तैत्तरीयोपनिषत्

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शिक्षाध्यायः प्रथमा वल्ली ब्रह्मानन्दवल्ली भृगुवल्ली चतुर्थोपदेशः 

तैत्तरीयोपनिषत्।।
शिक्षाध्यायः प्रथमा वल्ली

ॐ शं नो मित्रः शं वरुणः।। शं नो भवत्वर्यमा।। शं न इन्द्रो बृहस्पतिः ।। शं नो विष्णरुरुक्रमः।। नमो ब्रह्मणे।। नमस्ते वायो।। त्वमेव प्रत्यक्षं ब्रह्मासि।। त्वामेव प्रत्यक्षं ब्रह्म वदिष्यामि।।सत्यं वदिष्यामि।। तन्मामवतु।। तद्वक्तारमवतु।। अवतु माम्।। अवतु वक्तारम्।।
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः।।
ॐ शं नो मित्रः शं वरुणः।। शं नो भवत्वर्यमा।। शं न इन्द्रो बृहस्पतिः ।। शं नो विष्णरुरुक्रमः।। नमो ब्रह्मणे।। नमस्ते वायो।। त्वमेव प्रत्यक्षं ब्रह्मासि।। त्वामेव प्रत्यक्षं ब्रह्म वदिष्यामि।।सत्यं वदिष्यामि।। तन्मामवतु।। तद्वक्तारमवतु।। अवतु माम्।। अवतु वक्तारम्।।
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः।।1।। सत्यं वदिष्यामि पञ्च च।।1।।
इति प्रथमोऽनुवाकः।।1।।
ॐ शिक्षा व्याख्यास्यामः।। वर्णः स्वरः।। मात्रा बलम्।। साम संतानः।। इत्युक्तः शिक्षाध्यायः।।1।।(शिक्षां पञ्च)।।
इति द्वितीयोऽनुवाकः।।2।।
सह नौ यशः॥ सह नौ ब्रह्मवर्चसम्।। अथातः संहिताया उपनिषदं व्याख्यास्यामः ।। पञ्चस्वधिकरणेषु।। अधिलोकमधिज्यौतिषमधिविध्यमधिप्रजमध्यात्मम्।। ता महासंहिता इत्याचक्षते।। अथाधिलोकम्।। पृथिवीपूर्वरूपम्।। द्योरुत्तररूपम्।। आकाशः संधिः।।1।। वायुः संधानम्।। इत्यधिलोकम्.। अथ आधिज्यौतिषम्।। अग्निः पूर्वरूपम्।। आदित्य उत्तररूपम।। आपः संधि।। वैद्युतः संधानम्। इत्यधिज्यौतिषम्। अथाधिविद्यम्। आचार्यः पूर्वरूपम्।।2।। अन्तेवास्युत्तररूपम्।। विद्या संधिः प्रवचनं संधानम्।। इत्यधिविद्यम्।।
अथाधिप्रजम्.। माता पूर्वरूपम्।। पितोत्तररूपम्।। प्रजा संधिः प्रजननं संधानम्।। इत्यधिप्रजम्।।3।। अथाध्यात्मम्।। अधरा हुनः पूर्वरूपम्।। उत्तरा हनुरुत्तररूपम्।। वाक् संधिः।। जिह्वा संधानम्।। इत्यध्यात्मम्।। इतीमा महासंहिताः।। य एवमेता महासंहिताः व्याख्याता ।। य एवमेता महासंहिता व्याख्याता वेद।। संधीयते प्रजया पशुभिः।। ब्रह्मवर्चसेनान्नाद्येन सुवर्ग्येण लोकेन।।4।।(संधिराचार्यः पूर्वरूपमित्यधिप्रजं लोकेन)।। इति तृतीयोऽनुवाकः।।3।।
यश्छन्दसामृषभो विश्वरूपः॥ छन्दोभ्योऽध्यमृतात्संबभूव।। स मेन्द्रो मेधया स्पृणोतु।। अमृतस्य देवधारणो भूयासम्।। शरीरं मे विचर्षणम्।। जिह्वा मे मधुमत्तमा।। कर्णाभ्यां भूरि विश्रुवम्।। ब्रह्मणः कोशोऽसि मेधया पिहितः।। श्रुतं मे गोपाय।। आवहन्ती वितन्वाना।। कुर्वाणा चीरमात्मनः।। वासांसि मम गावश्च।। अन्नपाने च सर्वदा।। ततो मे श्रियमावह।। लोमशां पशुभिः सह स्वाहा।।1।। आमायन्तु ब्रह्मचारिणः स्वाहा।। विमायन्तु ब्रह्मचारिणः स्वाहा।। प्रमायन्तु ब्रह्मचारिणः स्वाहा।। दमायन्तु ब्रह्मचारिणः स्वाहा।। शमायन्तु ब्रह्मचारिणः स्वाहा।।2।। यशोजनेऽसानि स्वाहा।। श्रेयान् वस्यसोऽसानि स्वाहा।। तं त्वा भग प्रविशानि स्वाहा।। स मा भग प्रविश स्वाहा।। तस्मिन् सहस्रशाखे।। निभगाहं त्वयि मृजे स्वाहा।। यथापः प्रवता यन्ति।। यथा मासा अहर्जरम्।। एवं मां ब्रह्मचारिणः।। धातरायन्तु सर्वतः स्वाहा।। प्रति वेशोऽसि प्रमा पाहि प्र मा पद्यस्व।।3।। वितन्वाना शमायन्तु ब्रह्मचारिणः स्वाहा।।(धातरायन्तु सर्वतः सर्वाहैके च)॥ इति चतुर्थोऽनुवाकः।।
भूर्भुवः सुवरिति वा एतास्तिस्रो व्याहृतयः।। तासामुह स्मैतां चतुर्थीम्।। महाचमसस्यः प्रवेदयते।। मह इति।। तद्ब्रह्म।। सह आत्मा।। अङ्गान्यन्या देवताः।। भूरिति वा अयं लोकः।। भुव इत्यन्तिरिक्षम्।। सुवरित्यसौ लोकः।।1।। मह इत्यादित्यः॥ आदित्येन वाव सर्वे लोका महीयन्ते।। भूरिति वा अग्निः ।। भुव इति वायुः।। सुवरित्यादित्यः।। मह इति चन्द्रमाः।। चन्द्रमसा वाव सर्वाणि ज्योतींषि महीयन्ते।। भूरिति वा ऋचः।। भुव इति सामानि।। सुवरिति यजूंषि।।2।। मह इति ब्रह्म।। ब्रह्मणा वाव सर्वे वेदा महीयन्ते।। भूरिति वै प्राणः।। भुव इत्यपानः।। सुवरिति व्यानः।। मह इत्यन्नम्।। अन्नेन वाव सर्वे प्राणा महीयन्ते।। ता वा एताश्चतस्रश्चतुर्धा।। चतस्रश्चतस्रो व्याहृतयः।। ता यो वेद।। स वेद ब्रह्म।। सर्वेऽस्मै देवा बलिमावहन्ति।।3।।( असौ लोको यजूंषि वेद द्वे च)।। इति पञ्चमोऽनुवाकः।।
स य एषोऽन्तर्हृदय आकाशः।। तस्मिन्नयं पुरुषो मनोमयः।। अमृतो हिरण्मयः।। अन्तरेण तालुके।। य एष स्तन इवावलम्बते।। सेन्द्रयोनिः।। यत्रासौ केशान्तो विवर्तते।। व्यपोह्य शीर्षकपाले।। भूरित्यग्नौ प्रतितिष्ठति।। भुव इति वायौ।।1।। सुवरित्यादित्ये। मह इति ब्रह्मणि।। आप्नोति स्वाराज्यम्।। आप्नोति मनसस्पतिम्।। वाक्पतिश्चक्षुष्पतिः।। श्रोत्रपतिर्विज्ञानपतिः।। एतत्ततो भवति।। आकाशशरीरं ब्रह्म।। सत्यात्म प्राणारामं मन आनन्दम्।। शान्तिसमृद्धममृतम्।। इति प्राचीनयोग्योपास्व।।2।। (वायावमृतमेकं च) ।। इति षष्ठोऽनुवाकः।।6।।
पृथिव्यन्तरिक्षं द्यौर्दिशोऽवान्तरदिशः। अग्निर्वायुरादित्यश्चन्द्रमा नक्षत्राणि। आप ओषधयो वनस्पतय आकाश आत्मा। इत्याधिभूतम्। अथाद्यात्मम्। प्राणो व्यानोऽपान उदानः समानः। चश्रुः श्रोत्रं मनो वाक् त्वक्। चर्म माँसँस्नावास्थि मज्जा। एतदधिविधाय ऋषिरवोचत्। पाङ्क्तं वा इदँसर्वम्। पाङ्क्तेनैव पाङ्क्तँस्पृणोतीति।।1।।(सर्वमेकं च)।। इति सप्तमोऽनुवाकः।।7।।
आमिति ब्रह्म।। ओमितीदँसर्वम्।। ओमित्येतदनुकृतिर्हस्म वा अप्योश्रावयेत्याश्रावयन्ति।। ओमिति सामानि गायन्ति। ओँशोमिति शस्त्राणि शँसन्ति।।ओमित्यध्वर्युः प्रतिगरं प्रतिगृणाति। ओमिति ब्रह्मा प्रसौति।। ओमित्याग्निहोत्रमनुजानाति।। ओमिति ब्रह्मणः प्रवक्ष्यन्नाह ब्रह्मोपाप्नवानीति।। ब्रह्मैवोपाप्नोति।।1।। (ॐ दश) ।। इत्यष्टमोऽनुवाकः।।8।।
ऋतं च स्वाध्यायप्रवचने च।। सत्यं च स्वाध्यायप्रवचने च।। तपश्च स्वाध्यायप्रवचने च।। दमश्च स्वाध्यायप्रवचने च।। शमश्च स्वाध्यायप्रवचने च।। अग्नयश्च स्वाध्यायप्रवचने च।। अग्निहोत्रं च स्वाध्यायप्रवचने च।। अतिथयश्च स्वाध्यायप्रवचने च।। मानुषं च स्वाध्यायप्रवचने च।। प्रजा च स्वाध्यायप्रवचने च।। प्रजनश्च स्वाध्यायप्रवचने च।। प्रजातिश्च स्वाध्यायप्रवचने च।। सत्यमिति सत्यवचाराथीतरः।। तप इति तपोनित्यः पौरुशिष्टिः।। स्वाध्यायप्रवचने एवेति नाको मौद्गल्यः।। तद्धि तपस्तद्धि तपः।।6।।(प्रजा च स्वाध्यायप्रवचने च षट् च।।) इति नवमोऽनुवाकः।।9।।
अहं वृक्षस्य रेरिवा।। कीर्तिः पृष्ठं गिरेरिव।। ऊर्ध्वपवित्रो वाजिनीवस्वमृतमस्मि।। द्रविणं सवर्चसम्।। सुमेधा अमृतोक्षितः।। इति त्रिशङ्कोर्वेदानुवचनम्।।1।।(अहं षट्)।। इति दशमोऽनुवाकः।।
वेदमनुच्याचार्योऽन्तेवासिनमनुशास्ति।। सत्यं वद।। धर्मं चर।। स्वाध्यायान्मा प्रमदः।। आचार्याय प्रियं धनमाहृत्य प्रजातन्तुं मा व्यवच्छेत्सीः।। सत्यान्न प्रमदितव्यम्।। धर्मान्न प्रमदितव्यम्।। कुशलान्न प्रमदितव्यम्।। भूत्यै न प्रमदितव्यम्।। स्वाध्यायप्रवचनाभ्यां न प्रमदितव्यम्।।1।। देवपितृकार्याभ्यां न प्रमदितव्यम्।। मातृदेवो भव।। पितृदेवो भव।। आचार्यदेवो भव।। अतिथिदेवो भव।। यन्यनवद्यानि कर्माणि।। तानि सेवितव्यानि।। नो इतराणि।। यन्यस्माकं सुचिरितानि।। तानि त्वयोपास्यानि।।2।। नो इतराणि।। ये केचास्मच्छ्रेयांसो ब्राह्मणाः।। तेषां त्वयाऽऽसनेन प्रश्वसितव्यम्।। श्रद्धया देयम्।। अश्रद्धयादेयम्।। श्रिया देयम्।। हिया देयम्।। भिया देयम्।। संविदा देयम्।। अथ यदि ते कर्मविचिकित्सा वा वृतविचिकित्सा वा स्यात्।।3।। ये तत्र ब्राह्मणाः संमर्शिनः।। युक्ता अयुक्ताः।। अलूक्षा धर्मकामाः स्युः।। यथा ते तेषु वर्तेरन्।। तथा तेषु वर्तेथाः।। एष आदेशः।। एष उपदेशः।। एषा वेदोपनिषत्।। एतदनुशासनम्।। एवमुपासितव्यम्।। एवमु चैतदुपास्यम्।।4।।(स्वाध्यायप्रवचनाभ्यां न प्रमदितव्यं तानि त्वयोपास्यानि स्यत्तेषु वर्तेरन् सप्त च) इत्येकादशोऽनुवाकः।।
शं नो मित्रः शं वरुणः।। शं नो भवत्वर्यमा।। शं न इन्द्रो बृहपस्पतिः।। शं नो विष्णुरुरुक्रमः।। नमो ब्रह्मणे।। नमस्ते वायो।। त्वमेव प्रत्यक्षं ब्रह्मसि।। त्वामेव प्रत्यक्षं ब्रह्माविदिम्।। ऋतमवादिषम्।। सत्यमवादिषम्।।तनममामावीत्।। तद्वक्तारमावीत्।। आवीन्माम्।। आवीद्वक्तारम्।। 1।। ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः।।( सत्यमवादिषं पञ्च च) ।। इति द्वादशोऽनुवाकः।।12।।
शं नः शीक्षां सह नौ यश्छन्दसां भूः स यः पृथिव्योमित्यृतं चाहं वेदमूच्य शं नो द्वादश।।12।। शं नो मह इत्यादित्यो नो इतराणि त्रयोविंशतिः।।23।। ॐ शं नो मित्रः शं वरुणः।। शं नो भवत्वर्यमा।। शं न इन्द्रो बृहस्पतिः।। शं नो विष्णुरुरुक्रमः।। नमो ब्रह्मणे।। नमस्ते वायो ।। त्वमेव प्रत्यक्षं ब्रह्मासि।। त्वामेव प्रत्यक्षं ब्रह्म वदिष्यामि।। ऋतंवदिष्मायमि ।। सत्यं वदिष्मयामि।। तनमामवतु।। तद्वक्तारमवतु।। अवतु माम्।। अवतु वक्तारम्।। ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः।।
इति शिक्षाध्यायः प्रथमा वल्ली।।1।।
 

अथ ब्रह्मानन्दवल्ली।।2।।
ॐ ।। सह नाववतु।। सह नौ भुनक्तु।। सह वीर्यं करवावहै।। तेजस्विनावधीतमस्तु।। मा विद्विषावहै।। ॐ शान्ति:! शान्ति:!! शान्ति:!!!
ॐ ब्रह्मविदाप्नोति परम्।। तदेषाऽभ्युक्ता।। सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म।। यो वेद निहितं गुहायां परमे व्योमन्।। सोऽश्नुते सर्वान् कामान् सह ब्रह्मणा विपश्चितेति।। तस्माद्वा एतस्मादात्मन आकाशः संभूतः।। आकाशाद्वायुः।। वायोरग्निः।। अग्नेरापः।। अद्भ्यः पृथिवी।। पृथिव्या ओषधयः।। ओषधीभ्योऽन्नम्।। अन्नात्पुरुषः।। स वा एष पुरुषोऽन्नरसमयः।। तस्येदमेव शिरः।। अयं दक्षिणः पक्षः।। अयमुत्तरः पक्षः।। अयमात्मा।।। इदं पुच्छं प्रतिष्टा।। तदप्येष श्लोको भवति।। इति प्रथमोऽनुवाकः।।1।।
अन्नाद्वै प्रजाः प्रजायन्ते।। याः काश्च पृथिवींश्रिताः।। अतो अन्नेनैव जीवन्ति।।अथैनदपि यन्त्यन्ततः।। अन्नं हि भूतानां ज्येष्ठम्।। तस्मात्सर्वौषधमुच्यते।। सर्वै वै तेऽन्नमाप्नुवन्ति।। येऽन्नं ब्रह्मोपासते।। अन्नंहि भूतानां ज्येष्ठम्।। तस्मात्सर्वौषधमुच्यते।। अन्नाद्भूतानि जायन्ते।। जातान्यन्नेन वर्धन्ते।। अद्यतेऽत्ति च भूतानि तस्मादन्नं तदुच्यत इति।। तस्माद्वा एतस्मादन्नरसमयादन्योऽन्तर आत्मा प्राणमयः । तेनैष पूर्णः। स वा एष पुरुषविध एव।। तस्य पुरुषविधताम्।। अन्वयं पुरुषविधः।। तस्य प्राणः एव शिरः।। व्यानो दक्षिणः पक्षः।। अपान उत्तर पक्षः।। आकाश आत्मा।। पृथिवी पुच्छं प्रतिष्टा।। तदप्येष श्लोको भवति।। इति द्वितीयोऽनुवाकः।।2।।
प्राणं देवा अनु प्राणन्ति।। मनुष्याः पशवश्च ये।। प्राणो हि भूतानामायुः।। तसमात्सर्वायुषमुच्यते।। सर्वमेव त आयुर्यन्ति।। ये प्राणं ब्रहोपासते।। प्राणो हि भूतानामायुः।। तस्मातसर्वायुषमुच्यत इति।। तस्यैष एव शारीर आत्मा।। यः पूर्वस्य।। तस्माद्वा एतस्मात्प्राणमयात्।। अन्योऽन्तर आत्मा मनोमयः।। तेनैष पूर्णः।। स वा एष पुरुषविध एव।। तस्य पुरुषविधताम्।। अनवयं पुरुषविधः।। तस्य यजुरेव शिरः।। ऋग् दक्षिणः पक्षः।। सामोत्तरः पक्षः।। आदेश आत्मा।। अथर्वाङ्गिरसः पुच्छं प्रतिष्ठा।।। तदप्येष श्लोको भवति।। इति तृतीयोऽनुवाकः।।3।।
यतो वाचो निवर्तन्ते।। अप्राप्य मनसा सह।। आनन्दं ब्रह्मणो विद्वान्।। न बिभेति कदाचनेति।। तस्यैष एव शारीर आत्मा।। यः पूर्वस्य।। तस्माद्वा एतस्मान्मनोमयात्।। अनयोऽन्तर आत्मा विज्ञानमयः।। तेनैष पूर्णः।। स वा एष पुरुषविध एव।। तस्य पुरुषविधताम्।। अन्वयं पुरुषविधः।। तस्य श्रद्धैव शिरः ।। ऋतं दक्षिणः पक्षः।। सत्यमुत्तरः पक्षः ।। योग आत्मा।। महः पुच्छं प्रतिष्टा।। तदप्येष श्लोको भवति।। इति चतुर्थोऽनुवाकः।।4।।
विज्ञानं यज्ञं तनुते।। कर्माणि तुनेऽपि च।। विज्ञानं देवाः सर्वे।। ब्रह्म ज्येष्ठमुपासते।। विज्ञानं ब्रह्म चेद्वेद।। तस्माच्चेन्न प्रमाद्यति।। शरीरे पापमनो हित्वा।। सर्वान्कामान्समुश्नुत इति।। तस्यैष एव शारीर आत्मा।। यः पूर्वस्य।। तस्माद्वा एतस्माद्विज्ञानमयात्।। अन्योऽन्तर आत्मानन्दमयः।। तेनैष पूर्णः।। स वा एष पुरुषविध एव।। तस्य पुरुषविधताम्।। अन्वयं पुरुषविधः।। तस्य प्रियमेव शिरः।। मोदो दक्षिणः पक्षः।। प्रमोद उत्तरः पक्षः।। आनन्द आत्मा।। ब्रह्म पुच्छं प्रतिष्ठा।। तदप्येष श्लोको भवति।। इति पञ्चमोऽनुवाकः।।5।।
असन्नेव स भवति।। असद्ब्रह्मेति वेद चेत्।। अस्ति ब्रह्मेति चेद्वेद।। सन्तमेनं ततो विदुरिति।। तस्यैष एव शारीर आत्मा।। य पूर्वस्य।। अथातोऽनुप्रश्नाः।। उताविद्वानमुं लोकं प्रेत्य।। कश्च न गच्छति।।3।। आहो विद्वानमुं लोकं प्रेत्य।। कश्चितसमश्नुता 3 उ।। सोऽकामयत।। बहु स्यां प्रजायेयेति।। स तपोऽतप्यत।। स तपस्तप्त्वा।। इदँ सर्वमसृजत।। यदिदं किंच ।। तत्सृष्ट्वा।। तदेवानुप्रविशत्।। तदनुप्रविश्य।। सच्च त्यच्चाभवत्।। निरुक्तं चानिरुक्तं च।। निलयनं चानिलयनं च।। विज्ञानं चाविज्ञानं च।। सत्यं चानृतं च।। सत्यमभवत्।। यदिदं किंच।। तत्सत्यमित्याचक्षते।। तदप्येषश्लोको भवति।। इति षष्ठोऽनुवाकः।।6।।
असद्वा इदमग्र आसीत्।। ततो वै सदजायत।। तदात्मानं स्वयमकुरुत।। तस्मात्तत्सुकृतमुच्यत इति।। यद्वैतत्सुकृतम्।। रसो वै सः।। रसं ह्येवायं लब्ध्वानन्दी भवति।। को ह्येवान्यात्कः प्राण्यात्।। यदेष आकाश आनन्दो न स्यात्।। एष ह्येवानन्दयाति।। यदा ह्येवैष एतस्मिन्नदृश्येऽनात्म्येऽनिरुक्तेऽनिलयनेऽभयं प्रतिष्ठां विन्दते।। अथ सोऽभयं गतो भवति। यदा ह्येवैष एतस्मिन्नुदरमन्तरं कुरुते। अथ तस्य भयं भवति।। तत्त्वेव भयं विदुषो मन्वानस्य।। तदप्येष श्लोको भवति।। इति सप्तमोऽनुवाकः।।
भीषाऽस्माद्वातः पवते।। भीषोदेति सूर्यः।। भीषाऽस्मादग्निश्चेन्द्रिश्च।। मृत्युर्धावति पञ्चम इति।। सेषाऽऽनन्दस्य मीमांसा भवति।। युवा स्यात्साधुयुवाध्यायकः।।आशिष्ठो द्रढिष्ठो बलिष्ठः।। तस्येयं पृथिवी सर्वा वित्तस्य पूर्णा स्यात्।। स एको मानुष आनन्दः।। ते ये शतं मानुषा आनन्दाः।। स एको मनुष्यगन्धर्वाणामानन्दः।। श्रोत्रियस्य चाकामहतस्य।। ते ये शतं मनुष्यगन्धर्वाणामानन्दाः।। स एको देवगन्धर्वाणामानन्दः।। श्रोत्रियस्य चाकामहतस्य।। तेय ये शतं देवगन्धर्वाणामानन्दाः।। स एकः पितॄणां चिर लोकलोकानामानन्दाः श्रोत्रियस्य चाकामहतस्य।। ते ये शतं पितॄणां चिरलोकलोकानामान्दाः। स एक आजानजानां देवानामान्दः।। श्रोत्रियस्य चाकामहतस्य।। ते ये शतमाजानजानां देवानामानन्दाः।। स एकः कर्मदेवानां देवानामानन्दः।। ये कर्मणा देवानपियन्ति।। श्रोत्रियस्य चाकामहतस्य।। ते ये शतं कर्मदेवानां देवानामानन्दाः।। स एको देवानामानन्दः।। श्रोत्रियस्य चाकामहतस्य।। ते ये शतं देवानामानन्दाः।। स एक इन्द्रस्यानन्दः।। श्रोत्रियस्य चाकामहतस्य।। ते ये शतमिद्रस्यानन्दाः।। स एको बृहस्पतेरानन्दः।। श्रोत्रियस्य चाकामहतस्य।। ते ये शतं बृहस्पतेरानन्दाः।। स एकः प्रजापतेरानन्दः।। श्रोत्रियस्य चाकामहतस्य।। ते ये शतं प्रजापतेरानन्दाः।। स एको ब्रह्मण आनन्दः।। श्रोत्रियस्य चाकामहतस्य।। स यश्चायं पुरुषे।। यश्चासावादित्ये ।। स एकः।। स य एवंवित्।। अस्माल्लोकात्प्रेत्य।। एतमन्नमयमात्मानमुपसंक्रामति।। एतं प्राणमयमात्मानमुपसंक्रामति।। एतं मनोमयमात्मानमुपसंक्रामति।। एतं विज्ञानमयमात्मानमुपसंक्रामति।। एतमानन्दमयमात्मानमुपसंक्रामति।। तदप्येष श्लोको भवति।। इत्यष्टमोऽनुवाक।।8।।
यतो वाचो निवर्तन्ते।। अप्राप्य मनसा सह ।। आनन्दं ब्रह्मणो विद्वान्।। न बिभेति कुतश्चेनेति।। एतं ह वाव न तपति किमहँ साधु नाकरवम्।।।। किमहं पापमकरवमिति।। स य एवं विद्वानेते आत्मानं स्पृणुते।। उभे ह्येवैष एते आत्मानं स्पृणुते य एवं वेद।। इत्युपनिषत्।। इति नवमोऽनुवाकः।।9।।
ब्रह्मविदिदमयमिदमेकविं षड्विंशतिःरन्नादन्नरसमयात्प्राणो व्यानोऽपान आकाशः पृथिवी पुच्छं षड्विंशतिः प्राणं यजुर्ऋक् सामादेशोऽथर्वाङ्गिरसः पुच्छं द्वाविंशतिर्यतः श्रद्धर्तंसत्ययोगो महोऽष्टादश विज्ञानं प्रियं मोदऋ प्रमोद आनन्दो ब्रह्मपुच्छं द्वाविंशतिरसन्नेवाथाष्टाविंशतिरसत्षोडश भीषाऽस्मान्मानुषो मनुष्यगन्धर्वाणां देवगन्धर्वाणां देवगन्धर्वाणां पितॄणां चिरलोकलोकानामाजानजानां कर्मदेवानां ये कर्मणा देवानामिन्द्रस्य बृहस्पतेः प्रजापतेर्ब्रह्मणः। स यश्च संक्रामत्येकपञ्चाशद्यतः कुतश्च नैतमेकादश नव।। ब्रह्मविद्य एवं वेदेत्युपनिषत्।।
।। सह नाववतु।। सह नौ भुनक्तु।। सह वीर्यं करवावहै।। तेजस्विनावधीतमस्तु।। मा विद्विषावहै।। ॐ शान्ति:! शान्ति:!! शान्ति:!!!

इति द्वितीया ब्रह्मानन्दवल्ली।।2।।

अथ भृगुवल्ली।।3।।
हरिः ॐ।। ।। सह नाववतु।। सह नौ भुनक्तु।। सह वीर्यं करवावहै।। तेजस्विनावधीतमस्तु।। मा विद्विषावहै।। ॐ शान्ति:! शान्ति:!! शान्ति:!!!
भृगुवे वारुणिः ।। वरुणं पितरमुपससार।। अधीहि भगवो ब्रह्मेति।। तस्मा एतत्प्रोवाच।। अन्नं प्राणं चक्षुः श्रोत्रं मनो वाचमिति।। तं होवाच।। यतो वा इमानि भूतानि जायन्ते ।। येन जातानि जीवन्ति।। यत्प्रयन्त्यभिसंविशन्ति।। तद्विजिज्ञासस्व।। तद्ब्रह्मेति।। स तपोऽतप्यत।। स तपस्तप्त्वा।। इति प्रथमोऽनुवाकः।1।।
अन्नं ब्रह्मेति व्यजानात्।। अन्नाद्ध्येव खल्वामानि भूतानि जायन्ते।। अन्नेन जातानि जीवन्ति।। अन्नं प्रयन्त्यभिसंविशन्तीति।। तद्विज्ञाय।। पुनरेव वरुणं पितरमुपससार ।। अधीहि भगवो ब्रह्मेति।। तं होवाच।। तपसा ब्रह्म विजिज्ञासस्व।। तपो ब्रह्मेति।। स तपोऽतप्यत।। स तपस्तप्त्वा।। इति द्वितीयोऽनुवाकः।।2।।
प्राणो ब्रह्मेति व्यजानात्।। प्राणाद्ध्येव खल्विमानि भूतानि जायन्ते।। प्राणेन जातानि जीवन्ति।। प्राणं प्रयन्त्यभिसंविशन्तीति।। तद्विज्ञाय।। पुनरेव वरुणं पितरमुपससार।। अधीहि भगवो ब्रह्मेति।। तं होवाच ।। तपसा ब्रह्म विजिज्ञासस्व।। तपो ब्रह्मेति।। स तपोऽतप्यत।। स तपस्तप्त्वा।। इति तृतीयोऽनुवाकः।।3।।
मनो ब्रह्मेति व्यजानात्।। मनसा ह्येव खल्विमानि भूतानि जायन्ते।। मनसा जातिनि जीवन्ति।। मनः प्रयन्त्यभिसंविशन्तीति।। तद्विज्ञाय।। पुनरेव वरुणं पितरमुपससार।। अधीहि भगवो ब्रह्मेति।। तं होवाच ।। तपसा ब्रह्म विजिज्ञासस्व।। तपो ब्रह्मेति।। स तपोऽतप्यत।। स तपस्तप्त्वा।। इति चतुर्थोऽनुवाकः।।4।।
विज्ञानं ब्रह्मेति व्यजानात्।। विज्ञानाद्ध्येव खल्विमानि भूतानि जायन्ते।। विज्ञानेन जातानि जीवन्ति।। विज्ञानं प्रयन्त्यभिसंविशन्तीति।। तद्विज्ञाय।। पुनरेव वरुणं पितरमुपससार।। अधीहि भगवो ब्रह्मेति।। तं होवाच ।। तपसा ब्रह्म विजिज्ञासस्व।। तपो ब्रह्मेति।। स तपोऽतप्यत।। स तपस्तप्त्वा।। इति पंचमोऽनुवाकः।।5।।
आनन्दो ब्रह्मेति व्यजानात्।। आनन्दाद्ध्येव खल्विमानि भूतानि जायन्ते।। आनन्देन जातानि जीवन्ति।। आनन्दं प्रयन्त्यभिसंविशन्तीति।। सैषा भार्गवी वारुणी विद्या।। परमे व्योमन प्रतिष्ठिता।। स य एवं वेद प्रतितिष्ठति अन्नवानन्नादो भवति।। महान् भवति प्रजया पशुभिर्ब्रह्मवर्चसेन।। महान् कीर्त्या।। इति षष्ठोऽनुवाकः।।5।।
अन्नं न निन्द्यात्।। तद्व्रतम।। प्राणो वा अन्नम्।। शरीरमन्नादम्।। प्राणे शरीरं प्रतिष्ठितम्।। शरीरे प्राणः प्रतिष्ठितः।। तदेतदन्नमन्ने प्रतिष्ठितम्।। स य एतदन्नमन्ने प्रतिष्ठितं वेद प्रतितिष्ठति।। अन्नवानन्नादो भवति।। महान् भवति प्रजया पशुभिर्ब्रह्मवर्चसेन।। महान् कीर्त्या।। इति सप्तमोऽनुवाकः।।
अन्नं न परिचक्षीत।। तद्ब्रतम्।। आपो वा अन्नम्।। ज्योतिरन्नदम्।। अप्सु ज्योतिः प्रतिष्ठितम्।। ज्योतिष्यापः प्रतिष्ठिताः। तदेतदन्नमन्ने प्रतिष्ठितम्। स य एतदन्नमन्ने प्रतिष्ठितं वेद प्रतितिष्ठति।। अन्नवानन्नादो भवति।। महान्भवति प्रजया पशुभिर्ब्रह्मवर्चसेन।। महान् कीर्त्या।। इति अष्टमोऽनुवाकः।।
अन्नं बहु कुर्वीत।। तद्ब्रतम्।। पृथिवी वा अन्नम्।। आकोशोऽन्नादः।। पृथिव्यामाकाशः।। प्रतिष्ठितः।। आकाशे पृथ्वी प्रतिष्ठिता। तदेतदन्नमन्ने प्रतिष्ठितम् । स य एतदन्नमन्ने प्रतिष्ठितं वेद प्रतितिष्ठति ।। अन्नवानन्नादो भवति।। महान्भवति प्रजया पशुभिर्ब्रह्मवर्चसेन।। महान् कीर्त्या।। इति नवमोऽनुवाकः।।
न कंचन वसतौ प्रत्याचक्षीत।। तद्ब्रतम्।। तस्माद्या कया च विधया बह्वन्नं प्राप्नुयात्।। अराध्यसमा अन्नमित्याचक्षते।। एतद्वै मुखतोऽन्नंराद्धम्।। मुखतोऽस्मा अन्नं राध्यते।। एतद्वै मध्यतोऽन्नं राद्धम्।। मध्यतोऽस्मा अन्नं राध्यते।। एतद्वा अन्ततोऽन्नं राद्धम्।। अन्ततोऽस्मा अन्नं राध्यते।।1।। य एवं वेद।। क्षेम इति वाचि।। योगक्षेम इति प्राणापानयोः।। कर्मेति हस्तयोः।। गतिरिति पादयोः।। विमुक्तिरिति पायौ।। इति मानुषीः समाज्ञाः।। अथ दैवीः।। तृप्तिरिति वृष्टौ।। बलमिति विद्युति।।2।। यश इति पशुषु।। ज्योतिरिति नक्षत्रेषु।। प्रजापतिरमृतमानन्द इत्युपस्थे।। सर्वमित्याकाशे।। तत्प्रतिष्ठेत्युपासीत।। प्रतिष्ठावान् भवति।। तन्मह इत्युपासीत।। महान् भवति।। तन्मन इत्युपासीत।। मानवान् भवति।।3।। तन्नम इत्युपासीत।। नम्यन्तेऽस्मै कामाः।। तद्ब्रह्मेत्युपासीत।। ब्रह्मवान् भवति।। तद्ब्रह्मणः परिमर इत्युपासीत।। पर्येणं म्रियन्ते द्विषन्तः सपत्नाः।। परि येऽप्रिया भ्रातव्याः।। स यश्चायं पुरुषे।। यश्चासावादित्ये।। स एकः।।4।। स य एवंवित्।।अस्माल्लोकात्प्रेत्य।। एतमन्नमयमात्मानमुपसंक्रम्य।। एतं प्राणमयमात्मानमुपसंक्रम्य।। एतं मनोमयमात्मानमुपसंक्रम्य।। एतं विज्ञानमयमात्मानमुपसंक्रम्य।। एतमानन्दमयमात्मानमुपसंक्रम्य।। इमाँल्लोकान्कामान्नीकामरूप्यनुसंचरन्।। एतत्सामगायन्नास्ते।। हा 3 वि हा 3 वु हा 3 वु।।5।। अहमन्नमहमन्नमहमन्नम्।। अहमन्नादो 2 ऽहमन्नादो 2 ऽहमन्नादः।। अहं श्लोककृदहं श्लोककृदहं श्लोककृत्।। अहमस्मि प्रथमाजा ऋता 3 स्य।। पूर्वं देवेभ्योऽमृतस्य ना 3 भायि।। यो मा ददानित स इदेव वा 3 वाः।। अहमन्नमन्नमदन्तमा 3 द्मि।। अहं विश्वं भुवनमभ्यभवां3 म्।। सुवर्णज्योतिः।। य एवं वेद।। इत्युपनिषत्।।6।।(राध्यते विद्युति मानवान्भवत्येके हा 3 वु य एवं वेदैकं च) ।। इति दशमोऽनुवाकः।।10।।
भृगुस्तस्मै यतो विशन्ति तद्विजिज्ञासस्व तत्त्रयोदान्नं प्राणं मनो विज्ञानमिति विज्ञाय तं तपसा द्वादश द्वादशानन्द इति सैषा दशान्नं न निन्द्यात् प्राणः शरीरमन्नं न परिचक्षीतापो ज्योतिरन्नं बहु कुर्वीत पृथिव्यामाकाश एकादशैकादश।। न कंचनैकषष्टिरेकान्नविंशतिरेकान्नविंशतिः।। सह नाववतु।। सह नौ भुनक्तु।। सह वीर्यं करवावहै।। तेजस्विनावधीतमस्तु।। मा विद्विषावहै।। ॐ शान्ति:! शान्ति:!! शान्ति:!!!
।।भृगुरित्युपनिषत्।।
इति भृगुवल्ली समाप्ता।।
ॐ शं नो मित्रः शं वरुणः।। शं नो भवत्वर्यमा।। शं न इन्द्रो बृहस्पतिः ।। शं नो विष्णरुरुक्रमः।। नमो ब्रह्मणे।। नमस्ते वायो।। त्वमेव प्रत्यक्षं ब्रह्मासि।। त्वामेव प्रत्यक्षं ब्रह्म बदिष्यामि।।सत्यं बदिष्यामि।। तन्मामवतु।। तद्वक्तारमवतु।। अवतु माम्।। अवतु वक्तारम्।।
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः।।