मुनि साधु समाजा।।

दोहा-भाग्य बिभव अवधेस कर देखि देव ब्रह्मादि।

लेग सराहन सहस मुख जानि जनम निज बादि।।313।।

सुरन्ह सुमंगल अवसरु जाना। बरषहिं सुमन बजाइ निसाना।।

सिव ब्रह्मादिक बिबुध बरूथा। चढ़े बिमानन्हि नाना जूथा।।

प्रेम पुलक तन हृदयँ उछाहू। चले बिलोकन राम बिआहू।।

देखि जनकपुरु सुर अनुरागे। निज निज लोक सबहिं लघु लागे।।

चितवहिं चकित बिचित्र बितानी। रचना सकल अलौकिक नाना।।

नगर नारि नर रूप निधानी। सुघर सुधरम सुसील सुजाना।।

तिन्हहि देखि सब सुर सुरनारीं। भए नखत जनु बिधु उजिआरीं।।

बिधिहि भयउ आचरजु बिसेषी। निज करनी कछु कतहुँ न देखी।।

दोहा-सिव समुझाए देव सब जनि आचरज भुलाहु।

हृदयँ बिचारहु धार धरि सुय रघुबीर बिआहु।।314।।

जिन्ह कर नामु लेत जग माहीं। सकल अमंगल मूल नसाहीं।।

करतल होहिं पदारथ चारी। तेइ सिय रामु कहेउ कामारी।।

एहि बिधि संभु सुरन्ह समुझावा। पुनि आहें बर बसह चलावा।।

देवन्ह देखे दसरथु जाता। महामोद मन पुलकित गाता।।

साधु समाज संग महिदेवा। जनु तनु धरें करहिं सुख सेवा।।

                                      

सोहत साथ सुभग सुत चारी। जनु अपबरग सकल तनुधारी।।

मरकल कनक बरन बर जोरी। देखि सुरन्ह भै प्रीति न थोरी।।

पुनि रामहि बिलोकि हियँ हरषे। नृपहि सराहि सुमन तिन्ह बरषे।।

दोहा-राम रूपु नख सिख सुभग बारहिं बार निहारि।

पुलक गात लोचन सजल उमा समेत पुरारि।।315।।

केकि कंठ दुति स्यामल अंगा। तड़ित बिनिंदक बसन सुरंगा।।

ब्याह बिभूषन बिबिध बनाए। मंगल सब सब भाँति सुहाए।।

सरद बिमल बिधु बदनु सुहावन। नयन नवल राजीव लजावन।।

सकल अलोकिक सुंदरताई। कहि न जाइ मनहीं मन भाई।।

बंधु मनोहर  सोहहिं संगा। जात नचावत चपल तुरंगा।।

राजकुँअर बर बाजि देखावहिं। बंस प्रसंसक बिरिद सुनावहिं।।

जेहि तुरंग पर रामु बिराजे। गति बिलोकि खगनायकु लाजे।।

कहि न जाइ सब भाँति सुहावा। बाजि बेषु जनु काम बनावा।।

छन्द-जनु बाजि बेषु बनाइ मनसिजु राम हित अति सोहई।

आपनें बय बल रूप गुन गति सकल भुवन बिमोहई।।

जगमगत जीनु जराव जोति सुमोति मनि मानिक लगे।

                                      

किंकिनि ललाम लगामु ललित बिलोकि सुर नर मुनि ठगे।।

दोहा-प्रभु मनसहिं लयलीन मनु चलत बाजि छबि पाव।

भूषित उड़गन तड़ित घनु जनु बर बरहि नचाव।।316।।

जेहि बर बाजि रामु असवारा। तेहि सारदउ न बरनै पारा।।

संकरु राम रूप अनुरागे। नयन पंचदस अति प्रिय लागे।।

हरि हरित सहित रामु जब जोहे। राम समेत रमापति मोहे।।

निरखि राम छबि बिधि हरषाने। आठइ नयन जानि पछिताने।।

सुर सेनप उर बहुत उछाहू। बिधि ते डेवढ़ लोचन लाहू।।

रामहि चितव सुरेस सुजाना। गौतम श्रापु परम हित माना।.

देव सकल सुरॉपतिहि सिहाहीं। आजु पुरंदर सम कोउ नाहीं।।

मुदित देवगन रामहि देखी। नृपसमाज दुहुँ हरषु बिसेषी।।

छन्द-अति हरषु राजसमाज दुहु दिसि दुंदुभी बाजहिं घनी।

बरषहिं सुमन सुर हरषि कहि जय जयति जय रघुकुलमनी।।

एहि भाँति जानि बरात आवत बाचने बहु बाजहीं।

रानी सुआसिनि बोलि परिछनि हेतु मंगल साजहीं।।

                                      

दोहा-सजि आरती अनेक बिधि मंगल सकल सँवारि।

चलीं मुदित परिछनि करन गजगामिनि बर नारि।।317।।

बिधुबदनीं सब सब मृगलोचनि। सब निज तन छबि रति मदु मोचनि।।

पहिरें बरन बरन बर चीरा। सकल बिभूषन सजें सरीरा।।

सकल सुमंगल अंग बनाएँ। करहिं गान कलकंठि लजाएँ।।

कंकन किंकिनि नूपुर बाजहिं। चालि बिलोकि काम गज लाजहिं।।

बाजहिं बाजने बिबिध प्रकारा। नभ अरू नगर सुमंगलचारा।।

सची सारदा रमा भवानी। जे सुरतिय सुचि सहज सयानी।।

कपट नारि बर बेष बनाई। मिलीं सकल रनिवासहिं जाई।।

करहिं गान कल मंगल बानीं। हरष बिबस सब काहुँ न जानीं।।

छन्द-को जान केहि आनंद बस सब ब्रह्मु बर परिछन चली।

कल गान मधुर निसान बरषहिं सुमन सुर सोभा भली।।

आनंदकंदु बिलोकि दूलहु सकल हियँ हरषित भई।

अंभोज अंबक अंबु उमगि सुअंग पुलकावलि छई।।

दोहा-जो सुखु बा सिय मातु मन देखि राम बर बेषु।

सो न सकहिं कहि कलप सत सहस सारदा सेषु।।318।।

                                      

नयन नीरु हटि मंगल जानी। परिछनि करहिं मुदित मन रानी।।

बेद बिहित अरु कुल आचारू। कीन्ह भली बिधि सब ब्यवहारू।।

पंच सबद धुनि मंगल गानी। पट पाँवड़े परहिं बिधि नाना।।

करि आरती अरघु तिन्ह दीन्हा। राम गमनु मंडप तब कीन्हा।।

दसरथु सहित समाज बिराजे। बिभव बिलोकि लोकपति लाजे।।

समयँ समयँ सुर बरषहिं फूला। सांति पढ़हिं महिसुर अनुकूला।।

नभ अरु नगर कोलाहल होई। आपनि पर कछु सुनइ न कोई।।

एहि बिधि रामु मंडपहिं आए। अरघु देइ आसन बैठाए।।

छन्द-बैठारि आसन आरती करि निरखि बरु सुखु पावहीं।

मनि बसन भूषन भूरि वारहिं नारि मंगल गावहीं।।

ब्रह्मादि सुरबर बिप्र बेष बनाइ कौतुक देखहीं।

अवलोकि रघुकुल कमल रबि छबि सुफल जीवन लेखहीं।।

दोहा-नाऊ बारी भाट नट राम निछावरि पाइ।

मुदित असीसहिं नाइ सिर हरषु न हृदयँ समाइ।।319।।

मिले जनकु दसरथु अति प्रीतीं। करि बैदिक लौकिक सब रीतीं।।

मिलत महा दोउ राज बिराजे। उपमा खोजि खोजि कबि लाजे।।

                                      

लही न कतहुँ हारि हियँ मानी। इन्ह सम एइ उपमा उर आनी।।

सामध देखि देव अनुरागे। सुमन बरषि जसु गावन लागे।।

जगु बिरंचि उपजावा जब तें। देखे सुने ब्याह बहु दब तें।।

सकल भाँति सम साजु समाजू। सम समधी देखे हम आजू।।

देव गिर सुनि सुंदर साँची। प्रीति अलोकिक दुहु दिसि माची।।

देत पाँवड़े अरघु सुहाए। सादर जनकु मंडपहिं ल्याए।।

छन्द-मंडपु बिलोकि बिचित्र रचनाँ रुचिरताँ मुनि मन हरे।

निज पानि जनक सुजान सब कहुँ आनि सिंघासन धरे।

कुल इष्ट सरिस बसिष्ट पूजे बिनय करि आसिष लही।

कौसिकहि पूजत परम प्रीति कि रीति तौ न परै कही।।

दोहा- बामदेव आदिक रिषय पूजे मुदित महीस।

दिए दिब्य आसन सबहि सब सन लही असीस।।320।।

बहुरि कीन्हि कोसलपति पूजा। जानि ईस सम भाउ न दूजा।।

कीन्हि जोरि कर बिनय बड़ाई। कहि निज भागय बिभव बहुताई।।

पूजे भूपति सकल बराती। समधी सम सादर सब भाँती।।

आसन उचित दिए सब काहू। कहौं काह मुख एक उछाहू।

                                      

सकल बरात जनक सनमानी। दान मान बिनती बर बानी।।

बिधि हरि हरु दिसिपति दिनराऊ। जे जानहिं रघुबीर प्रभाऊ।।

कपट बिप्र बर बेष बनाएँ। कौतुक देखहिं अति सचु पाएँ।।

पूजे जनक देव सम जानें। दिए सुआसन बिनु पहिचानें।।

छन्द-पहिचान को केहि जान सबहि अपान सुधि भोरी भई।

आनंद कंदु बिलोकि दूलहु उभय दिसि आनँद मई।।

सुर लखे राम सुजान पूजे मानसिक आसन दए।

अवलोकि सीलु सुभाउ प्रभु को बिबुध मन प्रमुदित भए।।

दोहा-रामचन्द्र मुख चंद्र छबि लोचन चारु चकोर।

करत पान सादर सकल प्रेमु प्रमोदु न थोर।।321।।

समउ बिलोकि बसिष्ठ बोलाए। सादर सतानंदु सुनि आए।।

बेगि कुअँरि अब आनहु जाई। चले मुदित मुनि आयसु पाई।।

रानी सुनि उपरोहित बानी। प्रमुदित सखिन्ह समेत सयानी।।

बिप्र बधू कोलबृद्ध बोलाईं। करि कुल रीति सुमंगल गाईं।।

नारि बेष जे सुर बर बामा। सकल सुभायँ सुंदरी स्यामा।।

तिन्हहि देखी सुखु पावहिं नारी। बिन पहिचानि प्रानहु ते प्यारीं।।

                                      

बार बार सनमानहिं रानी। उमा रमा सारद सम जानी।।

सीय संबारि समाजु बनाई। मुदित मंडपहिं चलीं लवाई।।

छन्द-चलि ल्याइ सीतहि सखीं सादर सचि सुमंगल भामिनीं।

नवसप्त साजें सुंदरीं सब मत्त कुंजर गामिनीं।।

कल गान सुनि मुनि ध्यान त्यागहिं काम कोकिल लाजहीं।।

मंजीर नूपुर कलित कंकन ताल गति बर बाजहीं।।

दोहा-सोहति बनिता बृंद महुँ सहज सुहावनि सीय।

छबि ललना गन मध्य जनु सुषमा तिय कमनीय।।322।।

सिय सुंदरता बरनि न जाई। लघु मित बहुत मनोहरताई।।

आवत दीखि बरातिन्ह सीता। रूप रासि सब भाँति पुनीता।।

सबहि मनहिं मन किए प्रनामा। देखि राम भए पूरनकामा.।

हरषे दसरथ सुतन्ह समेता। कहि न जाइ उर आनँदु जेता।।

सुर प्रनामु करि बरिसहिं फूला। मुनि असीस धुनि मंगल मूला।।

गान निसान कोलाहलु बारी। प्रेम प्रमोद मगन नर नारि।।

एहि बिधि सीय मंडपहिं आई। प्रमुदित सांति पढ़हिं मुनिराई।।

तेहि अवसर कर बिधि ब्यवहारू। दुहुँ कुलगुर सब कीन्ह अचारू।।

                                      

छन्द-आचारु करि गुर गौरि गनपति मुदित बिप्र पुजावहीं।

सुर प्रगटि पूजा लेहिं देहिं असीस अति सुखु पावहीं।।

मधुपर्क मंगल द्रब्य जो जेहि समय मुनि मन महुँ चलैं।

भरे कनक कोपर कलस सो तब लिएहिं परिचारक रहैं।।1।।

कुल रीति प्रीति समेत रबि कहि देत सबु सादर कियो।

एहि भाँति देव पुजाइ सीतहि सुभग सिंघासनु दियो।।

सिय राम अवलोकनि परसपर प्रेमु काहु न लखि परै।

मन बुधि बर बानी अगोचर प्रगट कबि कैसें करै।।2।।

दोहा- होम समय तनु धरि अनलु अति सुख आहुति लेहिं।

बिप्र बेष धरि बेद सब किह बिबाह बिधि देहिं।।323।।

जनक पाटमहिषी जग जानी। सीय मातु किमि जाई बखानी।।

सुजसु सुकृत सुख सुंदरताई। सब समेटि बिधि रची बनाई।।

समउ जानि मुनिबरन्ह बोलईं। सुनत सुआसिनि सादर ल्याईं।।

जनक बाम दिसि सोह सुनयना। हिमगिरि संग बनी जनु मयना।।

कनक कलस मनि कोपर रूरे। सुचि सुगंध मंगल जल पूरे।।

निज कर मुदित रायँ अरु रानी। धरे राम के आगें आनी।।

                                      

पढ़हिं बेद मुनि मंगल बानी। गगन सुमन झरि अवसरु जानी।।

बरु बिलोकि दंपति अनुरागे। पाय पुनीत पखारन लागे।।

छन्द-लागे पखारन पाय पंकज प्रेम तन पुलकावली।

नभ नगर गान निसान जय धुनि उमगि चहुँ दिसि चली।।

जे पद सरोज मनोज अरि उर सर सदैव बिराजहीं।

जे सकृत सुमिरत बिमलता मन सकल कलि मल भाजहीं।

जे परसि मुनिबनिता लही गति रही जो पातकमई।

मकरंदु जिन्ह को संभु सिर सुचिता अवधि सुर बरनई।।

किर मधुप मन मुनि जोगिजन जे सेइ अभिमत गति लहैं।

दे पद पखारत भागयभाजनु जनकु जय जय सब कहैं।।2।।

बर कुअँरि करतल जोरि साखोचारु दोउ कुलगुर करैं

भयो पानिगहनु बिलोकि बिधि सुर मुनज मुनि आँनद भरैं।।

सुखमूल दूलहु देखि दंपति पुलक तन हुलस्यो हियो।

करि लोक बेद बिधानु कन्यादानु नृपभूषन कियो।।3।।

हिमवंत जिमि गिरिजा महेसहि हरिह श्री सागर दई।

तिमि जनक रामहि सिय समरपी बिस्व कल कीरति नई।।

                                      

क्यों करै बिनय बिदेहु कियो बिदेहु मूरति सावँरीं।

करि होमु बिधिवत गाँठि जोरी होन लागीं भावरीं।।4।।

दोहा-जय धुनि बंदी बेद धुनि मंगल गान निसान।

सुनि हरषहिं बरषहिं बिबुध सुरतुरु सुमन सुजान।।324।।

कुअँरु कुअँरि कल भावँरि देहीं। नयन लाभु सब सादर लेहीं।।

जाइ न बरनि मनोहर जोरी। जो उपमा कछु कहौं सो थोरी।।

राम सीय सुंदर प्रतिछाहीं। जगमगात मनि खंभन माहीं।।

मनहुँ मदन रति धरि बहु रूपा। देखत राम बिआहु अनूपा।।

दरस लालसा सकुच न थोरी। प्रगटत दुरत बहोरि बहोरी।।

भए मगन सब देखनिहारे। जनक समान अपान बिसारे।।

प्रमुदित मुनिन्ह भाँवरीं फेरीं। नेगसहित सब रीति निबेरीं।।

राम सीय सिर सेंदुर देहीं। सोभा कहि न जाति बिधि केहीं।।

अरुन पराग जलजु भरु नीकें। ससिहि भूष अहि लोभ अमी कें।।

बहुरि बसिष्ठ दिन्हि अनुसासन। बरु दुलहिनि बैठे एक आसन।।

छन्द-बैठे बरासन रामु जानकि मुदित मन दसरथु भए।

तनु पुलक पुनि पुनि देखि अपनें सुकृत सुरतरू फल नए।

भरि भुवन रहा उछहु राम बिबाहु भा सबहीं कहा।

                                      

केहि भाँति बरनि सिरात रसना एक यहु मंगलु महा।।1।।

तब जनक पाइ बसिष्ठ आयसु ब्याह साज सँवारि कै।

मांडवी श्रुतकीरति उरमिला कुअँरि लईं हँकारि कै।।

कुसकेतु कन्या प्रथम जो गुन सील सुख सोभामई।।

सब रीति प्रीति समेत करि सो ब्याहि नृप भरतहि दई।।2।।

जानकी लघु भागिनी सकल सुंदरि सिरोंमनि जानि कै।

सो तनय दीन्ही ब्याहि लखनहि सकल बिधि सनमानि कै।।

जेहि नामु श्रुतकीरति सुलोचनि सुमुखि सब गुन आगरी।

सो दई रिपुसूदनहि भूपति रूप सील उजागरी।।3।।

अनुरूप बर दुलहिनि परस्पर लखि सकुच हियँ हरषहीं।

सब मुदित सुंदरता सराहहिं सुमन सुर गन बरषहीं।।

सुंदरीं सुंदर बरन्ह सह सब एक मंडप राजहीं।

जनु जीव उर जारिउ अवस्था बिभुन सहित बिराजहीं।।4।।

दोहा-मुदित अवधपति सकल सुत बधुन्ह समेत निहारि।

जनु पाए महिपाल मनि क्रियन्ह सहित फल चारि।।325।।

जसि रघुबीर ब्याह बिधि बरनी। सकल कुँअर ब्याहें तेहिं करनी।।

                                      

कहि न जाइ कछु दाइज भूरी। रहा कनक मनि मंडपु पूरी।।

कंबल बसल बिचित्र पटोरे। भाँति भाँति बहु मोल न थोरे।।

गज रथ तुरग दास अरु दासी। धेनु अलंकृत कामदुहा सी।।

बस्तु अनेक करिअ किमि लेखा। कहि न जाइ जानहिं जिन्ह देखा।।

लोकपाल अवलोकि सिहाने। लीन्ह अवधपति सबु सुखु माने।।

दीन्ह जाचकन्हि जो जेहि भावा। उबरा सो जनवासेहिं आवा।।

तब कर जोरि जनकु मृदु बानी। बोले सब बरात सनमानी।।

छन्द-सनमानि सकल बरात आदर दान बिनय बड़ाइ कै।

प्रमुदित महा मुनि बृंद बंदे पूजि प्रेम लड़ाइ कै।।

सिरु नाइ देव मनाइ सब सन कहत कर संपुट किएँ।

सुर साधु चाहत भाउ िसंधु कि तोष जल अंजलि दिएँ।।1।।

कर जोरि जनकु बहोरि बंधु समेत कोसलराय सों।

बोले मनोहर बयन सानि सनेह सील सुभाय सों।।

संबंध राजन रावरें हम बड़े अब सब बिधि भए।

एहि राज साज समेत सेवक जानिबे बिनु गथ लए।।2।।

ए दारिका परिचारिका करि पालिबीं करुना नई।

                                      

अपराधु छमिबो बोलि पठए बहुत हौं ढीट्यो कई।।

पुनि भानुकुलभूषन सकल सनमान निधि समधी किए।

कहि जाति नहिं बिनती परस्पर प्रेम परिपूरन हिए।।3।।

बृदारका गन सुमन बरिसहिं राउ जनवासेहि चले।

दुंदुभी जय धुनि बेद धुनि नभ नगर कौतूहल भले।।

तब सखीं मंगल गान करत मुनीस आयसु पाइ कै।

दुलह दुलहिनिन्ह सहित सुंदरि चलीं कोहबर ल्याइ कै।।4।।

दोहा-पुनि पुनि रामहि चितव सिय सुकचति मनु सकुचै न।

हरत मनोहर मीन छबि प्रेम पिआसे नैन।।326।।

स्याम सरीरु सुभायँ सुहावन। सोभा कोटि मनोज लजावन।।

जावक जुत पद कमल सुहाए। मुनि मन मधुप रहत जिन्ह छाए।।

पीत पुनीत मनोहर धोती।हरति बाल रबि दामिनि जोती।।

कलकिंकिनि कटि सूत्र मनोहर। बाहू बिसाल बिभूषन सुंदर।।

पीत जनेउ महाछबि देई। कर मुद्रिका चोरि चितु लेई।।

सोहत ब्याह साज सब साजे। उर आयत उरभूषन राजे।।

पिअर उपरना काखासोती। दुहूँ आँचरन्हि लगे मनि मोती।।

नयन कमल कल कुंडल काना। बदनु सकल सौंदर्य निधाना।।

                                      

सुंदर भृकुटि मनोहर नासा। बाल तिलकु रुचिरता निवासा।।

सोहत मौरु मनोहर माथे। मंगलमय मुकुता मनि गाथे।।

छन्द-गाथे महामनि मौर मंजुल अंग सब चित चोरहीं।

पुर नारि सुर सुंदरीं बरहि बिलोकि सब तिन तोरहीं।।

मनि बसन भूषन वारि आरति करहिं मंगल गावहीं।

सुर सुमन बरिसहिं सूत मागध बंदि सुजसु सुनावहीं।।1।।

कोहबरहिं आने कुअँर कुअँरि सुआसिनिन्ह सुख पाइ कै।

अति प्रीति लौकिक रीति लागीं करन मंगल गाइ कै।।

लहकौरि गौरि सिखाव रामहि सीय सन सारद कहैं।

रनिवासु हास बिलास रस बस जन्म को फलु सब लहैं।।2।।

निज पानि मनि महुँ देखिअति मूरति सुरूपनिधान की।

चालति न भुजबल्ली बिलोकनि बिरह भय बस जानकी।।

कौतुक बिनोद प्रमोदु प्रेमु न जाइ कहि जानहिं अलीं।

बर कुअँऱि सुंदर सकल सखीं लवाइ जनवासेहि चलीं।।3।।

तेहि समय सुनिअ असीस जहँ तहँ नगर नभ आनँदु महा।

चिरु जिअहुँ जोरीं चारु चारयो मुदित मन सबहीं कहा।।

                                      

जोगींद्र सिद्ध मुनीस देव बिलोकि प्रभु दुंदुभि हनी।

चले हरषि बरषि प्रसून निज निज लोक जय जय जय भनी।।4।।

दोहा-सहित बधुटिन्ह कुअँर सब तब आए पितु पास।

सोभा मंगल मोद भरि उमगेउ जनु जनवास।।327।।

पुनि जेवनारभई बहु भाँती। पठए जनक बोलाइ बराती।।

परत पाँवड़े बसन अनूपा। सुतन्ह समेत गवन कियो भूपा।।

सादर सब के पाय पखारे। जथाजोगु पीढ़न्ह बैठारे।।

धोए जनक अवधपति चरना। सीलु सनेहु जाइ नहिं बरना।।

बहुरि राम पद पंकज धोए। जे हर हृदय कमल महुँ गोए।।

तीनुउ भाइ राम सम जानी। धोए चरन जनक निज पानी।।

आसन उचित सबहि नृप दीन्हे। बोलि सूपकारी सब लीन्हे।।

सादर लगे परन पनवारे। कनक कील मनि पान सँवारे।।

दोहा-सूपोदन सुरभी सरपि सुंदर स्वादु पुनीत।

छन महुँ सब कें परुसि गे चतुर सुआर बिनीत।।328।।

पंच कवल करि जेवन लागे। गारि गान सुनि अति अनुरागे।।

भाँति अनेक परे पकवाने। सुध सरिस नहिं जाहिं बखाने।।

परुसन लगे सुआर सुजाना। बिंजन बिबिध नाम को जाना।।

                                      

चारि भाँति भोजन बिधि गाई। एक एक बिधि बरनि न जाई।।

छरस रुचिर बिंजन बहु जाती। एक एक रस अगनित भाँती।।

जेवँत देहिं मधुर धुनि गारी। लै लै नाम पुरुष अरु नारी।।

समय सुहावनि गारि बिराजा। हँसत राउ सुनि सहित समाजा।।

एहि बिधि सबहीं भोजनु कीन्हा। आदर सहित आचमनु दीन्हा।।

दोहा-देइ पान पूजे जनक दसरथु सहित समाज।

जनवासेहि गवने मुदित सकल भूप सिरताज।।329।।

नित नूतन मंगल पुर माहीं। निमिष सरिस दिन जामिनि जाहीं।।

बड़े भोर भूपतिमनि जागे। जाचक गुन गन गावन लागे।।

देखि कुअँर बर बधुन्ह समेता। किमि कहि जात मोदु मन जेता।।

प्रातक्रिया करि गे गुरु पाहीं। महाप्रमोदु प्रेमु मन माहीं।।

करि प्रनामु पूजा कर जोरी। बोले गिरा अमिअँ जनु बोरी।।

तुम्हरी कृपाँ सुनहु मुनिराजा। भयउँ आजु मैं पूरनकाजा।।

अब सब बिप्र बोलाइ गोसाईं। देहु धेनु सब भाँति बनाईं।।

सुनि गुर करि महिपाल बड़ाई। पुनि पठए मुनि बृंद बोलाई।।

दोहा-बामदेउ अरु देवरिषि बालमीकि जाबालि।

                                      

आए मुनिबर निकर तब कौसिकादि तपसालि।।330।।

दंड प्रनाम सबहि नृप कीन्हे। पूजि सप्रेम बरासन दीन्हे।।

चारि लच्छ बर धेनु मगाईं। कामसुरभि सम सील सुहाईं।।

सब बिधि सकल अलंकृत कीन्हीं। मुदित महिप महिदेवन्ह दीन्हीं।।

करत बिनय बहु बिधि नरनाहू। लेहउँ आजु जग जीवन लाहू।।

पाइ असीस महीसु अनंदा। लिए बोलि पुनि जाचक बृंदा।।

कनक बसन मनि हय गय स्यंदन। दिए बूझि रुचि रबिकुलनंदन।।

चले पढ़त गावत गुन गाथा। जय जय जय दिनकर कुल नाथा।।

एहि बिधि राम बिआह उछाहू। सकइ न बरनि सहस मुख जाहू।।

दोहा-बार बार कौसिक चरन सीसु नाइ कह राउ।

यह सबु सुखु मुनि राज तव कृपा कटाच्छ पसाउ।।331।।

जनक सनेहु सीलु करतूती। नृप सब भाँति सराह बिभूती।।

दिन उठि बिदा अवधपति मागा। राखहिं जनकु सहित अनुरागा।।

नित नूतन आदरु अधिकाई। दिन प्रति सहस भाँति पहुनाई।।

नित नव नगर अनंद उछाहू। दसरथ गवनु सोहाइ न काहू।।

बहुत दिवस बीते एहि भाँती। जनु सनेह रजु बँधे बराती।।

                                      

कौसिक सतानंद तब जाई। कहा बिदेह नृपहि समुझाई।।

अब दसरथ कहँ आयसु देहू। जद्यपि छाड़ि न सकहु सनेहू।।

भलेहिं नाथ कहि सचिव बोलाए। कहि जय जीव सीस तिन्ह नाए।।

दोहा-अवधनाथु चाहत चलन भीतर करहु जनाउ।

भए प्रेमबस सचिव सुनि बिप्र सभासद राउ।।332।।

पुरबासी सुनि चलिहि बराता। बूझत बिकल परस्पर बाता।।

सत्य गवनु सुनि सब बिलखाने। मनहुँ सँझ सरसिज सकुचाने।।

जहँ जहँ आवत बसे बराती। तहँ तहँ सिद्ध चला बहु भाँती।।

बिबिध भाँति मेवा पकवाना। भोजन साजु न जाइ बखाना।।

भरि भरि बसहँ अपार कहारा। पठईं जनक अनेक सुसारा।।

तुरग लाख रथ सहस पचीसा। सकल सँवारे नख अरु सीसा।।

मत्त सहस दस सिंधुर साजे। जिन्हहि देखि दिसिकुंजर लाजे।।

कनक बसन मनि भरि भरि जाना। महिषीं धेनु बस्तु बिधि नाना।।

दोहा-दाइज अमित न सकिअ कहि दीन्ह बिदेहँ बहोरि।

जो अवलोकत लोकपति लोक संपदा थोरि।।333।।

सबु समाजु एहि भाँति बनाई। जनक अवधपुर दीन्ह पठाई।।

                                      

चलिहि बरात सुनत सब रानीं। बिकल मानगन जनु लघु पानीं।।

पुनि पुनि सीय गोद किर लेहीं। देइ असीस सिखावनु देहीं।।

होएहु संतत पियहि पिआरी। चिरु अहिबात असीस हमारी।।

सासु ससुर गुर सेवा करेहू। पति रुख लखि आयसु अनुसरेहू।।

अति सनेह बस सखीं सयानी। नारि धरम सिखवहिं मृदु बानी।।

सादर सकल कुअँरि समुझाईं। रानिन्ह बार बार उर लाईं।।

बहुरि बहुरि भेटहिं महतारीं। कहहिं बिरंचि रचीं कत नारीं।।

दोहा-तेहि अवसर भाइन्ह सहित रामु बानु कुल केतु।

चले जनक मंदिर मुदित बिदा कारवन हेतु।।334।।

चारिउ भाइ सुभायँ सुहाए। नगर नारि नर देखन धाए।।

कोउ कह चलन चहत हहिं आजू। कीन्ह बिदेह बिदा कर साजू।।

लेहु नयन भरि रूप निहारी। प्रिय पाहुने भूप सुत चारी।।

को जानै केहिं सुकृत सयानी। नयन अतिथि कीन्हे बिधि आनी।।

मरनसीलु जिमि पाव पिऊषा। सुरतरु लहै जनम कर भूखा।।

पाव नारकी हरिपदु जैसें। इन्ह कर दरसनु हम कहँ तैसें।।

निरखि राम सोभा उर धरहू। निज मन फनि मूरति मनि करहू।।

                                      

एहि बिधि सबहि नयन फलु देता। गए कुअँर सब राज निकेता।।

दोहा-रूप सिंधु सब बंधु लखि हरषि उठा रनिवासु।

करहिं निछावरि आरती महा मुदित मन सासु।।335।।

देखि राम छबि अति अनुरागीं। प्रेमबिबस पुनि पुनि पद लागीं।।

रही न लाज प्रीति उर छाई। सहज सनेहु बरनि किमि जाई।।

भाइन्ह सहित उबटि अन्हवाए। छरस असन अति हेतु जेवाँए।।

बोले रामु सुअवसरु जानी। सील सनेह सकुचमय बानी।।

राउ अवधपुर चहत सिधाए। बिदा होन हम इहाँ पठाए।।

मातु मुदित मन आयसु देहू। बालक जानि करब नित नेहू।।

सुनत बचन बिलखेउ रानिवासू। बोलि न सकहिं प्रेमबस सासू।।

हृदयँ लगाइ कुअँरि सब लीन्ही। पतिन्ह सौंपि बिनती अति कीन्ही।।

छन्द-करि बिनय सिय रामहि समरपी जोरि कर पुनि पुनि कहै।

बलि जाउँ तात सुजान तुम्ह कहुँ बिदित गति सब की अहै।।

परिबार पुरजन मोहि राजहि प्रानप्रिय सिय जानिबी।

तुलसीस सीलु सनेहु लखि निज किंकरी करि मानिबी।।

सोरठा-तुम्ह परिपूरन काम जान सिरोमनि भावप्रिय।

                                      

जन गुन गाहक राम दोष दलन करुनायतन।।336।।

अस कहि रही चरन गहि रानी। प्रेम पंक जनु गिरा समानी।।

सुनि सनेहसानी बर बानी। बहुबिधि राम सासु सनमानी।।

राम बिदा मागत कर जोरी। कीन्ह प्रनामु बहोरि बहोरी।।

पाइ असीस बहुरि सिरु नाई। भीइन्ह सहित चले रघुराई।।

मंजु मधुर मूरति उर आनी। भईं सनेह सिथिल सब रानी।।

पुनि धीरजु धरि कुअँरि हँकारीं। बार बार भेटहिं महतारीं।।

पहुँचावहिं फिरि मिलहिं बहोरी। बढ़ी परस्पर प्रीति न थोरी।।

पुनि पुनि मिलत सखिन्ह बिलगाई। बाल बच्छ जिमि धेनु लवाई।।

दोहा-प्रेमबिबस नर नारि सब सखिन्ह सहित रनिवासु।

मानहुँ कीन्ह बिदेहपुर करुनाँ बिरहँ निवासु।।337।।

सुक सारिका जानकी ज्याए। कनक पिंजरन्हि राखि पढ़ाए।।

ब्याकुल कहहिं कहाँ बैदेही। सुनि धीरजु परिहरइ न केही।।

भए बिकल खग मृग एहि भाँती। मनुज दसा कैसें कहि जाती।।

बंधु समेत जनकु तब आए। प्रेम उमगि लोचन जल छाए।।

सीय बिलोकि धीरता भागी। रहे कहावत परम बिरागी।।

                                      

लीन्हि रायँ उर लाइ जानकी। मिटी महामरजाद ग्यान की।।

समुझावत सब सचिव सयाने। कीन्ह बिचारु न अवसर जाने।।

बारहिं बार सुता उर लाईं। सजि सुंदर पालकीं मगाईं।।

दोहा-प्रेमबिबस परिवारु सबु जानि सुलगन नरेस।

कुअँरि चढ़ाईं पालकिन्ह सुमिरे सिद्धि गनेस।।338।।

बहुबिधि भूप सुता समुझाईं नारिधरमु कुलरीति सिखाईं।।

दासी दास दिए बहुतेरे। सुचि सेवक जे प्रिय सिय केरे।।

सीय चलत ब्याकुल पुरबासी। होहिं सग  नसुभ मंगल रासी।।

भूसुर सचिव समेत समाजा। संग चले पहुँचावन राजा।।

समय बिलोकि बाजने बाजे। रथ गज बाजि बरातिन्ह साजे।।

दसरथ बिप्र बोलि सब लीन्हे। दान मान परिपूरन कीन्हे।।

चरन सरोज धूरि दरि सीसा। मुदित महीपति पाइ असीसा।।

सुमिरि गजाननु कीन्ह पयाना। मंगलमूल सगुन भए नाना।।

दोहा-सुर प्रसून बरषहिं हरषि करहिं अपछरा गान।

चले अवधपति अवधपुर मुदित बजाइ निसान।।339।।

नृप करि बिनय महाजन फेरे। सादर सकल मागने टेरे।।

                                      

भूषन बसन बाजि गज दीन्हे। प्रेम पोषि ठाढ़े सब कीन्हे।।

बार बार बिरिदावलि भाषी। फिरे सकल रामहि उर राखी।।

बहुरि बहुरि कोसलपति कहहीं। जनकु प्रेमबस फिरै न चहहीं।।

पुनि कह भूपति बचन सुहाए। फिरिअ महीस दूरि बड़ि आए।।

राउ बहोरि उतरि भए ठाढ़े। प्रेम प्रबाह बिलोचन बाढ़े।।

तब बिदेह बोले कर जोरी। बचन सनेह सुधाँ जनु बोरी।।

करौं कवन बिधि बिनय बनाई। महाराज मोहि दीन्हि बड़ाई।।

दोहा-कोसलपति समधी सजन सनमाने सब भाँति।

मिलनि परसपर बिनय अति प्रीति न हृदयँ समाति।।340।।

मुनि मंडलिहि जनक सिरु नावा। आसिरबादु सबहि सन पावा।।

सादर पुनि भेंटे जामाता। रूप सील गुन निधि सब भ्राता।।

जोरि पंकरूह पानि सुहाए । बोले बचन प्रेम जनु जाए।।

राम करौं केहि भाँति प्रसंसा। मुनि महेस मन मानस हंसा।।

करहिं जोग जोगी जेहि लागी। कोहु मोहु ममता मदु त्यागी।।

ब्यापकु ब्रह्मु अलखु अबिनासी। चिदानंदु निरगुन गुनरासी।।

मन समेत जेहि जान न बानी। तरकि न करहिं सकल अनुमानी।

                                      

महिमा निगमु नेति कहि कहई। जो तिहुँ काल एकरस रहई।।

दोहा-नयन बिषय मो कहुँ भयउ सो समस्त सुख मूल।

सबइ लाभु जग जीव कहँ भएँ ईसु अनुकूल।।341।।

सबहि भाँति मोहि दीन्हि बड़ाई। निज जन जानि लीन्ह अपनाई।।

होहिं सहस दस सारद सेषा। करहिं कलप कोटिक भरि लेखा।।

मोर भाग्य राउर गुन गाथा। कहि न सिराहिं सुनहु रघुनाथा।।

मैं कछु कहउँ एक बल मोरें। तुम्ह रीझहु सनेह सुठि थोरें।।

बार बार मागउँ कर जोरें। मनु परिहरै चरन जनि भोरें।।

सुनि बर बचन प्रेम जनु पोषे। पूरनकाम रामु परितोषे।।

करि बर बिनय ससुर सनमाने। पितु कौसिक बसिष्ठ सम जाने।।

बिनती बहुरि भरत सन कीन्ही। मिलि सप्रेम पुनि आसिष दीन्ही।।

दोहा-मिले लखन रिपुसूदनहि दीन्हि असीस महीस।

भए परसपर प्रेमबस फिरि फिरि नावहिं सीस।।342।।

बार बार करि बिनय बड़ाई। रघुपति चले संग सब भाई।।

जनक गहे कौसिक पद जाई। चरन रेनु सिर नयनन्ह नाई।।

सुनु मुनीस बर दरसन तोरें। अगमु न कछु प्रतीति मन मोरें।।

                                      

जो सुखु सुजसु लोकपति चहहीं। करत मनोरथ सकुचत अहहीं।।

सो सुखु सुजसु सुलभ मोहि स्वामी। सब सिधि तव दरसन अनुगामी।।

कीन्हि बिनय पुनि पुनि सिरु नाई। फिरे महीसु आसिषा पाई।।

चली बरात निसान बजाई। मुदित छोट बड़ सब समुदाई।।

रामहि निरखि ग्राम नर नारी। पाइ नयन फलु होहिं सुखारी।।

दोहा-बीच बीज बर बास करि मग लोगन्ह सुख देत।

अवध समीप पुनीत दिन पहुँची आइ जनेत।।343।।

हने निसान पनव बर बाजे। भेरि संख धुनि हय गय गाजे।।

झाँझि बिरव डिंडमीं सुहाई। सरस राग बाजहिं सहनाई।।

पुर जन आवत अकनि बराता। मुदित सकल पुलकावलि गाता।।

निज निज सुंदर सदन सँवारे। हाट बाट चौहट पुर द्वारे।।

गलीं सकल अरगजाँ सिंजाईं। जहँ तहँ चौकें चारु पुराईं।।

बना बचारु न जाइ बखाना। तोरन केतु पताक बिताना।।

सफल पूगफल कदलि रसाला लोपे बकुल कदंब तमाला।।

लगे सुभग तरु परसत धरनी। मनिमय आलबाल कल करनी।।

दोहा-बिबिध भाँति मंगल कलस गृह गृह रचे सँवारि।

                                      

सुर ब्रह्मादि सिहाहिं सब रघुबर पुरी निहारि।।344।।

भूप भवनु तेहि अवसर सोहा। रचना देखि मदन मनु मोहा।।

मंगल सगुन मनोहरताई। रिधि सिधि सुख संपदा सुहाई।।

जनु उछाह सब सहज सुहाए। तनु धरि धरि दसरथ गृहँ छाए।।

देखन हेतु राम बैदेही। कहहु लालसा होहि न केही।।

जूथ जूथ मिलि चलीं सुआसिनि। निज छबि निदरहिं मदन बिलासिनि।।

सकल सुमंगल सजें आरती। गावहिं जनु बहु बेष भारती।।

भूपति भवन कोलाहलु होई। जाइ न बरनि समउ सुखु सोई।।

कौलस्यादि राम महतारीं। प्रेमबिबस तन दसा बिसारीं।।

दोहा-दिए दान बिप्रन्ह बिपुल पूजि गनेस पुरारि।

प्रमुदित परम दरिद्र जनु पाइ पदारथ चारि।।345।।

मोद प्रमोद बिबस सब माता। चलहिं न चरन सिथिल भए गाता।।

राम दरस हित अति अनुरागीं। परिछनि साजु सजन सब लागीं।।

बिबिध बिधान बाजने बाजे। मंगल मुदित सुमित्राँ साजे।।

हरद दूब दधि पल्लव फूला। पान पूगफल मंगल मूला।।

अच्छत अंकुर लोचन लाजा। मंजुल मंजरि तुलसि बिराजा।।

                                      

छुहे पुरट घट सहज सुहाए। मदन सकुन जनु नीड़ बनाए।।

सगुन सुगंध न जाहिं बखानी। मंगल सकल सजहिं सब रानी।।

रचीं आरतीं बहुत बिधाना। मुदित करहिं कल मंगल गाना।।

दोहा-कनक थार बरि मंगलन्हि कमल करन्हि लिएँ मात।

चलीं मुदित परिछनि करन पुलक पल्लिवत गात।।346।।

धूप धूम नभु मेचक भयऊ। सावन घन घमंडु जनु ठयऊ।।

सुरतरु सुमन माल सुर बरषहिं। मनहुँ बलाक अवलि मनु करषहिं।।

मंजुल मनिमय बंदनिवारे। मनहुँ पाकरिपु चाप सँवारे।।

प्रगटहिं दुरहिं अटन्ह पर भामिनि। चारु चपल जनु दमकहिं दामिनि।।

दुंदुभि धुनि घन गरजनि घोरा। जाचक चातक दादुर मोरा।।

सुर सुगंध सुचि बरषहिं बारी। सुखी सकल ससि पुर नर नारी।।

समउ जानि गुर आयसु दीन्हा। पुर प्रबेसु रघुकुलमनि कीन्हा।।

सुमिरि संभु गिरिजा गनराजा। मुदित महीपति सहित समाजा।।

दोहा-होहिं सगुन बरषहिं सुमन सुर दुंदुभीं बजाइ।

बिबुध बधु नाचहिं मुदित मंजुल मंगल गाइ।।347।।

मागध सूत बंदि नट नागर। गावहिं जसु तिहु लोक उजागर।।

                                      

जय धुनि बिमल बेद बर बानी। दस दिसि सुनिअ सुमंगल सानी।।

बिपुल बाजने बाजन लागे। नभ सुर नगर लोग अनुरागे।।

बने बराती बरनि न जाहीं। महा मुदित मन सुख न समाहीं।।

पुरबासिन्ह तब राय जोहारे। देखत रामहि भए सुखारे।।

करहिं निछावरि मनिगन चीरा। बारि बिलोचन पुलक सरीरा।।

आरति करहिं मुदित पुर नारी। हरषहिं निरखि कुअँर बर चारी।।

सिबिका सुभग ओहार उघारी। देखि दुलहिनिन्ह होहिं सुखारी।।

दोहा-एहि बिधि सबही देत सुखु आए रजदुआर।

मुदित मातु परिछनि करहिं बधुन्ह समेत कुमार।।348।।

करहिं आरती बारहिं बारा। प्रेमु प्रमोदु कहै को पारा।।

भूषन मनि पट नाना जाती। करहिं निछावरि अगनित भाँती।।

बधुन्ह समेत देखि सुत चारी। परमानंद मगन महतारी।।

पुनि पुनि सीय राम छबि देखी। मुदित सफल जग जीवन लेखी।।

सखीं सीय मुख पुनि पुनि चाही। गान करहिं निज सुकृत सराही।।

बरषहिं सुमन छनहिं छन देवा। नाचहिं गावहिं लावहिं सेवा।।

देखि मनोहर चारिउ जोरीं। सारद उमा सकल ढँढोरीं।।

                                      

देत न बनहिं निपट लघु लागीं। एकटक रहीं रूप अनुरागीं।।

दोहा-निगम नीति कुल रीति करि अरघ पाँवड़े देत।

बधुन्ह सहित सुत परिछि सब चलीं लवाइ निकेत।।349।।

चारि सिंघासन सहज सुहाए। जनु मनोजनिज हाथ बनाए।।

तिन्ह पर कुअँरि कुअँर बैठारे। सादर पाय पुनीत पखारे।।

धूप दीप नैबेद बेद बिधि। पूजे बर दुलहिनि मंगलनिधि।।

बारहिं बार आरती करहीं। ब्यजन चारु जामर सिर ढरहीं।।

बस्तु अनेक निछावरि होहीं। भरीं प्रमोद मातु सब सोहीं।।

पावा परम तत्व जनु जोगीं। अमृतु लहेउ जनु संतत रोगीं।।।

जनम रंक जनु पारस पावा। अंधहि लोचन लाभु सुहावा।।

मूक बदन जनु सारद छाई। मानहुँ समर सूर जय पाई।।

दोहा-एहि सुख ते सत कोटि गुन पावहिं मातु अनंदु।

भाइन्ह सहित बिआहि घर आए रघुकुलचंदु।।350क।।

लोक रीति जननीं करहिं बर दुलहिनि सकुचाहिं।

मोदु बिनोदु बिलोकि बड़ रामु मनहिं मुसुकाहिं।।350ख।।

देव पितर पूजे बिधि नीकी। पूजीं सकल बासना जी की।।

                                      

सबहि बंदि मागहिं बरदाना। भाइन्ह सहित राम कल्याना।।

अंतरहित सुर आसिष देहीं। मुदित मातु अंचल भरि लेहीं।।

भूपति बोलि बराती लीन्हे। जान बसन मनि भूषन दीन्हे।।

आयसु पाइ राखि उर रामहि। मुदित गए सब निज निज धामहि।।

पुर नर नारि सकल पहिराए। घर घर बाजन लगे बधाए।।

जाचक जन जाचहिं जोइ जोई। प्रमुदित राउ देहिं सोइ सोई।।

सेवक सकल बजनिआ नाना। पूरन किए दान सनमाना।।

दोहा-देहिं असीस जोहारि सब गावहिं गुन गन गाथ।

तब गुर भूसुर सहित गृहँ गवनु कीन्ह नरनाथ।।351।।

जो बसिष्ट अनुसासन दीन्ही। लोक बेद बिधि सादर कीन्ही।।

भूसुर भीर देखि सब रानी। सादर उठीं भाग्य बड़ जानी।।

पाय पखारि सकल अन्हवाए। पूजि भली बिधि भूप जेवाँए।।

आदर दान प्रेम परिपोषे। देत असीस चले मन तोषे।।

बहु बिधि कीन्हि गाधिसुत पूजा। नाथ मोहि सम धन्य न दूजा।।

कीन्हि प्रसंसा भूपति भूरी। रानिन्ह सहित लीन्ह पग धूरी।।

भीतर भवन दीन्ह बर बासू। मन जोगवत रह नृपु रनिवासू।।

                                      

पूजे गुर पद कमल बहोरी। कीन्हि बिनय उर प्रीति न थोरी।।

दोहा-बधुन्ह समेत कुमार सब रानिन्ह सहित महीसु।

पुनि पुनि बंदत गुर चरन देत असीस मुनीसु।।352।।

बिनय कीन्हि उर अति अनुरागें। सुत संपदा राखि सब आगें।।

नेगु मागि मुनिनायक लीन्हा। आसिरबादु बहुत बिधि दीन्हा।।

उर धरि रामहि सीय समेता। हरिषि कीन्ह गुर गवनु निकेता।।

बिप्रबधू सब भूप बोलाईं। चैल चारु भूषन पहिराईं।।

बहुरि बोलाइ सुआसिनि लीन्हीं। रुचि बिचारि पहिरावनि दीन्हीं।।

नेगी नेग जोग सब लेहीं। रुचि अनुरूप भूपमनि देहीं।।

प्रिय पाहुने पूज्य जे जाने। भूपति भली भाँति सनमाने।।

देव देखि रघुबीर बिबाहू। बरषि प्रसून प्रसंसि उछाहू।।

दोहा-चले निसान बजाइ सुर निज निज पुर सुख पाइ।

कहत परसपर राम जसु प्रेम न हृदयँ समाइ।।353।।

सब बिधि सबहि समदि नरनाहू। रहा हृदयँ भरि पूरि उछाहू।।

जहँ रनिवासु तहाँ पगु धारे। सहित बहूटिन्ह कुअँर निहारे।।

लिए गोद करि मोद समेता। को कहि सकइ भयउ सुखु जेता।।

बधू सप्रेम गोद बैठारीं। बार बार हिंय हरषि दुलारीं।।

                                      

देखि समाजु मुदित रनिवासू। सब कें उर अनंद कियो बासू।।

कहेउ भूप जिमि भयउ बिबाहू। सुनि सुनि हरषु होत सब काहू।।

जनक राज गुन सीलु बड़ाई। प्रीति रीति संपदा सुहाई।।

बहुबिधि भूप भाट जिमि बरनी। रानीं सब प्रमुदित सुनि करनी।।

दोहा-सुतन्ह समेत नहाइ नृप बोलि बिप्र गुर ग्याति।

भोजन कीन्ह अनेक बिधि घरी पंच गइ राति।।354।।

मंगलगान करहिं बर भामिनि। भै सुखमूल मनोहर जामिनि।।

अँचइ पान सब काहूँ पाए। स्रग सुगंध भूषित छबि छाए।।

रामहि देखि रजायसु पाई। निज निज भवन चले सिर नाई।।

प्रेमु प्रमोदु बिनोदु बड़ाई। समउ समाजु मनोहरताई।।

कहि न सकहिं सत सारद सेसु। बेद बिरंचि महेस गनेसू।।

सो मैं कहों कवन बिधि बरनी। भूमिनागु सिर धरइ कि धरनी।।

नृप सब भाँति सबहि सनमानी। कहि मृदु बचन बोलाईं रानी।।

बधू लरिकनीं पर घर आईं। राखेहु नयन पलक की नाईं।।

दोहा-लरिका श्रमित उनीद बस सयन करावहु जाइ।

अस कहि गे बिश्रामगृहँ राम चरन चितु लाइ।।355।।

                                      

भूप बचन सुनि सहज सुहाए। जरित कनक मनि पलँग डसाए।।

सुभग सुरभि पय फेन समाना। कोमल कलित सुपेतीं नाना।।

उपबरहन बर बरनि न जाहीं। स्रग सुगंध मनिमंदिर माहीं।।

रतनदीप सुठि चारु चँदोवा। कहत न बनइ जान जेहिं जोवा।।

सेज रुचिर रचि रामु उठाए। प्रेम समेत पलँग पौढ़ाए।।

अग्या पुनि पुनि भाइन्ह दीन्ही। निज निज सेज सयन तिन्ह कीन्ही।।

देखि स्याम मृदु मंजुल गाता। कहहिं सप्रेम बचन सब माता।।

मारग जात भयावनि भारी। केहि बिधि तात ताड़का मारी।।

दोहा-घोर निसाचर बिकट भट समर गनहिं नहिं काहु।

मारे सहित सहाय किमि खल मारीच सुबाहू।।356।।

मुनि प्रसाद बलि तात तुम्हारी। ईस अनेक करवटें टारी।।

मख रखवारी करि दुहुँ भाईं। गुरु प्रसाद सब विद्या पाईं।।

मुनितिय तरी लगत पग धूरी। कीरति रही भुवन भरि पूरी।।

कमठ पीठि पबि कूट कठोरा। नृप समाज महुँ सिव धनु तोरा।।

बिस्व बिजय जसु जानकि पाई। आए भवन ब्याहि सब भाई।।

सकल अमानुष करम तुम्हारे। केवल कौसिक कृपाँ सुधारे।।

                                      

आजु सुफल जग जनमु हमारा। देखि तात बिधुबदन तुम्हारा।।

जे दिन गए तुम्हहि बिनु देखें। ते बिरंचि जनि पारहिं लेखें।।

दोहा-राम प्रतोषीं मातु सब कहि बिनीत बर बैन।

सुमिरि संभु गुर बिप्र पद किए नीदबस नैन।।357।।

नीदउँ बदन सोह सुठि लोना। मनहुँ साँझ सरसीरुह सोना।।

घर घर करहिं जगरन नारीं। देहिं परसपर मंगल गारीं।।

पुरी बिराजति राजति रजनी। रानी कहहिं बिलोकहु सजनी।।

सुंदर बधुन्ह सासु लै सोईं। फनिकन्ह जनु सिरमनि उर गोईं।।

प्रात पुनीत काल प्रभु जागे। अरुनचूड़ बर बोलन लागे।।

बंदि मागधन्हि गुनगन गाए। पुरजन द्वार जोहरन आए।।

बंदि बिप्र सुर गुर पितु माता। पाइ असीस मुदित सब भ्राता।।

जननिन्ह सादर बदन निहारे। भूपति संग द्वार पगु धारे।।

दोहा-कीन्हि सौच सब सहज सुचि सरित पुनीत नहाइ।

प्रातक्रिया करि तात पहिं आए चारिउ भाइ।।358।।

भूप बिलोकि लिए उर लाई। बैठे हरषि रजायसु पाई।।

देखि रामु सब सभा जुड़ानी। लोचन लाभ अवधि अनुमानी।।

                                      

पुनि बसिष्टु मुनि कौसिकु आए। सुभग आसनन्हि मुनि बैठाए।।

सुतन्ह समेत पूजि पद लागे। निरखि रामु दोउ गुर अनुरागे।।

कहहिं बसिष्टु धरम इतिहासा। सुनहिं महीसु सहित रनिवासा।।

मुनि मन अगम गाधिसुत करनी। मुदित बसिष्ट बिपुल बिधि बरनी।।

बोले बामदेउ सब साँची। कीरति कलित लोक तिहुँ माची।।

सुनि आनंदु भयउ सब काहू। राम लखन उर अधिक उछाहू।।

दोहा-मंगल मोद उछाह नित जाहिं दिवस एहि भाँति।

उमगी अवध अनंद भरि अधिक अधिक अधिकाति।।359।।

सुदिन सोधि कल कंकन छोरे। मंगल मोद बिनोद न तोरे।।

नित नव सुखु सुर देखि सिहाहीं। अवध जन्म जाचहिं बिधि पाहीं।।

बिस्वामित्रु चलन नित चहहीं। राम सप्रेम बिनय बस रहहीं।।

दिन दिन सयगुन भूपति भाऊ। देखि सराह महामुनिराऊ।।

मागत बिदा राउ अनुरागे। सुतन्ह समेत ठाढ़ भे आगे।।

नाथ सकल संपदा तुम्हारी। मैं सुवकु समेत सुत नारी।।

करब सदा लरिकन्ह पर छोहू। दरसनु देत रहब मुनि मोहू।।

अस कहि राउ सहित सुत रानी। परेउ चरन मुख आव न बानी।।

                                      

दीन्हि असीस बिप्र बहु भाँती। चले न प्रीति रीति कहि जाती।।

रामु सप्रेम संग सब भाई। आयसु पाइ फिरे पहुँचाई।।

दोहा-राम रूपु भूपति भगति ब्याहू उछाहु अनंदु।

जात सराहत मनहिं मन मुदित गाधिकुलचंदु।।360।।

बामदेव रघुकुल गुर ग्यानी। बहुरि गाधिसुत कथा बखानी।।

सुनि मुनि सुजसु मनहिं मन राऊ। बरनत आपन पुन्य प्रभाऊ।।

बहुरे लोग रजायसु भयऊ। सुतन्ह समेत नृपति गृहँ गयऊ।।

जहँ तहँ राम ब्याहु सबु गावा। सुजसु पुनीत लोक तिहुँ छावा।।

आए ब्याहि रामु घर जब तें। बसइ अनंद अवध सब तब तें।।

प्रभु बिबाहँ जस भयउ उछाहू। सकहिं न बरनि गिरा अहिनाहू।।

कबिकुल जीवनु पावन जानी। राम सीय जसु मंगल खानी।।

तेहि ते मैं कछु कहा बखानी। करन पुनीत हेतु निज बानी।।

छन्द- निज गिरा पावनि करन कारन राम जसु तुलसीं कह्यो।

रघुबीर चरित अपार बारिधि पारु कबि कौनें लह्यो।।

उपबीत ब्याह उछाह मंगल सुनि जे सादर गावहीं।

बैदेहि राम प्रसाद ते जन सर्बदा सुखु पावहीं।।

                                      

सोरठा-सिय रघुबीर बिबाहू जे सप्रेम गावहिं सुनहिं।

तिन्ह कहुँ सदा उठाहु मंगलायतन राम जसु।।361।।

।।।बालकाण्ड समाप्त।।

         

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