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पतञ्जलि योग सूत्र

अष्टाङ्ग योग

|प्रथमःसमाधिपादः |द्वितीयः साधनापादः|तृतीयः पादः - विभूतिपादः|चतुर्थः पादः कैवल्यपादः|

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सूत्रों का हिन्दी अर्थ
 

पातञ्जल-योगसूत्रम्, प्रथमः पादः समाधिपादः

1.1        अथ = यहाँ से, अब (मंगलाचरणार्थक भी), योगानुशासनम् = गुरुशिष्य परम्परा से प्राप्त योगविषयक शास्त्र (आरम्भ करते हैं)।

1.2        चित्तवृत्तिनिरोधः = चित्त की वृत्तियों का निरोध( रुकना, हट जाना) ही योगः = योग है।

1.3        तदा उस समय, द्रष्टुः द्रष्टा की, स्वरूपे अपने निजरूप में, अवस्थानम् -  स्थिति हो जाती है।

1.4        वृत्तिसारूप्यम् वृत्ति के समान रूप(जैसा) (द्रष्टा), इतरत्र यहाँ से/इससे भिन्न अवस्थिति में होता है।

1.5        वृत्तयः वृत्तियाँ, पञ्चतय्यः पाँच प्रकार की/रूपों वाली, क्लिष्टाक्लिष्टा क्लिष्ट या अक्लिष्ट प्रकार की होती हैं।

1.6        प्रमाणविपर्ययविकल्पनिद्रास्मृतयः ये (वृत्तियाँ) हैं प्रमाण, विपर्यय, विकल्प, निद्रा एवं स्मृति (पाँच प्रकार से हैं)।

1.7        प्रत्यक्षानुमानागमाः प्रत्यक्ष, अनुमान और आगम, प्रमाणानि - ये प्रमाण हैं।

1.8        अतद्रूपप्रतिष्ठम् जो उस वस्तु के स्वरूप में प्रतिष्ठित नहीं है, ऐसा, मिथ्याज्ञानम् मिथ्याज्ञान(सद् असद् मिश्रित), विपर्ययः विपर्यय है।

1.9        शब्दज्ञानानुपाती शाब्दिक ज्ञान के साथ उत्पन्न या शब्दजनित बोध के अनुसार प्रतीति, और वस्तुशून्यः जिसका विषय वास्तव में नहीं है, विकल्पः विकल्प है।

1.10    अभावप्रत्यालम्बना अभाव के बोध/ज्ञान के आलम्बन से (होने वाली), वृत्तिः वृत्ति, निद्रा निद्रा है।

1.11    अनूभूतविषयासम्प्रमोषः अनुभव किये गये विषय का लोप न होना(अर्थात् पुनः ध्यान में आ जाना), स्मृतिः स्मृति है।

1.12    तन्निरोधः उन (चित्त की क्लिष्ट एवं अक्लिष्ट वृत्तियों) का निरोध, अभ्यावैराग्याभ्यां -  अभ्यास एवं वैराग्य के द्वारा होता है।

1.13    तत्र उस, स्थितौ स्थिति में, (चित्त की वृत्तियों के निरोध के लिये) जो, यत्नः प्रयास है, वह ही, अभ्यासः अभ्यास है।

1.14    तु परन्तु, सः वह(अभ्यास), दीर्घकालनैरन्तर्यसत्कारSSसेवितः लम्बे समयावधि पर्यन्त निरन्तर और भलिभाँति (आदरपूर्वक) सेवन किये जाने पर, दृढभूमिः दृढ़ अवस्थित होता है।

1.15    दृष्टानुश्रविकविषयवितृष्णस्य देखे और सुने हुये विषयों में चित्त में(सन्निहित) तृष्णा का वशीकारसंज्ञा वश में होना, वैराग्यम् वैराग्य (की अवस्था) है।

1.16    पुरुषख्यातेः पुरुष के ज्ञान से, गुणवैतृष्ण्यम् (प्रकृति के) गुणों में वितृष्णा(तृष्णा के सर्वथा अभाव की), तत् वह स्थिति, परम् परवैराग्य है।

1.17    वितर्कविचारानन्दास्मितानुगमात् वितर्क, विचार, आनन्द एवं अस्मिता इन चारों के अनुगमन या सम्बन्ध से युक्त, सम्प्रज्ञातः सम्प्रज्ञात योग/समाधि है।

1.18    विरामप्रत्ययाभ्यासपूर्वः विराम प्रत्यय का अभ्यास जिसकी पूर्वावस्था है और,  संस्कारशेषः जिसमें चित्त में केवल संस्कार मात्र शेष हों, वह योग/ समाधि, अन्यः अन्य है।

1.19    विदेहप्रकृतिलयानाम् विदेह एवं प्रकृतिलय योगियों का (उपरोक्त योग) भवप्रत्ययः भवप्रत्यय कहलाता है।

1.20    इतरेषाम् अन्यों का(दूसरे साधकों का), श्रद्धावीर्यस्मृतिसमाधिप्रज्ञापूर्वक श्रद्धा, वीर्य, स्मृति, समाधि और प्रज्ञापूर्वक (सिद्ध) होता है।

1.21    तीव्रसंवेगानाम् जिनके संवेग(साधन) की गति तीव्र है उनकी (समाधि), आसन्नः निकट, शीघ्र (सिद्ध) होती है।

1.22    मृदुमध्याधिमात्रत्वात् (साधन की मात्रा / गति) मृदु(हल्की), मध्यम अथवा अधिक(उच्च) होने पर, ततः तीव्र संवेगों वाले में, अपि भी, विशेषः (काल का) भेद हो जाता है।

1.23    वा अथवा(इसके अतिरिक्त), ईश्वरप्रणिधानात् ईश्वरप्रणिधान से (समाधि की सिद्धि शीघ्र होती है)।

1.24    क्लेशकर्मविपाकाशयैः क्लेश, कर्म, विपाक और आशय (इन चारों से), अपरामृष्टः अपृथक्(अप्रभावित), पुरुषविशेषः जो समस्त पुरुषों से उत्तम हैं, वह, ईश्वरः ईश्वर हैं।

1.25    तत्र उस (ईश्वर में) सर्वज्ञबीजम् सर्वज्ञाता का बीज (अर्थात् कारण) अर्थात् ज्ञान, निरतिशयम् निरतिशय (जिसकी सीमा न हो, ऐसा है) है।

1.26    पूर्वेषाम् वह पूर्वजों का, अपि भी, गुरुः गुरु है, कालेन अनवच्छेदात् काल के द्वारा उसका अवच्छेदन या विभाजन नहीं होने से(काल से अप्रभावित हैं)।

1.27    तस्य उस ईश्वर का, वाचकः वाचक (नाम), प्रणवः प्रणव या ॐ कार है।

1.28    तत् उस (प्रणव) का, जपः जप और, तदर्थभावनम् उसके अर्थ की भावना/चिन्तन (करना चाहिये)।

1.29    ततः इससे (उक्त से), अन्तरायाभावः विघ्नों का अभाव, और, प्रत्यक्चेतनाधिगमः अन्तरात्मा के स्वरूप का अधिगम(ज्ञान), अपि भी (हो जाता है)।

1.30    व्याधिस्त्यानसंशयप्रमादाऽऽलस्याऽविरतिभ्रान्तिदर्शानाऽलब्धभूमिकत्वानवस्थितत्वानि व्याधि(रोग), स्त्यान(अकर्मण्यता), संशय, प्रमादा(लापरवाही, निरर्थकता), आलस्या, अविरति(साधना मार्ग से हटना), भ्रान्तिदर्शान, अलब्धभूमिकत्व, और अनवस्थितत्व (स्थिरता न हो पाना), ये नौ हैं, जो कि, चित्तविक्षेपाः चित्त के विक्षेप हैं, ते वे ही, अन्तरायाः अन्तराय (विघ्न) हैं।

1.31    दुःखदौर्मनस्याङ्गमेजयत्वश्वासप्रश्वासाः दुःख, दौर्मनस्य, अङ्गमेजयत्व, श्वास और प्रश्वासा ये पाँच विघ्न, विक्षेपसहभुवः विक्षेपों के साथ-साथ होने वाले हैं।

1.32    तत्प्रतिषेधार्थम् उन (उपरोक्त के) प्रतिषेध(दूर करने के लिये), एकतत्त्वाभ्यासः एक तत्त्व का अभ्यास (करना चाहिये।)

1.33    सुखदुःखपुण्यापुण्यविषयाणाम् सुख, दुःख, पुण्य एवं अपुण्य (जिनके चित्त के विषय हैं) उनकी, मैत्रीकरुणामुदितोपेक्षाणाम् मैत्री, करूणा, मुदिता(मन की प्रसन्नता) तथा उपेक्षा की, भावनातः भावना से, चित्तप्रसादनम् चित्त प्रसाद(शान्ति) होता है।

1.34    वा अथवा, प्राणस्य प्राण वायु का, प्रच्छर्दनविधारणाभ्याम् बारबार बाहर निकालने और रोकने के अभ्यास से भी (चित्त शान्त, निर्मल होता है)।

1.35    विषयवती विषयों वाली, प्रवृत्तिः प्रवृत्तियाँ, मनसः मन की, स्थितिनिबन्धनी स्थिति को बाँधती है।

1.36    वा इसके सिवा (यदि), विशोका शोकरहित, ज्योतिष्मती ज्योतिष्मती प्रवृत्ति (ध्यान में ज्योति के दिखने पर साधक का रूकना) भी (मन की स्थिति को बाँधती है।)

1.37    वीतरागविषयम् - जिसके राग समाप्त हो गये हों उनको भी विषय करने वाला(उन पर सोचने वाला), चित्तम् चित्त, वा भी (प्रगति में बाधित होता है)

1.38    स्वप्ननिद्राज्ञानालम्बनम् स्वप्न या निद्रा के ज्ञान का आलम्बन करने वाला चित्त, वा -  भी (प्रगति में बाधित होता है)

1.39    यथाभिमतध्यानात् जिसका जो अभिमत (बार-बार विचार करने की प्रवृत्ति) हो उसके ध्यान से, वा - भी (प्रगति में बाधित होता है)।

1.40    अस्य (उससमय) इसका, परमाणुपरममहत्त्वान्तः परमाणु से लेकर परममहत्त्व तक, वशीकारः वशीकार हो जाता है।

1.41    क्षीणवृत्तेः जिसकी समस्त बाह्यवृत्तियाँ क्षीण हो चकी हैं, उसका, मणेः इव अभिजातस्य स्फटिक मणि की भाँति स्वच्छ चित्त का, गृहीतग्रहणग्राह्येषु जो ग्रहीता (पुरुष), ग्रहण (अन्तःकरण और इन्द्रियाँ) तथा ग्राह्य (पञ्चभूत और विषयों) में, तत्स्थतदञ्जनता स्थित हो जाना और तदाकार हो जाना है, यही, समापत्तिः सम्प्रज्ञात समाधि है।

1.42    तत्र उनमें, शब्दार्थज्ञानविकल्पैः शब्द, अर्थ और ज्ञान इन तीनों के विकल्पों से, संकीर्णा संकीर्ण, मिश्रित, मिली हुयी, समापत्तिः समाधि, सवितर्का सवितर्क है।

1.43    स्मृतिपरिशुद्धौ स्मृति के शोधन से (लोप हो जाने पर), स्वरूपशून्या अपने रूप के शून्य होने पर, इव जैसा, अर्थमात्रनिर्भासा केवलध्येय मात्र की प्रतीति या भास होने पर चित्ति की अवस्था, निर्वितर्का निर्वितर्क समाधि है।

1.44    एतया एव इन्हीं के द्वारा (सवितर्क एवं निर्वितर्क के द्वारा), सूक्ष्मविषया सूक्ष्मविषयों में की जाने वाली, सविचारा - सविचार और, निर्विचारा निर्विचार समाधि का, च भी, व्याख्याता वर्णन किया जाता है।

1.45    साथ ही/तथा, सूक्ष्मविषयत्वम् सूक्ष्मविषयत्व (विषयभाव), अलिङ्गपर्यवसानम् प्रकृतिपर्यन्त है।

1.46    ता वे, एव ही, सबीजः सबीज, समाधिः समाधि हैं।

1.47    निर्विचारवैशारद्ये निर्विचार (समाधि) के विशारदता(प्रवीणता/गहनता) से, अध्यात्मप्रसादः अध्यात्मप्रसाद(आत्मिकसुख/शान्ति प्राप्ति होती है) ।

1.48    तत्र उस समय, प्रज्ञा योगी की प्रज्ञा, ऋतम्भरा ऋतम्भरा(सत् को ग्रहण करने वाली) होती है।

1.49    श्रुतानुमानप्रज्ञाभ्याम् श्रवण एवं अनुमान से होने वाली बुद्धि की अपेक्षा, अन्यविषया इस बुद्धिका(उपरोक्त प्रज्ञा का) विषय भिन्न है, विशेषार्थत्वात् (क्योंकि इसके) विशेष अर्थ वाली होने से।

1.50    तज्जः उससे जनित/उत्पन्न, संस्कार संस्कार, अन्यसंस्कारप्रतिबन्धी दूसरे संस्कारों का बाध करने (हटाने) वाला होता है।

1.51    तस्य उसका, अपि भी, निरोधे निरोध हो जाने पर, सर्वनिरोधात् सबका निरोध होने से, निर्बीजः निर्बीज, समाधिः समाधि (होती है)।

द्वितीयः साधना पादः

2.1        तपःस्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि तप, स्वाध्याय और ईश्वरप्रणिधान(शरणागति) अर्थात् ये तीनों, क्रियायोगः क्रियायोग है।

2.2        समाधिभावनार्थः (यह क्रियायोग) समाधि की सिद्धि करने वाला, और, क्लेशतनूकरणार्थः क्लेशों को क्षीण करने वाला होता है।

2.3        अविद्यास्मितारागद्वेषाभिनिवेशाः अविद्या, अस्मिता(मैं हूँ की भावना), राग, द्वेश तथा अभिनिवेश, पञ्च क्लेशाः - ये पाँचों क्लेश हैं।

2.4        प्रसुप्ततनुविच्छिन्नोदाराणाम् जो प्रसुप्त, तनु, विच्छिन्न और उदार ( इन चार अवस्थाओं) में रहने वाले हैं एवं, उत्तरेषाम् जिनका वर्णन (तीसरे सूत्र में) अविद्या के बाद किया गया है, उन(चारों क्लेशों) का, क्षेत्रम् क्षेत्र या कारण, अविद्या अविद्या है।

2.5        अनित्याशुचिदुःखानामत्मसु अनित्य, अशुचि(अपवित्र), दुःख एवं अनात्म (पदार्थों) में नित्यशुचिसुखात्माख्यातिः नित्य, शुचि(पवित्र), सुख तथा आत्मभाव की अनुभूति, अविद्या - अविद्या है।

2.6        दृग्दर्शनशक्त्योः दृक् शक्ति एवं दर्शन शक्ति इन दोनों की, एकात्मता इव एकरूप सा हो जाना, अस्मिता अस्मिता(मैं हूँ की भावना) है।

2.7        सुखानुशयी सुख की प्रतीति या भावना को ही प्राप्त करने का भाव, रागः राग है।

2.8        दुःखानुशयी दुःख के न होने की भावना, द्वेषः द्वेष है।

2.9        स्वरसवाही जो परम्परा से चला आ रहा है, विदुषः अपि तथारूढा विद्वान या विवेकयुक्त में भी विद्यमान देखा जाता है, वह (मृत्युभय), अभिनिवेशः अभिनिवेश है।

2.10    ते वे, सूक्ष्माः सूक्ष्म अवस्था वाले, तथा प्रतिप्रसवहेयाः चित्त को अपने कारण में लीन करने वाले होने से हेय हैं।

2.11    तद् वृत्तयः उन क्लेशों की वृत्तियाँ, ध्यानहेयाः ध्यान के द्वारा हेय (हटाने योग्य/नाश करने योग्य) हैं।

2.12    क्लेशमूलः क्लेश के मूल, कर्माशयः कर्मसंस्कार (राशि/समूह), दृष्टादृष्टजन्मवेदनीयः दृष्ट (वर्तमान) और अदृष्ट(भविष्य) दोनों प्रकार के जन्मों में वेदनीय (भोगेजाने वाले) हैं।

2.13    सतिमूले मूल के विद्यमान रहते हुये, तद्विपाकः उन कर्मसमूहों के परिणाम स्वरूप, जात्यायुर्भोगाः जाति, आयु तथा भोग आदि होते हैं।

2.14    ते वे, ह्लादपरितापफलाः हर्ष, प्रसन्नता एवं अप्रसन्नता, शोक देने वाले होते हैं, पुण्यापुण्यहेतुत्वात् क्योंकि उनके कारण पुण्यकर्म तथा अपुण्य(पाप कर्म) दोनों होते हैं।

2.15    परिणामतापसंस्कारदुःखैः परिणाम दुःख, ताप दुःख तथा संस्कार दुःख इन तीन दुःखों के द्वारा, और, गुणवृत्तिविरोधात् तीनों गुणों की वृत्तियों में परस्पर विरोध होने के कारण, विवेकिनः विवेकी  व्यक्ति के लिये, सर्वम् सभी कुछ, दुःखम् एव दुःख स्वरूप ही है।

2.16    अनागतम् जो आया नहीं है, या आने वाला है वह, दुःखम् दुःख, हेयम् हेय (त्यागने योग्य) है।

2.17    द्रष्टृदृश्ययोः द्रष्टा और दृश्य का, संयोगः संयोग, हेयहेतुः हेय का कारण है।

2.18    प्रकाशक्रियास्थितिशीलम् प्रकाश, क्रिया और स्थिति जिसका शील या स्वभाव है, भूतेन्द्रियात्मकम् भूत और इन्द्रियाँ जिसका (प्रकट) स्वरूप हैं, भोगापवर्गार्थम् भोग एवं अपवर्ग(मोक्ष) का जिसका प्रयोजन है, ऐसा, दृश्यम् दृश्य है।

2.19    विशेषाविशेषलिङ्गमात्रालिङ्गानि विशेष(16), अविशेष(पंचतन्मात्रायें एवं अहंकार-6), लिङ्गमात्र(महततत्त्व) और अलिङग(मूलप्रकृति) ये चार, गुणपर्वाणि उक्त गुणों के भेद या अवस्थायें हैं।(चारों मिलाकर कुल 24 तत्त्व)

2.20    दृशिमात्रः चेतनमात्र (ज्ञानस्वरूप आत्मा), द्रष्टा दृष्टा, शुद्धाः अपि स्वभाव से शुद्ध होने पर भी, प्रत्ययानुपश्यः (महत्तत्त्व या बुद्धि के सम्बन्ध से) बुद्धि की वृत्ति के अनुरूप देखने वाला होता है।

2.21    दृश्यस्य दृश्य का, आत्म आत्मा स्वरूप, तदर्थः एव उस दृष्टा के लिये ही होता है।

2.22    कृतार्थम् प्रति जिसका भोग और अपवर्गरूप कार्य पूर्ण हो गया है, उस पुरुष के लिये, नष्टम् -  नाश को प्राप्त हुयी, अपि भी, (वह प्रकृति), अनष्टम् नष्ट नहीं होती, तत् अन्यसाधारणत्वात् क्योंकि दूसरों के लिये भी वह समान है।

2.23    स्वस्वामिशक्त्योः स्वशक्ति(प्रकृति) और स्वामिशक्ति(पुरुष) इन दोनों के स्वरूपोलपब्धिहेतुः स्वरूप की प्राप्ति का जो कारण है, वह, संयोगः संयोग कहा गया है।

2.24    तस्य उस संयोग का, हेतुः - हेतु या कारण, अविद्या अविद्या है।

2.25    तद् अभावात् उस (अविद्या) के अभाव से, संयोगाभावः संयोग का अभाव होता है, यही हानम् (पुनर्जन्मादि भावी दुःखों का) हान अर्थात् नाश है, तत् वही, दृशेः चेतन आत्मा का, कैवल्यम् कैवल्य है।

2.26    अविप्लवा अविद्रोही, निश्चल , विवेकख्यातिः विवेकज्ञान, हानोपायः उक्त हान का उपाय है।

2.27    तस्य उस (विवेकज्ञानप्राप्त) पुरुष की, प्रज्ञा प्रज्ञा बुद्धि, सप्तधा सात प्रकार की, प्रान्तभूमिः स्थितियों, भूमियों (जिनमें चित्त रहता है) वाली होती है।(चार कार्यविमुक्तप्रज्ञा - 1.ज्ञेयशून्य अवस्था, 2.हेयशून्य अवस्था, 3.प्राप्यप्राप्त अवस्था, 4.चिकीर्षाशून्य अवस्था, तीन चित्तविमुक्तिप्रज्ञा 5.चित्त की कृतार्थता, 6. गुणलीनता, 7. आत्मस्थिति)

2.28    योगाङ्गानुष्ठानात् योग के अङ्गों का अनुष्ठान से, अशुद्धिक्षये अशुद्धि का नाश होने पर, ज्ञानदीप्तिः ज्ञान का प्रकाश, आ विवेकख्याते विवेकख्याति पर्यन्त हो जाता है।

2.29    यमनियमासनप्राणायामप्रत्याहारधारणाध्यानसमाधयोः यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि, अष्टौ ये आठ, अङ्गानि (योग के) अंग हैं।

2.30    अहिंसासत्यास्तेयब्रह्मचर्यापरिग्रहाः अहिंसा, सत्य, अस्तेय(अचौर्य या चोरी का अभाव), ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह(संग्रह का अभाव), यमाः ये पाँच यम हैं।

2.31    जातिदेशकालसमयानवच्छिन्नाः (उपरोक्त यम) जाति, देश, काल और समय की सीमा से रहित, सार्वभौमा सार्वभौम होने पर, महाव्रतम् महाव्रत (के स्वरूप वाले) हैं।

2.32    शौचसंतोषतपःस्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय और ईश्वरप्रणिधान, नियमाः (ये पाँच) नियम हैं।

2.33    वितर्कबाधने वितर्कों को हटाने में, तथा समाधि के प्रतिपक्षी भाव को हटाने में (यम नियम ) हैं।

2.34    हिंसादयः (यम एवं नियमों के विरोधी) हिंसा आदि भाव, वितर्काः वितर्क हैं, वे तीन प्रकार के होते हैं कृतकारितानुमोदिता कृत(स्वयं किये हुये), कारिता(दूसरों से करवाये हुये), अनुमोदित(दूसरों से अनुमोदित या स्वीकृत) जो कि, लोभक्रोधमोहपूर्वकाः लोभ, क्रोध एवं मोह के कारण होते हैं, मृदुमध्याधिमात्राः इनमें भी कोई छोटा, मध्यम, बड़ा होता है, दुःखज्ञानानन्तफलाः ये दुःख और अज्ञानरूप अनन्त फल देने वाले होते हैं, इति इस प्रकार (विचार या भावना करना ही), प्रतिपक्षभावनम् प्रतिपक्ष की भावना है।

2.35    अहिंसाप्रतिष्ठायाम् अहिंसा की स्थिति दृढ़ होने पर, तत् उसके, सन्निधौ सान्निध्य में, वैरत्यागः (सभी प्राणी) वैर का त्याग कर देते हैं।

2.36    सत्यप्रतिष्ठायाम् - सत्य की स्थिति दृढ़ होने पर, (योगी में), क्रियाफलाश्रयत्वम् क्रियाफल के आश्रय का भाव आ जाता है।

2.37    अस्तेयप्रतिष्ठायाम् - अस्तेय की स्थिति दृढ़ होने पर योगी में, सर्वरत्नोपस्थानम् सब प्रकार के रत्न प्रकट हो जाते हैं।

2.38    ब्रह्मचर्यप्रतिष्ठायाम् - ब्रह्मचर्य की स्थिति दृढ़ होने पर, वीर्यलाभः सामर्थ्य का लाभ होता है।

2.39    अपरिग्रहस्थैर्ये अपरिग्रह की स्थित में स्थिरता आने पर, जन्मकथान्तासंबोधः पूर्वजन्मादि की कथाओं(बातों / रहस्यों) ज्ञान हो जाता है।

2.40    शौचात् शौच के पालन से, स्वाङ्गजुगुप्सा अपने अङ्गों से वैराग्य और, परैः असंसर्गः दूसरे से संसर्ग न करने भावना या इच्छा (उत्पन्न होती है)।

2.41    इसके अतिरिक्त, सत्त्वशुद्धि सौमनस्यैकाग्रयेन्द्रियजयात्मदर्शनयोग्यतत्वानि सत्व की शुद्धि, मन में प्रसन्नता, चित्त की एकाग्रता, इन्द्रिय जय और आत्मसाक्षात्कार की योग्यता ये पाँच भी होते हैं।

2.42    सन्तोषात् सन्तोष से, अनुत्तम जिनसे बढ़कर कोई अन्य उत्तम न हो ऐसा, सुखलाभः सुखलाभ होता है।

2.43    तपसः तप से, अशुद्धिक्षयात् अशुद्धि के क्षय से, कायेन्द्रियसिद्धिः शरीर और इन्द्रियों की सिद्धि हो जाती है।

2.44    स्वाध्यायात् - स्वाध्याय से, इष्टदेवतासम्प्रयोगः इष्टदेवता की भलि-भाँति प्राप्ति या साक्षात्कार होता है।

2.45    ईश्वरप्रणिधानात् ईश्वर प्रणिधान से, समाधिसिद्धिः समाधि की सिद्धि हो जाती है।

2.46    स्थिरसुखम् स्थिर पूर्वक तथा सुखयुक्त (बैठने की स्थिति) आसनम् आसन है।

2.47    प्रयत्नशैथिल्यानन्तसमापत्तिभ्याम् उक्त आसन प्रयत्न की शिथिलिता से तथा अनन्त में मन लगाने सिद्ध होता है।

2.48    ततः तब (आसन के सिद्ध होने पर), द्वन्द्वानभिघातः द्वन्द्व (शीतोष्ण आदि का) आघात नहीं लगता है।

2.49    तस्मिन् सति उस आसन की सिद्धि होने के बाद, श्वासप्रश्वासयोः श्वास एवं प्रश्वास की, गतिविच्छेदः गति का रूक जाना, प्राणायामः प्राणायाम है।

2.50    बाह्याभ्यन्तरस्तम्भवृत्तिः (ये प्राणायाम) बाह्यवृत्ति, आभ्यन्तरवृत्ति और स्तम्भवृत्ति (ऐसे तीन प्रकार का होता) है तथा यह, देशकालसङ्ख्याभिः देश, काल और संख्या के द्वारा, परिदृष्टाः भलिभाँति देखा हुया, दीर्घसूक्ष्मः लम्बा और हल्का होता है।

2.51    बाह्याभ्यान्तरविषयाक्षेपी बाह्य और आन्तर के विषय का त्याग कर देने से आपने आप होने वाला चतुर्थः चौथा प्राणायाम है।

2.52    ततः उस (प्राणायाम के अभ्यास करने से), प्रकाशावरणम् प्रकाश (ज्ञान) का आवरण, क्षीयते क्षीण हो जाता है।

2.53    तथा, धारणासु धारणाओं में , मनसः मन की, योग्यता योग्यता भी हो जाती है।

2.54    स्वविषयासम्प्रयोगे अपने विषयों के सम्बन्ध से रहित होने पर, इन्द्रियाणाम् इन्द्रियों का, चित्तस्वरूपानुकारः इव जो चित्त के स्वरूप के समान तदाकारता है, वह, प्रत्याहारः प्रत्याहार है।

2.55    ततः उस (प्रत्याहार) से, इन्द्रियाणाम् इन्द्रियों की, परमा परम, वश्यता वश्यता हो जाती है।

तृतीयः पादः - विभूतिपादः

3.1        चित्तस्य देशबन्धः चित्त का किसी भी देश(स्थान)(बाह्य या शरीर के भीतर कहीं भी) में ठहरना, धारणा - धारणा है।

3.2        तत्र वहाँ(जहाँ धारणा में चित्त को ठहराया गया है) प्रत्यैकतानता उसीके प्रति एकतानता, ध्यानम् ध्यान है।

3.3        अर्थमात्रनिर्भासम् (ध्यान में) जब केवल ध्येय मात्र की प्रतीति रहे और स्वरूपशून्यमिव चित्त का निज स्वरूप शून्य हो जाये, तब, तदेव वह ही, समाधिः समाधि है।

3.4        एकत्र किसी भी ध्येय विषय में, त्रयम् तीनों का होना, संयमः संयम है।

3.5        तत् उसको, जयात् जीत लेने पर, प्रज्ञालोकः बुद्धि का प्रकाश होता है।

3.6        तस्य उस (संयम) का (क्रम से), भूमिषु भूमियों में, विनियोगः विनियोग (करना चाहिये)।

3.7        पूर्वेभ्यः पहले कहे हुये की अपेक्षा, त्रयम् ये तीनों (धारणा, ध्यान, समाधि) अन्तरङ्ग हैं।

3.8        तदपि (किन्तु) वे भी निर्बीजस्य निर्बीज समाधि के, बहिरङ्गम् बहिरंग (साधन) हैं।

3.9        व्युत्थाननिरोधसंस्कारयो अभिभवप्रादुर्भावौ व्युत्थान अवस्था के संस्कारों का दबजाना तथा निरोध अवस्था के संस्कारों का उत्थान या प्रकट होना ये, निरोधक्षणचित्तान्वयः निरोधकाल में चित्त का निरोध संस्कारानुगत् होना,  निरोधपरिणामः निरोधपरिणाम हैं।

3.10    संस्कारात् संस्कारबल से, तस्य उस (चित्त) की, प्रशान्तवाहिता प्रशान्त वाही स्थिति होती है।

3.11    सर्वार्थतैकाग्रतयोः क्षयोदयौ सभी प्रकार के विषयों के चिन्तन करने की वृत्ति का क्षय तथा एक ही के प्रति चिन्तन की वृत्ति या एकाग्रता अवस्था का उदय होना, यह चित्तस्य चित्त की, समाधिपरिणामः समाधि अवस्था का परिणाम है।

3.12    ततः उसके बाद, पुनः फिर से जब, शान्तोदितौ शान्त होने वाली और उदय होने वाली, तुल्यप्रत्ययौ दोनों ही वृत्तियाँ एक सी हो जाती हैं, तब वह, चित्तस्य चित्त का, एकाग्रतापरिणामः एकाग्रता परिणाम होता है।

3.13    एतेन उक्त वर्णित एकाग्रता अवस्था के द्वारा, भूतेन्द्रियेषु पाँचों भूतों में और सब इन्द्रियों में होने वाले, धर्मलक्षणावस्थापरिणामः -  धर्मपरिणाम, लक्षण-परिणाम और अवस्था परिणाम, व्याख्याताः - कहे जा चुके हैं।

3.14    शान्तोदिताव्यपदेश्यधर्मानुपाती अतीत, वर्तमान और आने वाले धर्मों में जो अनुगत (व्याप्त) रहता है, वह, धर्मी धर्मी है।

3.15    परिणामान्यत्वे परिणाम की भिन्नता में, क्रमान्यत्वम् क्रम की भिन्नता, हेतुः - कारण है

3.16    परिणामत्रयसंयमात् उक्त तीनों प्रकार के परिणामों में संयम करने से, अतीतानगतम् अतीत (भूत) और अनागत(भविष्य) का ज्ञान हो जाता है।

3.17    शब्दार्थप्रत्ययानाम् शब्द, अर्थ और ज्ञान इन तीनों का, इतरेतराध्यासात् जो एक में दूसरे का अध्यास हो जाने के कारण, संकर मिश्रित होता है, तत्प्रविभागासंयमात् उसके विभाग में संयम करने से, सर्वभूतरुतज्ञानम् सम्पूर्ण प्राणियों की वाणी का ज्ञान हो जाता है।

3.18    संस्कारसाक्षात्कारणात् (संयम के द्वारा)  संस्कारों का साक्षात्कार करलेने से, पूर्वजातिज्ञानम् पूर्वजन्म का ज्ञान हो जाता है।

3.19    प्रत्यस्य दूसरे के चित्त का (संयम के द्वारा साक्षात्कार करलेने से), परचित्तज्ञानम् दूसरे के चित्त का ज्ञान हो जाता है।

3.20    परन्तु, तत् वह (ज्ञान), सालम्बनम् आलम्बन सहित नहीं होता है, तस्य अविषयीभूतत्वात् क्योंकि वैसा चित्त योगी के चित्त का विषय नहीं है।

3.21    कायरूपसंयमात् शरीर के रूप में संयम कर लेने से, तद्ग्राह्यशक्तिस्तम्भे जब वह ग्राह्य शक्ति रोक ली गयी हो तब, चक्षुप्रकाशसम्प्रयोगे चक्षु के प्रकाश का उसके साथ सम्बन्ध न होने के कारण, अन्तर्धानम् योगी अन्तर्धान हो जाता है।

3.22    सोपक्रमम् उपक्रम सहित, एवं, निरुपक्रमम् उपक्रम से रहित, ऐसे दो प्रकार के, कर्म - कर्म होते हैं, तत्संयमात् उनका संयम कर लेने से (योगी को), अपरान्तज्ञानम् मृत्यु का ज्ञान हो जाता है, अथवा, अरिष्टेभ्यः अरिष्टों से भी (आगामी कष्टों विपदाओं का भी ज्ञान हो जाता है)।

3.23    मैत्री-आदिषु मैत्री आदि की भावनाओं में संयम करने से, बलानि बल मिलते हैं।

3.24    बलेषु बलों में भी(संयम करने से), हस्तिबलादीनि हाथी आदि के बल के सदृश (संयम के अनुसार भिन्न-भिन्न प्रकार के) बल प्राप्त होते हैं।

3.25    प्रवृत्त्यालोकन्यासात् ज्योतिष्मती प्रवृत्ति का प्रकाश डालने से  सूक्ष्मव्यवहितविप्रकृष्टज्ञानम् सूक्ष्म व्यवधानयुक्त और दूर देश में स्थित वस्तुओं का ज्ञान हो जाता है।

3.26    सूर्ये सूर्य में, संयमात् संयम करने से, भुवनज्ञानं समस्त लोकों का ज्ञान हो जाता है।

3.27    चन्द्रे चन्द्रमा में संयम करने से, ताराव्यूहज्ञानम् सभी तारों के व्यूह का ज्ञान हो जाता है।

3.28    ध्रुवे ध्रुव तारे में (संयम करने से), तद्गतिज्ञानम् उन ताराओं की गति का ज्ञान हो जाता है।

3.29    नाभिचक्रे नाभिचक्र में संयम करने से, कायव्यूहज्ञानम् काया या शरीर के व्यूह या स्थितियों का ज्ञान हो जाता है।

3.30    कण्ठकूपे कण्ठकूप में संयम करने से, क्षुत्पिपासनिवृत्तिः भूख एवं प्यास की निवृत्ति हो जाती है।

3.31    कूर्मनाड्याम् कूर्माकार नाड़ी में संयम करने से, स्थैर्यम् स्थिरता होती है।

3.32    मूर्धज्योतिष मूर्धा की ज्योति में संयम करने से, सिद्धदर्शनम् सिद्ध पुरुषों के दर्शन होते हैं।

3.33    वा अथवा, प्रातिभात् प्रातिभ ज्ञान उत्पन्न होने से (बिना किसी संयम के ही), सर्वम् (पहले कहे गये) समस्त (सिद्धविषय) योगी को ज्ञात हो जाते हैं।

3.34    हृदये हृदय में संयम करने से, चित्तसंवित् चित्त के स्वरूप का ज्ञान हो जाता है।

3.35    सत्त्वपुरुषयोः अत्यन्तासंकीर्णयोः सत्व (बुद्धि) और पुरुष जो कि दोनों परस्पर अत्यन्त भिन्न हैं-इन दोनों की, प्रत्ययाविशेषः जो प्रतीति का अभेद है, वही  भोगः भोग है, परार्थात् स्वार्थसंयमात् परार्थप्रतीति से भिन्न जो स्वार्थप्रतीति है उसमें संयम करने से, पुरुषज्ञानम् पुरुष का ज्ञान होता है।

3.36    ततः उस (स्वार्थसंयम) से, प्रातिभश्रावणवेदनादर्शास्वादवार्ता प्रातिभ, श्रावण, वेदन, आदर्श, अस्वाद और वार्ता ये (छः सिद्धियाँ), जायन्ते प्रकट होते हैं।

3.37    ते वे (उक्त छः प्रकार की सिद्धियाँ), समाधौ समाधि की सिद्धि में, उपसर्गाः विघ्न हैं एवं, व्युत्थाने व्युत्थान में, सिद्धयः सिद्धियाँ हैं।

3.38    बन्धकारणशैथिल्यात् बन्धन के कारण (कर्म) की शिथिलता से, और, प्रचारसंवेदनात् चित्त की गति का भलि-भाँति ज्ञान हो जाने से , चित्तस्य चित्त का, परशरीरावेशः दूसरे के शरीर में प्रवेश किया जा सकता है।

3.39    उदानजयात् उदान वायु के जीत लेने से, जलपङ्ककण्टकादिषु जल, पंक (कीचड़), काँटे आदि में, असङ्ग शरीर का संग नहीं होता, साथ ही,  उत्क्रान्तिः ऊर्ध्वगति होती है।

3.40    समानजयात् संयम के द्वारा समान वायु के जीत लेने पर, ज्वलनम् योगी का शरीर दीप्तिमान हो जाता है।

3.41    श्रोत्राकाशयोः श्रोत्र (कान) एवं आकाश के, संबन्धसंयमात् सम्बन्ध में संयम कर लेने से, श्रोत्रम् श्रोत्र, दिव्यम् दिव्य हो जाते हैं।

3.42    कायाकाशयोः शरीर और आकाश के, संबन्धसंयमात् सम्बन्ध में संयम करने से , और, लघुतूलसमापत्तेः हल्की वस्तु में संयम करने से, आकाशगमनम् आकाश गमन की शक्ति प्राप्ति होती है।

3.43    बहिः आकल्पिता शरीर के बाहर अकल्पित, वृत्तिः स्थिति का नाम, महाविदेहा महाविदेहा है, ततः उससे, प्रकाशावरणक्षयः बुद्धि की ज्ञानशक्ति के आवरण का क्षय हो जाता है।

3.44    स्थूलस्वरूपसूक्ष्मान्वयार्थवत्त्वसंयमात् (भूतों की) स्थूल (पंचमहा भूत), स्वरूप, सूक्ष्म (कारण अवस्था), अन्वय (प्रकाश, क्रिया, स्थिति) और अर्थवत्त्व (भोग एवं अपवर्ग) इन पाँचों प्रकार की अवस्थाओं में संयम करने से योगी को, भूतजयः पंचभूतों पर विजय प्राप्त होती है।

3.45    ततः उस भूत जय से, अणिमादिप्रादुर्भावः अणिमादि आठसिद्धियों (1.अणिमा, 2.लघिमा, 3.महिमा, 4.गरिमा, 5.प्राप्ति, 6.प्राकाम्य, 7.वशित्व, 8.ईशित्व)  का प्रादुर्भाव होता है, कायसंपत् काय सम्पत् की प्राप्ति, और, तद्धर्मानभिघातश्च उन भूतों के धर्मों से बाधा का न होना आदि होते हैं।

3.46    रूपलावण्यबलवज्रसंहननत्वानि रूप, लावण्य, बल और वज्र के समान संगठन ये,  कायसम्पत् शरीर की सम्पदायें हैं।

3.47    ग्रहणस्वरूपास्मितान्वयार्थवत्त्वसंयमात् ग्रहण, स्वरूप, अस्मिता, अन्वय और अर्थवत्त्व इन पाँचों अवस्थाओं में संयम करने से, इन्द्रियजयः समस्त इन्द्रियों पर मन सहित विजय प्राप्त होती है।

3.48    ततः उस इन्द्रियजय से, मनोजवित्वम् मन के सदृश गति, विकरणभावः शरीर के बिना भी विषयों का अनुभव करने की शक्ति, एवं, प्रधानजयः प्रकृति पर अधिकार ये तीनों सिद्धियाँ मिलती हैं।

3.49    सत्त्वपुरुषान्यताख्यातिमात्रस्य बुद्धि और पुरुष इन दोनों की भिन्नता मात्र का ही ज्ञान जिसमें रहता है, ऐसी सबीज समाधि को प्राप्त योगी का, सर्वभावाधिष्ठातृत्वम् सभी प्रकार के भावों पर स्वामिभाव, और, सर्वज्ञातृत्वम् सर्वज्ञभाव हो जाता है।

3.50    तद्वैराग्यादपि उन (उपर्युक्त सिद्ध) में भी वैराग्य होने से, दोषबीजक्षये दोष के बीज का नाश होने पर, कैवल्यम् कैवल्य की प्राप्ति होती है।

3.51    स्थान्युपनिमन्त्रणे लोकपाल देवताओं के बुलाने पर, सङ्गस्मयाकरणम् न तो (उनके भोगों में) संग (राग) करना चाहिये और न अभिमान करना चाहिये, क्योंकि ऐसा करने पर, पुनरनिष्टप्रसङ्गात् पुनः अनिष्ट का प्रसंग हो सकता है।

3.52    क्षणतत्क्रमयोः क्षण और उसके क्रम में, संयमात् संयम करने से, विवेकजम् विवेकजनित, ज्ञानम् ज्ञान उत्पन्न होता है।

3.53    जातिलक्षणतेशैः (जिन वस्तुओं का) जाति, लक्षण और देशभेद से, अन्यतानवच्छेदात् भेद नहीं किया जा सकता, इस कारण, तुल्ययोः जो दो वस्तु तुल्य प्रतीत होती हैं, उनके भेद की, प्रतिपत्तिः उपलब्धिः, ततः - उस (विवेक ज्ञान) से होती है।

3.54    तारकम् जो संसार समुद्र से तारने वाला है, सर्वविषयम् सबको जानने वाला है,  सर्वथाविषयम् सब प्रकार से जानने वाला है, एवं, अक्रमम् बिना क्रम के,  वह, विवेकजम् विवेकजनित, ज्ञानम् ज्ञान है।

3.55    सत्त्वपुरुषयोः बुद्धि और पुरुष इन दोनों की, शुध्दिसाम्ये जब समान भाव से शुद्धि हो जाती है, वह, कैवल्यमिति कैवल्यावस्था है।

चतुर्थः पादः कैवल्यपादः

4.1        जन्मौषधिमन्त्रतपः समाधिजाः जन्म से होने वाली, औषधि से होने वाली, मन्त्र से होने वाली, तप से होने वाली और समाधि से होने वाली ऐसी पाँच प्रकार की,  सिध्दयः सिद्धियाँ होती हैं।

4.2        जात्यन्तरपरिणामः एक जाति से दूसरे जाति में बदल जाना रूप जात्यान्तरपरिणाम, प्रकृत्यापूरात् प्रकृति के पूर्ण होने से होता है।

4.3        निमित्तम् निमित्त, प्रकृतीनाम् प्रकृतियों को, अप्रयोजकम् चलाने वाला नहीं है, ततः उससे, तु तो, क्षेत्रिकवत् किसान की भाँति, वरणभेदः रुकावट का छेदन किया जाता है।

4.4        निर्माणचित्तानि निर्मित चित्त, अस्मितामात्रात् केवल अस्मिता मात्र से होते हैं।

4.5        अनेकेषाम् अनेक चित्तों को, प्रवृत्तिभेदे नाना प्रकार की प्रवृत्तियों में , प्रयोजकम् नियुक्त करने वाला, एकम् एक, चित्तम् चित्त होता है।

4.6        तत्र उनमें से, ध्यानजम् जो ध्यान जनित चित्त होता है, वह, अनाशयम् कर्म संस्कारों से रहित होता है।

4.7        योगिनः योगियों के, कर्म कर्म, अशुक्लाकृष्णम् अशुक्ल और अकृष्ण होते हैं, तथा, इतरेषाम् अन्यों के, त्रिविधिम् तीन प्रकार के होते हैं।

4.8        ततः उन तीन प्रकार के कर्मों से, तद्विपाकानुगुणानाम् उनके फलभोगानुकूल, वासनानाम् वासनाओं की, एव ही, अभिव्यक्तिः अभिव्यक्ति होती है।

4.9        जातिदेशकालव्यवहितानाम् जाति, देश और काल इन तीनों का व्यवधान रहने पर, अपि भी, आनन्तर्यम् कर्म के संस्कारों में व्यवधान नहीं होता है,  स्मृतिसंस्कारयोः क्योंकि स्मृति और संस्कार दोनों का, एकरूपत्वात् एक ही स्वरूप है।

4.10    तासाम् उस वासनाओं की, अनादित्वम् अनादिता है, आशिषः नित्यत्वात् क्योंकि प्राणियों में (अपने) बने रहने की इच्छा अनादि काल से, च ही है।

4.11    हेतुफलाश्रयालम्बनैः हेतु, फल, आश्रय और आलम्बन इनसे, संगृहीतत्वात् वासनाओं का संग्रह होता है, इसलिये, एषाम् इन (चारों का), अभावे अभाव होने से, तदभावः उन वासनाओं का भी सर्वथा अभाव हो जाता है।

4.12    धर्माणाम् धर्मों में, अध्वभेदात् काल का भेद होता है, इस कारण, अतीतानागतम् जो धर्म (अविद्या, वासना, चित्त और चित्त की वृत्तियाँ आदि) अतीत हो गये हैं और जो अनागत् हैं अर्थात् अभी प्रकट नहीं हुये हैं, वे भी,  स्वरूपतः अस्ति स्वरूप से विद्यमान रहते हैं।

4.13    ते वे (समस्त धर्म), व्यक्तसूक्ष्माः व्यक्त स्थिति में और सूक्ष्म स्थिति में सदैव, गुणात्मनः गुणस्वरूप ही हैं।

4.14    परिणामैकत्वात् परिणाम की एकता से, वस्तुतत्त्वम् वस्तु का वैसा होना सम्भव है।

4.15    वस्तुसाम्ये वस्तु की एकता में, चित्तभेदात् - चित्त का भेद प्रत्यक्ष है, इसीलिये, तयोः उनका, पन्थाः मार्ग, विभक्तः अलग हैं।

4.16    इसके सिवा, वस्तु दृश्य वस्तु, एकचित्ततन्त्रम् किसी एक चित्त के अधीन नहीं है (क्योंकि), तदप्रमाणकम् जब वह चित्त का विषय नहीं रहेगी, तदा उस समय, किं स्यात् वस्तु का क्या होगा ?

4.17    चित्तस्य चित्त, तदुपरागापेक्षित्वात् वस्तु के उपराग (अपने में उसका प्रतिबिम्ब पड़ने) की अपेक्षा वाला है, इसी कारण (उसके द्वारा), वस्तु वस्तु,  ज्ञाताज्ञातम् कभी ज्ञात कभी अज्ञात होती है यह सर्वथा उचित है।

4.18    तत्प्रभोः उस चित्त का स्वामि, पुरुषस्य पुरुष, अपरिणामित्वात् परिणामी नहीं है, इसलिये, चित्तवृत्तयः चित्त की वृत्तियाँ (उसे), सदा ज्ञाताः सदा ज्ञात रहती हैं।

4.19    तत् वह (चित्त), स्वाभासम् स्वप्रकाश (प्रकाशस्वरूप), नहीं हैं, दृश्यत्वात् क्योंकि वह दृश्य है।

4.20    तथा, एकसमये एक समय में, उभयानवधारणम् चित्त और उसका विषय दोनों के स्वरूप को जानना भी नहीं हो सकता है।

4.21    चित्तान्तरदृश्ये एक चित्त को दूसरे चित्त का दृश्य मान लेने पर, बुध्दिः बुध्देः अतिप्रसङ्गः वह चित्त पुनः दूसरे चित्त का दृश्य होगा (इस प्रकार अनावस्था होगी), एवं, स्मृतिसंकरः स्मृति का भी मिश्रण हो जायेगा।

4.22    चितेः अप्रतिसंक्रमायाः यद्यपि चेतन शक्ति (पुरुष) क्रिया से रहित और असङ्ग है तो भी, तदाकारापत्तौ तदाकार हो जाने पर, स्वबुद्धिसंवेदनम् उसे उपनी बुद्धि का (चित्त का) ज्ञान होता है।

4.23    द्रष्टृदृश्योपरक्तम् दृष्टा और दृश्य इन दोनों से रंजित, चित्तम् चित्त, सर्वार्थम् सब अर्थ वाला होता है।

4.24    तत् वह, असंख्येयवासनाभिः असंख्येय वासनाओं से, चित्रम् अपि चित्रित होने पर भी, परार्थम् दूसरे के लिये है, संहत्यकारित्वात् क्योंकि यह संहत्यकारी (मिलजुल कर कार्यकरने वाला होता है।)

4.25    विशेषदर्शिनः (समाधिजनित विवेक ज्ञान के द्वारा) चित्त और आत्मा के भेद को प्रत्यक्ष कर लेने वाले योगी की, आत्मभावभावनानिवृत्तिः आत्म भाव विषयक भावना सर्वथा निवृत्त हो जाती है।

4.26    तदा उस समय योगी का, चित्तम् चित्त, विवेकनिम्नम् विवेक में झुका हुआ, कैवल्यप्राग्भारम् कैवल्य के अभिमुख हो जाता है।

4.27    तच्छिद्रेषु उस समाधि के अन्तराल में, प्रत्ययान्तराणि दूसरे पदार्थों का ज्ञान,  संस्कारेभ्यः पूर्वसंस्कारों से होता है।

4.28    एषाम् इन संस्कारों का, हानम् विनाश, क्लेशवत् क्लेशों की भाँति, उक्तम् कहा गया है।

4.29    प्रसंख्याने अपि कुसीदस्य जिस योगी का विवेक ज्ञान की महिमा में भी वैराग्य हो जाता है, उसका, सर्वथा विवेकख्यातेः विवेकज्ञान सर्वथा प्रकाशमान रहने के कारण उसको, धर्ममेघः समाधिः धर्ममेधः समाधि प्राप्ति हो जाती है।

4.30    ततः उस (धर्ममेध समाधि) से, क्लेशकर्मनिवृत्तिः क्लेश और कर्मो का सर्वथा नाश हो जाता है।

4.31    तदा उस समय, सर्वावरणमलापेतस्य ज्ञानस्य जिसके सब प्रकार के परदे और मल हट चुके हैं, ऐसा ज्ञान, आनन्त्यात् अनन्त सीमा रहित हो जाता है, इस कारण, ज्ञेयम् अल्पम् ज्ञेय पदार्थ अल्प हो जाते हैं।

4.32    ततः उसके बाद, कृतार्थानाम् अपने काम को पूरा कर चुकने वाले, गुणानाम् - गुणों के,  परिणामक्रमसमाप्तिः परिणाम क्रम समाप्ति हो जाते हैं।

4.33    क्षणप्रतियोगी जो क्षणों का प्रतियोगी है और, परिणामापरान्तनिर्ग्राह्यः जिसका स्वरूप परिणाम के अन्त में समझ में आता है, वह, क्रमः क्रम है।

4.34    पुरुषार्थशून्यानां जिनका पुरुष के लिये कोई कर्तव्य शेष नहीं रहा, ऐसे, गुणानाम् गुणों का, प्रतिप्रसवः अपने कारण में विलीन हो जाना, कैवल्यम् कैवल्य है, वा - अथवा, इति यों, चितिशक्तेः द्रष्टा का, स्वरूपप्रतिष्ठा अपने स्वरूप में प्रतिष्ठित हो जाना (कैवल्य) है।

इति पातञ्जलयोगसूत्रं सम्पूर्णम्

 

 

 

Authored & Developed By               Dr. Sushim Dubey

&दार्शनिक-साहित्यिक अनुसंधान                      ?  डॉ.सुशिम दुबे,                             G    Yoga

Dr. Sushim Dubey

® This study material is based on the courses  taught by Dr. Sushim Dubey to the Students of M.A. (Yoga) Rani Durgavati University, Jabalpur  and the Students of Diploma in Yoga Studies/Therapy of  Morarji Desai National Institute of Yoga, New Delhi, during 2005-2008 © All rights reserved.